नई पुस्तकें >> मैं था, चारदीवारें थीं मैं था, चारदीवारें थींराजकुमार कुम्भज
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राजकुमार कुम्भज की 110 नई कवितायें
क्या कुछ सोचते हुए ?
- क्या कुछ सोचते हुए
- कितना कुछ दूर निकल जाता हूँ मैं
- कल तक जिस घर के आँगन में
- तुलसी का एक पौधा लगा था
- जो बच्चों जैसा ही सगा था
- आज खिड़की से झाँकता हूँ जब वहीं
- तो पाता हूँ कुछ और कुछ और
- कि वह नहीं, मैं नहीं, घर नहीं, आँगन नहीं
- टेलीविज़न पर चल रही कोई फ़िल्म है एक
- जिसमें कपड़े बदल रही है तुलसी
- और हँस रही हैं टेलीफ़ोन में फँसी आवाजें
- क्या कुछ सोचते हुए?
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