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आचार्य श्रीराम शर्मा >> महाकाल का सन्देश

महाकाल का सन्देश

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 16271
आईएसबीएन :000000000

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Mahakal Ka Sandesh - Jagrut Atmaon Ke Naam - a Hindi Book by Sriram Sharma Acharya

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ईश्वर के यहाँ देर हो सकती है, पर अन्धेर नहीं। सरकार और समाज से पाप को छिपालेने पर भी आत्मा और परमात्मा से उसे छिपाया नहीं जा सकता। इस जन्म में या अगले जन्म में हर बुरे-भले कर्म का प्रतिफल निश्चित रूप से भोगना पड़ता है।

पाप का दण्ड आज नहीं भुगतना पड़ेगा, तो किसी को यह नहीं समझ बैठना चाहिए किउससे सदा के लिए छुट्टी हो गई। ईश्वरीय कठोर व्यवस्था उचित न्याय और उचित कर्मफल के आधार पर ही बनी हुई है, सो तुरन्त न सही कुछ देर बाद अपनेकर्मों का फल भोगने के लिए हर किसी को तैयार रहना चाहिए।

(वाङ्मय-६६, पृ० ६.१७)

 

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अनीति को सहन न करने, किसी पर अनीति न होने देने की हिम्मत हर जीवित मनुष्य में होनी चाहिए। बहादुरी मानवता का एक आवश्यक अंग है। पौरुष संपन्न को ही पुरुष कहते हैं। शौर्य और साहस मनुष्य जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएँ हैं। इनके बिना अन्न खाने और साँस लेने भर के लिए जीवित मनुष्य को एक प्रकार से मृतक या पतित ही कहा जा सकता है। कोई अवसर ऐसे होते हैं, जिनमें जोखिम उठाना भी गर्व और गौरव का कारण होता है। उद्दण्डता जाग्रत् आत्माओं के नाम के अवरोध में जोखिम उठाकर आगे आना सत्साहस है, जिसकी प्रशंसा मूक मानवता का कण-कण करता रहेगा।

(वाङ्मय-६६, पृ०१.४४)

 

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धर्मनिष्ठा की प्रामाणिकता परीक्षा की कसौटी पर कसे जाने से ही सिद्ध होती है। धर्ममात्र कल्पना तक सीमित नहीं हो सकता। पूजा-पाठ एवं कथाप्रसंगों तक धर्म धारणा को सीमित नहीं रखा जा सकता। वह अपनी प्रखरता प्रमाणित करने के लिएमचलती रहती है और समय की पुकार पर आदर्शों के लिए दुःसाहस भरे कदम उठाने में नहीं चूकती। विभीषण ने भाई का विरोध किया, प्रताड़ना सही और अपने कोखतरे में डाला। हनुमान ने समुद्र लाँघने, पर्वत उठाने और लंका दहने के लिए अपनी पूँछ में आग लगाने देने जैसे जोखिम उठाये। वस्तुतः धर्मनिष्ठा कितनीगहरी है, इसकी परख यही है कि वह ईश्वरीय प्रयोजन पूरे करने में, अनीति के विरोध और नीति के समर्थन के लिए किस सीमा तक अग्नि परीक्षा मेंप्रवेश करने का साहस भरा परिचय प्रस्तुत करती है।

(वाङ्मय-२९, पृ० ५.२०)

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