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आचार्य श्रीराम शर्मा >> महाकाल का सन्देश

महाकाल का सन्देश

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 16271
आईएसबीएन :000000000

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Mahakal Ka Sandesh - Jagrut Atmaon Ke Naam - a Hindi Book by Sriram Sharma Acharya

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हम भीरु बनकर नहीं, निर्भय होकर जिएँ। निर्भयता मनुष्य की जीवन्त आत्मा काप्रमाण है। जिसकी आत्मा मर चुकी होती है, उसका तेज समाप्त हो गया होता है। वह मनुष्य कायर बन जाता है।

आत्मा की तेजस्विता सदाचार से बढ़ती और बनी रहती है। जब मनुष्य सदा सत्य हीबोलता है, सत्य व्यवहार करता है और सत्य विचार ही करता है, तो उसकी आत्मा का तेज प्रखर होता है और उसी के अनुसार ही उसकी निर्भयता का भाव भी विकसितहो जाता है। जो झूठा, छली और दम्भी होता है, वह ऊपर से एक बार निर्भयता का नाटक भले ही कर दिखाए, पर वास्तव में वह होता बड़ा कायर है। अपराध वृत्तिके लोग निर्भय रह ही नहीं सकते, यह असंभव है।

(अखण्ड ज्योति-१९७१, अगस्त-५२)

 

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दुनिया वाले तलवार चलाने वालों को शूरमा कहते हैं और जो जितनों के सिर काट सके,उसे उतना ही बड़ा वीर बताते हैं। अपनी दृष्टि में यह कोई वीरता का चिह्न नहीं। यह कार्य तो कसाई भी निपुणता के साथ बड़ी मात्रा में करते रहते हैं।शौर्य का चिह्न है-अनौचित्य को अंगीकार करने से स्पष्ट इनकार कर सकने की हिम्मत और साहस । आत्मा की पुकार का अनुसरण करते हुए वह कदम उठाना जोव्यक्ति और समाज का स्तर ऊँचा बनाने की दृष्टि से वांछनीय है।

आत्मिक प्रगति प्रचण्ड मनोबल की अपेक्षा करती है और ऐसे साहस का विकास चाहती है,जो सत्य को धारण कर सकने में फौलाद जैसा मजबूत सिद्ध हो सके।

(यु०नि०यो० का दर्शन स्वरूप-४.७०)

 

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समाज जिसके ऊपर विश्वास नहीं करता, लोग जिसे संदेह और शंका की दृष्टि से देखतेहों, चरित्रवान् होने पर भी उसके चरित्र का कोई मूल्य-महत्त्व नहीं है। वह अपनी निज की दृष्टि में भले ही चरित्रवान् बना रहे। यथार्थ में चरित्रवान्वही है, जो अपने समाज, अपनी आत्मा और अपने परमात्मा की दृष्टि में समान रूप से असंदिग्ध और संदेह रहित हो। इस प्रकार की

मान्य और नि:शंक चरित्रमत्ता ही वह आध्यात्मिक स्थिति है, जिसके आधार पर सम्मान,सुख, सफलता और आत्म-शान्ति का लाभ होता है। मनुष्य को अपनी चारित्रिक महानता की अवश्य रक्षा करनी चाहिए। यदि चरित्र चला गया, तो मानो मानव जीवनका सब कुछ चला गया।

(अखण्ड ज्योति-१९६९, मई-२२)

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