उपन्यास >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नंदा
|
0 |
एक नदी दो पाट
उसे अब तक विश्वास न आ रहा था। उसकी दृष्टि दुल्हिन के कमरे की ओर जाती और वह काँप उठता। छल...धोखा...यह सोचते ही वह क्रोध से दाँत पीसने लगा।
उसकी दुल्हिन वह कामिनी न थी जो उसने देखी थी। सफेद संगमरमर की भाँति सुन्दर और चाँदनी में धुली हुई कामिनी के स्थान पर एक काली भद्दी बाँस की नड़ी का बन्धन उससे जोड़ दिया गया था।
विस्मय में खोया अँधेरे में वह आँखें खोले हुए छत की ओर देखने लगा। उसका मस्तिष्क इसे स्वीकार न कर रहा था। मन की व्यग्रता को रोकने के लिए वह अपने बाल खींचने लगा। इतना बोझ क्या उसका दिमाग सहन कर सकेगा?
काला रंग, मोटे नक्श और बिना आकर्षण का मुख। उसमें कोमलता का एक अंश भी तो न था! उसे अपने मित्रों के यह शब्द याद आ गए-'अरे भई, तुममें ऐसी कौन-सी विशेषता है जो कॉलिज की सब लड़कियाँ तुम्हारे ही गुण गाती हैं?'
इसके साथ ही कमरे में ठहाकों की एक ध्वनि उठी और दीवारों से टकरा गई। कल्पना की यह भयानक गूंज उसका उपहास करने लगी। उसने दोनों हाथों से अपने कान बन्द कर लिए और व्याकुल मन को शान्ति देने के लिए करवटें बदलने लगा। बार-बार उसके मस्तिष्क पर एक ही प्रश्न हथौड़े की-सी चोट लगाता-यह धोखा क्यों? और वह कामिनी कौन थी जिसे दिखाकर उसकी कामनाओं का खून किया गया?
पूरी रात इन्हीं विचारों और इसी बेचैनी में तड़पते बीत गई। विनोद अपने दुर्भाग्य पर बेसुध पड़ा जाने क्या-क्या सोचता रहा। दिन के उजाले ने उसके मन की पीड़ा को और बढ़ा दिया। वह अब किसी को अपना मुंह न दिखाना चाहता था। उसने वैसे ही लेटे-लेटे एक बार फिर दुल्हिन के कमरे की ओर देखा। द्वार में लगा पर्दा समीर के व्यस्त झोंकों में वैसे ही झूल रहा था मानो कुछ हुआ ही न हो।
|