उपन्यास >> एक नदी दो पाट एक नदी दो पाटगुलशन नंदा
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एक नदी दो पाट
'अब हमसे लज्जा कैसी?'
विनोद की बात सुनकर उसका सिर घुटनों में और भी झुक गया। विनोद ने बढकर अपनी उँगलियाँ उसके घने बालों में डाल दीं और उनसे खेलने लगा। उसके शरीर में मुस्कराहटें उभरने लगीं। उसकी घबराहट कम होने लगी। दुल्हिन के संकोच को दूर करके उससे आँखें मिलाने का भार तो उसी पर था।
विनोद ने उसके मुख को उठाकर उसके हाथों को बलपूर्वक हटाना चाहा; परन्तु वे स्वयं ही ढीले पड़ गए। कामिनी ने मुख से हाथ हटा लिया; परन्तु झुकी हुई आँखों को ऊपर न उठा पाई। विनोद के हाथ अभी तक उसके कंधों पर थे। उसे कुछ समझ न आ रहा था। उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया हो।
उसने फिर साहस किया और कामिनी की ठोड़ी को सहारा देकर ऊपर उठा दिया। दोनों की आँखें चार हुईं; परन्तु विनोद ने सहसा अपना हाथ खींच लिया। उसका मुँह सफेद पड़ गया और माथे पर पसीने की बूंदें फूटने लगीं। घबराहट पर अधिकार पाते हुए बड़ी कठिनाई से वह कह पाया, 'तुम...कामिनी हों... क्या?'
'जी...।' दुल्हिन ने धीमे काँपते हुए स्वर में उत्तर दिया। इतना बड़ा छल! विनोद को आकाश और धरती काँपते हुए दिखाई देने लगे। कमरे की हर वस्तु उसका उपहास कर रही थी। वह बड़ी कठिनाई से पाँव बढ़ाता कमरे के द्वार तक जा सका। दुल्हिन झट पलंग छोड़कर नीचे उतर आई और रुँधे हुए स्वर में बोली, 'आप क्यों चल दिए?'
विनोद ने कोई उत्तर न दिया और शीघ्र सीढ़ियाँ उतर गया। कामिनी सिर को थामकर वहीं बैठ गई।
नीचे गोल कमरे में सर्वत्र अँधेरा था। विनोद ने बत्ती भी न जलाई और बेसुध स्वयं को सोफे पर गिरा दिया। क्रोध में उसने हाथों में पकड़ा फूलों का हार मसलकर नीचे फेंक दिया।
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