जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
यह सच है कि आत्मत्याग-जैसी भावना पूर्ण रूप से केवल तिलक में ही थी। कोई भी अन्य सदस्य उनकी तरह सत्य-परायणता पर इतना जोर नहीं देता था। उनके विरोधियों ने जैसा उस समय कहा था, संभव है कि तिलक अपने सचाई-ईमानदारी के आसन पर इसीलिए प्रतिष्ठित रहने की कोशिश किया करते थे कि उनके सहकर्मी गलत और नीच साबित हों। विशेषकर आगरकर, जिनकी तिलक से 1888 में होलकर-अनुदान को लेकर काफी कटु कहा-सुनी हो गई थी तिलक द्वारा बार-बार की गई जेसुइट सम्प्रदाय-सम्बन्धी सिद्धान्तों की चर्चा से तंग और विक्षुब्ध हो उठे थे तथा खुलेआम इन सिद्धान्तों का उपहास कर उन्हें नीचा दिखाने लगे थे :
''यह अत्यधिक सन्देह का विषय है कि जेसुइट-सम्प्रदाय से मानव-सभ्यता को हानि की बजाए अधिक लाभ पहुंचा है। इसलिए इस सम्प्रदाय के अनुशासन में महत्वपूर्ण परिवर्धन-संशोधन किए बिना कोई भी व्यक्ति उसकी नकल नहीं कर सकता, क्योंकि कोई भी जेसुइट विवाहित आदमी नहीं होता, उसकी कोई भी निजी सम्पत्ति नहीं होती और न उसे कोई धनोपार्जन करने की ही इजाजत है। जेसुइट सम्प्रदायवालों का एक ही ध्येय होता है और वे एक ही रास्ते चलते भी हैं। और इस सब कुछ के बाद, वे एक धार्मिक सम्प्रदाय के हैं, जिसमें स्वतन्त्र विचार करना बिल्कुल निषिद्ध है।''
इस प्रकार आश्चर्य नहीं कि सोसायटी के 1886 से 1889 तक के अभिलेख कंधे से कन्धा मिलाकर चलनेवाले इन दोनों साथियों के बीच जमकर हुए छिटपुट और निरन्तर झगड़ों से भरे हों। नैतिकता की दृष्टि से अपने सहकर्मियों-द्वारा बाहरी काम करके आय बढ़ाने के लिए किए गए प्रयत्न पर तिलक की आपत्ति का चाहे जो भी औचित्य हो, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि तिलक ने अपने सहकर्मियों-द्वारा किए जानेवाले अवैतनिक सार्वजनिक कार्य पर भी आपत्ति करके उन्हें अपने से बहुत दूर कर दिया। बात एकाएक तब बढ़ी, जब गोखले ने 'सार्वजनिक सभा' के मंत्री का पद ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की। इस पद पर रहकर उन्हें दो-तीन घंटे रोज काम करना पड़ता। तिलक ने इस पर घोर आपत्ति की और कहा कि मैं स्वयं पहले इस पद को अस्वीकार कर चुका हूं। जिस तरह का प्रतिबंध सरकार ने अपने सेवकों के बाहरी कार्य करने पर लगा रखा है, उसी तरह का प्रतिबन्ध यहां भी होना चाहिए।
यों तिलक स्वयं कभी-कभी अपने पेशे से भिन्न अवैतनिक सार्वजनिक कार्य करने के नियमों का पालन करने में चूक जाया करते थे, फिर भी अपने इस तर्क से जो उनके पक्ष में था, संतुष्ट न होकर गोखले पर अकारण ही यह चोट की थी-''गोखले को अपनी शक्ति को फर्ग्युसन कॉलेज में अंग्रेज़ी के प्रोफेसर के काम में लगाने के लिए ही पर्याप्त क्षेत्र खुला है। यदि हम दूसरे कॉलेजों की बराबरी करना चाहते हैं, तो हमें कम-से-कम यह दिखलाना होगा कि हम अध्ययन और अध्यापन में उनसे कम नहीं, जैसा कि निश्चय ही हम हैं।''
जब गोखले ने 'सार्वजनिक सभा' के मंत्री-पद को स्वीकार कर लिया, तब एक संकट उपस्थित हो गया और तिलक ने इस प्रश्न को जब दोबारा उठाना चाहा, तो सोसायटी की परिषद ने उनकी निन्दा ही की। फलतः 14 अक्तूबर, 1890 को उन्होंने सोसायटी से त्याग-पत्र दे दिया, जो पांच माह बाद प्रभावी हुआ। परिषद के अध्यक्ष डॉ रा० गो० भांडारकर ने यह घोषणा की कि 'तिलक ने प्रबन्ध-समिति के सदस्यों पर बेईमानी के जो आरोप लगाए हैं, उन्हें हम नज़र-अन्दाज नहीं कर सकते।' 2 फरवरी, 1891 को परिषद ने तिलक के सभी आरोपों को निराधार करार दिया और इस दुर्भाग्यपूर्ण काण्ड पर पर्दा डाल दिया गया।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट