जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
हालांकि औसत छात्र के लिए तिलक के व्याख्यानों को समझ सकना कठिन बात थी, फिर भी सुप्रसिद्ध इतिहासकार गो० स. सरदेसाई ने, जो उस कॉलेज से पहले निकले पहले-विद्यार्थियों में से थे, अध्यापक-रूप में तिलक की बड़ी प्रशंसा की है :
''क्रम चय (परम्युटेशन) और संयोजन (कम्बिनेशन) पढ़ाते समय, तिलक रोजमर्रे के जीवन से उदाहरण देकर, विषय को बहुत दिलचस्प बना देते थे। हम लोग उनके सूक्ष्म निरीक्षण से बहुत प्रभावित थे। वह विद्यार्थियों की कठिनाइयों को दूर करने से कभी भी विमुख नहीं होते थे। कॉलेज बन्द होने पर, वह सदा छात्रों के साथ ही पैदल घर जाते थे और रास्ते में उनसे कई विषयों पर विचार-विमर्श करते थे। किसी भी विषय पर भाषण करते समय वह अपने श्रोताओं के साथ बड़ी आसानी से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित कर लिया करते थे। हम लोगों ने उन्हें कभी भी क्रोध करते नहीं देखा। उनकी कक्षा में कभी भी कोई हंसी-मजाक नहीं होता था।''
फर्ग्युसन कॉलेज ने इतनी शीघ्र उन्नति की और डेक्कन एजुकेशन सोसायटी ने जनता और सरकार को इतना प्रभावित किया कि 1887 में सरकार ने प्रस्ताव किया कि उसके द्वारा संचालित सोसायटी कॉलेज का प्रबन्ध भी अपने हाथ में ले ले और अपने को फर्ग्युसन कॉलेज में मिला दे। इससे सोसायटी के आजीवन-सदस्यों को बड़ी प्रसन्नता हुई और वे इस प्रस्ताव को मान भी लेते, यदि उसके साथ असंगत शर्ते न जुड़ी होतीं। शर्तों में यह भी थी कि डेक्कन कॉलेज के दो यूरोपीय प्रोफेसरों को उसी वेतन पर रखना पड़ेगा। प्रस्ताव अस्वीकार करने के कारण, बम्बई सरकार ने, 3,000 रुपये का वार्षिक अनुदान देना बन्द कर दिया और इसका कारण दिया गया कि ''पूना में धन का दुरुपयोग किया जा रहा है, जब कि सारे देश में प्राथमिक, माध्यमिक एवं तकनीकी स्कूलों के लिए इस धन की बड़ी आवश्यकता है।''
जब सोसायटी और कॉलेज दिन-प्रति-दिन अधिकाधिक उन्नति कर ही रहे थे, तब आजीवन-सदस्यों में उत्पन्न मतभेद के रूप में क्षितिज पर अशुभ बादल मंडराने लगे। तिलक और आगरकर में समाज-सुधार के प्रश्न पर मतभेद था-इसका जिक्र पहले ही किया जा चुका है। वास्तव में तिलक को यह देखकर बहुत कष्ट पहुंचा कि उनके सहकर्मियों में अन्य जरियों से अग्नी आय बढ़ाने की प्रवृत्ति जोर पकड़ती जा रही है। यह प्रवृत्ति उनके विचार से कपटपूर्ण थी और इससे उनकी प्रतिज्ञा भंग होती थी तथा संस्था का अहित होता था। जैसे-जैसे अपने सहकर्मियों के आत्म-संयम से विचलित होने की प्रवृत्ति के प्रति तिलक का विरोध तीव्र और ऊंचा होता गया, वैसे-वैसे सोसायटी के आजीवन-सदस्यों के बीच मतभेद की खाई चौड़ी होती गई।
इसमें कोई सन्देह न था कि कुछेक आजीवन-सदस्य अपनी आय बढ़ाने के लिए अपने को विश्वविद्यालय से बाहर के अतिरिक्त काम में लगाए हुए थे। उस समय में भी आज की भांति ही पाठ्यक्रम की पुस्तकें लिखना बहुत-से प्रोफेसरों की कमज़ोरी थी। उन्होंने यह मांग भी की थी कि उनका वेतन बढ़ाया जाए। प्रोफेसरों का आरम्भ में जो पारिश्रमिक प्रतिमास 75 रुपये और 3,000 रुपये का जीवन-बीमा निर्धारित किया गया था, उसे बढ़ाने के लिए भी हल्ला-हंगामा किया जा रहा था, तिलक ने इस प्रवृत्ति की बड़े उपहास के साथ निन्दा की थी।
''एक बार परिस्थिति के कुछ सुधरने पर, 1881-63 की देशभक्ति की भावना को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा... हम जीवन-बीमा में अविश्वास प्रकट करने और बढ़ते हुए परिवार की आवश्यकताओं की आड़ में अधिक वेतन की मांग करने लगे। धीरे-धीरे ऐसे लोगों और विशेषतः उन आजीवन-सदस्यों की संख्या बढ़ने लगी, जो बाद में आए थे। इन सदस्यों को इस बात का पूरा-पूरा ज्ञान न था कि किस लिए और कैसे हम लोगों ने त्याग का सिद्धान्त अपनाया है। मुझे आश्चर्य होता है कि इन सब तथ्यों के बावजूद, किस प्रकार हम लोग अब भी जेसुइटों की भांति आत्मत्यागी कहलाने के लिए स्वाहिशमन्द थे। मैंने ईसाइयों के जेसुइट सम्प्रदाय के आत्मत्याग के सिद्धान्त को मानने की कोशिश की है और मुझे यह कहते दुख हो रहा है कि इस सिद्धान्त को माननेवाले अल्प संख्या में ही मुझे मिले हैं।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट