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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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आधुनिक भारत के निर्माता

अतः राजनैतिक क्षेत्र में फिर से वापस लौटते ही इन सब प्रश्नों का उत्तर देने का भार तिलक पर आ पड़ा। देश में उनके स्तर का कोई दूसरा लोकप्रिय नेता नहीं था, जिसके इतने अधिक अनुयायी हों, जो जनता में इतना जोश भर सके या जिसके आदेश का जनता संहर्ष पालन करे। इतने दिनों तक जेल में बन्द रहने के कारण, परिस्थिति और घटनाक्रम को फिर से समझना आसान न था। अतः पहले तो उन्हें अपने साथियों-सहयोगियों से परामर्श करना और अपने समर्थकों को संगठित करना था। फिर उन्हें उन लोगों से भी बातचीत करनी थी, जिनके कब्जे में कांग्रेस थी। सूरत की फूट के बाद, आठ वर्षों की सारी अवधि में तिलक ने कांग्रेस के दोनों गुटों को फिर से एक झण्डे के नीचे लाने की आशा कभी नहीं छोड़ी थी। यह सब करने के बाद ही वह अपनी नीति निर्धारित कर सकते थे।

इस प्रकार, जब तिलक अभी सोच-विचार कर ही रहे थे, तभी सहसा एक ऐसी घटना घटी, जिसने सारी परिस्थिति को बिल्कुल बदल दिया और उनके लिए भविष्य का मार्ग प्रशस्त हो गया। यह घटना थी 4 अगस्त, 1914 को की गई ब्रिटेन की युद्ध-घोषणा, जिससे अगले चार वर्षों तक भारत की राजनीतिक गतिविधि उसी प्रकार प्रभावित हुई, जिस प्रकार कि 1939-45 के दौरान चले द्वितीय महायुद्ध के दिनों में हुई थी। दूसरे महायुद्ध की तरह ही प्रथम महायुद्ध का प्रभाव भारत में तभी परिलक्षित होने लगा था, जबकि युद्ध में ब्रिटेन का पलड़ा हल्का पड़ने लगा था।

तिलक स्पष्टतः इस सिद्धान्त के पोषक थे कि ''इंग्लैण्ड की कठिनाई ही भारत के लिए सुअवसर' है।'' इस यथार्थवादी दृष्टिकोण की आलोचना में राजभक्त या नैतिकतावादी चाहे जो भी कहें, मगर ऐतिहासिक सत्य यही है कि यह बिल्कुल सही और उपयुक्त था, क्योंकि यदि ब्रिटेन इन 31 वर्षों के भीतर दो बार जीवन-मरण के संघर्ष में उलझा न होता, तो भारत को स्वतन्त्रता मिलने में अभी और भी कई वर्ष लगे होते। इसलिए, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं कि युद्ध के दौरान जब तिलक ने स्वशासन (होमरूल) आन्दोलन छेड़ा, तब जनता ने उसका पूरा-पूरा समर्थन किया और उसके कारण भारतीयों को जिम्मेदार शासन में भाग लेने का थोड़ा-बहुत अधिकार मिला भी। यह बड़े महत्व की बात है कि तिलक के मन में युद्ध के सम्बन्ध में जो पहली प्रतिक्रिया हुई, उसमें मोल-तोल या फायदा उठाने की जरा भी भावना नहीं थी। 27 अगस्त, 1914 को उन्होंने एक वक्तव्य में कहा भी था-''ऐसे संकट के समय हर भारतीय का, चाहे वह छोटा हो या बड़ा, अमीर हो या गरीब, कर्तव्य है कि वह ब्रिटिश सरकार की भरसक सहायता करे।''

उन्होंने आगे कहा-''अन्य राजनैतिक कार्यकर्ताओं की तरह मेरे भी शासन सम्बन्धी कई नीतियों पर सरकार से मतभेद हैं। किन्तु इसी आधार पर यह कहना, कि मैं सरकार का विरोधी हूं, एकदम असंगत और निराधार है। मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि भारत में हम आयरलैंड के निवासियों की तरह ही शासनपद्धति में सुधार का प्रयत्न कर रहे हैं, न कि सरकार को पलटने का। मुझे यह कहने में तनिक भी हिचकिचाहट नहीं कि देश के विभिन्न भागों में हुई हिंसात्मक घटनाओं से न केवल मेरा विरोध है, बल्कि मैं समझता हूं कि उनके कारण हमारी राजनैतिक प्रगति में बाधा ही पड़ी है। व्यक्तिगत या सार्वजनिक, किसी भी रूप से देखने पर यह हिंसा केवल निन्दा के योग्य है।''

तिलक के इस वक्तव्य को 'राजभक्ति की घोषणा' बताया गया और उस पर प्रतिक्रियाएं विभिन्न प्रकार से हुईं, जब कुछ ने खुलेआम इससे असहमति व्यक्त की और कुछ ने उसे संशयात्मक दृष्टि से देखा। तिलक को कोई सरकार का कृपापात्र कैसे कह सकता था? हां, उनके आलोचकों ने उन पर यदि पाखण्डी नहीं, तो अवसरवादी होने का आरोप अवश्य लगाया।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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