जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
इस प्रकार का आन्दोलन भारत में पहले कभी नहीं हुआ था। इतिहास में पहली बार एक नेता किसानों को शिक्षित करके, उनमें एकता लाकर, उन्हें प्राकृतिक विपत्ति के साथ-साथ सरकारी अन्याय से लड़ने को प्रोत्साहित कर रहा था। अधिकारी वर्ग तिलक के इस आन्दोलन से बहुत क्षुब्ध था, किन्तु इस आन्दोलन में कोई भी अवैध बात न थी। तिलक केवल 'अकाल-संहिता' के नियमानुसार ही यथाशीघ्र जनता का सहायता-कार्य कराना चाहते थे। अतः उन्होंने देश- वासियों से कहा कि आप अपने-कष्ट निवारण के लिए हिम्मत से उठ खड़ें हों :
''जब ब्रिटेन की महारानी चाहती हैं कि अकाल से किसी की मृत्यु न हो, जब गवर्नर ने घोषणा की है कि एक भी आदमी को अकाल का शिकार न बनने दिया जाएगा और जब आवश्यक होने पर भारत-मंत्री (सेक्रेटरी ऑफ स्टेट) इसके लिए कर्ज तक भी लेने को तैयार हैं तो क्या आप डर के मारे चुप्पी साध लेंगे और भूखों मरेंगे? यदि आपके पास सरकारी पावने देने को पैसा है तो आप उन्हें अवश्य अदा कर दें। लेकिन यदि आपके पास पैसा नहीं है तो क्या आप केवल निम्न वर्ग के सरकारी अफसरों का कोपभाजन बनने से बचने के लिए अपने घर-द्वार को बेच देंगे? जब सामने मृत्यु खड़ी है, तब भी क्या आप लड़ने की हिम्मत नहीं कर सकते? हम लोग कई अकालों का सामना कर सकते हैं, किन्तु इस निर्जीव जनता का क्या होगा? यदि इस प्रकार का अकाल ब्रिटेन में पड़ा होता और प्रधान मंत्री हमारे वाइसराय की भांति ही उदासीन रहते तो उनकी सरकार कब की खतम हो गई होती।''
यद्यपि इन शब्दों से जनता तुरन्त ही जाग्रत न हुई, पर अधिकारी वर्ग इनका महत्व समझ गए। उन्होंने सहायता-कार्य में लगे 'सार्वजनिक सभा' के युवकों को तंग करना आरम्भ किया। उन्हें सभा करने और गांव में स्वच्छंद रूप से जाने से भी रोका जाने लगा। रैयतों में बांटने के लिए तैयार साहित्य को नष्ट कर दिया गया। लगान न देने का प्रचार करने-वालों को डराया-धमकाया गया-यहां तक कि कुछ सक्रिय कार्यकर्ताओं पर मुकदमे भी चलाए गए।
अधिकारियों द्वारा तंग किए जाने और आन्दोलन को नष्ट करने की उनकी सारी चेष्टाओं के बावजूद, तिलक और उनके कार्यकर्ताओं ने प्रचार-कार्य जारी रखा। तिलक ने लिखा है कि ''पुलिस की संगीनों के नीचे भी कई विशाल सभाएं हुईं। कलकत्ता कांग्रेस-अधिवेशन में उन्हें जब पता चला कि उनके कई सहयोगी गिरफ्तार कर लिए गए हैं तो वह कलकत्ता से लौट आए और सरकार की कटु आलोचना करते हुए कहा : ''यह शासन कानून का कहा जाता है। यदि मेरे सहयोगी जनता को कानून समझाने के लिए ही गिरफ्तार किए जा सकते हैं तो उनसे पहले मुझे गिरफ्तार करना चाहिए, क्योंकि मैंने तो उनसे भी अधिक बड़े पैमाने पर वही काम किया है।''
इन कार्यकर्ताओं पर जब मुकदमा चलाया गया तो उस समय तिलक पेण में ही थे। अभियुक्तों में प्रोफेसर परांजपे भी थे। इस मुकदमे का आर० एन० मण्डलिक ने आंखों-देखा वर्णन किया है :
''दस-दस हजार की उन विशाल जनसभाओं को पेण के निवासी कभी भूल नहीं सकते। प्रोफेसर परांजपे के विरुद्ध मुकदमे की सुनवाई आरम्भ होने से पूर्व जिलाधीश के खेमे के चारों ओर हजारों व्यक्ति एकत्र हो गए और तिलक की जयजयकार करने लगे। पुलिस उन्हें रोकने या हटाने में असमर्थ रही। जिलाधीश ने तब तिलक से अनुरोध किया कि वह खेमे से बाहर जाकर लोगों को समझाएं और शान्त करें। तिलक ने ऐसा ही किया। फिर मुकदमा पांच मिनटों में ही समाप्त हो गया। प्रोफेसर परांजपे रिहा कर दिए गए और अन्य मुकदमों की सुनवाई स्थगित कर दी गई। इसके बाद तिलक को जिलाधीश ने बुलाया और, जैसा कि मुझे याद है, उनसे कहा : ''भारत या ब्रिटेन में कहीं भी मैंने कभी भी ऐसा नहीं पाया कि अशिक्षित किसान इतनी बड़ी संख्या में ऐसे मुकदमे के लिए एकत्र हुए हों। इससे आपकी लोकप्रियता ही सिद्ध होती है।''
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट