जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
अध्याय 7 अकाल और प्लेग
महाराष्ट्र की जनता 1870 के अकाल के कष्टों को अभी भूल भी न पाई थी कि 1896 में फिर उसे एक और विपत्ति का सामना करना पड़ा। भारतीय जनता अंगरेजी सरकार के शासन-काल में पड़े अकालों से पूर्णतः परिचित हो गई थी जिसमें सबसे बड़ा अकाल सन 1947 में अंगरेजों के भारत छोड़ने के केवल पांच वर्ष पूर्व सन 1942 ही में बंगाल में पड़ा था। इसकी याद आज भी ताजी है। अंग्रेजी शासन का यह भयंकर दुष्काल था। सिर्फ उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम पच्चीस वर्षों में ही देश मंह 18 बार अकाल पड़े जिसमें लगभग दो करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हुए।
लेकिन केवल अकाल से परिचित होने से ही भूख का कष्ट सह्य नहीं होता। हर नए अकाल में लोग उसी प्रकार भूख से मरते और बरबाद होते रहे, यहां तक कि कष्ट असहनीय होने पर निराशा की हालत में बहुतों ने हिंसा तक की भी शरण ली। दूसरी ओर सरकार सदा की भांति पहले तो भुखमरी के समाचारों को निराधार बताती और बाद में भी उसकी भयंकरता मानने को तैयार नहीं होती, क्योंकि उससे कर वसूल करने में बाधा पड़ती थी और इससे भी बढ़कर यह कि अकाल को स्वीकार करने से शासन की सफलता पर कलंक लगता था।
अतः 1896 में भी सरकार ने पहले अकाल से इनकार किया। जनता से कहा गया कि जाड़े की वर्षा से दशा सुधर जाएगी। वाइसराय और भारत-मंत्री (सेक्रेटरी ऑफ स्टेट) ने ब्रिटिश जनता को आश्वासन दिया कि भारत में अकाल की आशंका नहीं और अकाल-पीड़ितों के सहायता कोष की कोई आवश्यकता नहीं। इस प्रकार सहायता-कार्य के बदले पहले की तरह ही लगान की वसूली होती रही और वन-कानून का कड़ाई से पालन कराया जाता रहा। 1876 के अकाल के बाद लागू 'अकाल-सहायता-संहिता' (फेमीन रिलीफ कोड) में यह व्यवस्था थी कि जिन स्थानों पर फसल रुपये में पांच आने से कम थी, वहां या तो लगान वसूली एकदम स्थगित कर दी जाए या अनुपाततः माफ कर दी जाए। किन्तु संहिता (कोड) के इन नियमों का पालन करने में भी एक-न-एक बहाने देर की गई। उधर ऐसे कठिन समय में भी वाइसराय ने पूरी शान-शौकत के साथ देशी रियासतों का दौरा शुरू कर दिया। भूखे-नंगे लाखों अकाल-पीड़ित मौत के कगार पर खड़े अपनी जिन्दगी के दिन गिन रहे थे और दूसरी ओर वाइसराय राजाओं के यहां रसगुल्ले उड़ा रहे थे। विदेशी हुकुमत का एक अजीब मजाक!
ऐसी हालत में तिलक ने किसानों की विपत्ति को प्रकाश में लाने का कार्य आरम्भ किया। उन्होंने किसानों को 'अकाल-सहायता-संहिता' (फेमीन रिलीफ कोड) के अन्तर्गत प्राप्त अधिकारों से परिचित कराया, सहायता-कार्य संगठित किया और अधिकारी-वर्ग को झकझोर कर आलस्य और जड़ता के दलदल से निकालने की चेष्टा की। उन्होंने 'सार्वजनिक सभा' के झंडे के नीचे कुछ उत्साही युवकों को टोली इकट्ठी की और उसे अकाल-पीड़ित क्षेत्रों में भूखे-नंगों का सही सही आकड़ा एकत्र करने तथा ऐसे संकट में जनता को दुख से छुटकारा पाने के उपाय बतलाने के लिए भेजा। 'केसरी' और 'मराठा' के पृष्ठ भुखमरी, जबरन वसूली और जनता पर किए गए अत्याचारों के समाचारों तथा 'अकाल सहायता-संहिता' (फेमीन रिलीफ कोड) विषयक सूचनाओं से भरे रहते थे। संहिता का मराठी में अनुवाद भी किया गया और उसकी हजारों प्रतियां अकाल-पीड़ितों के बीच मुफ्त बांटी गई।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट