जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
'सार्वजनिक सभा' लोक-प्रश्नों का अध्ययन और गैर-सरकारी मत व्यक्त करने के लिए प्रसिद्ध हो चुकी थी। 1895 में तिलक का इस 'सभा' पर कब्जा कर लेना उस वर्ष की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी। कांग्रेस से 15 वर्ष पूर्व स्थापित यह सभा देश का प्रमुख राजनीतिक संगठन मानी जाती थी। इसके प्रथम मन्त्री गोपाल वासुदेव जोशी (जिन्हें लोग 'सार्वजनिक काका' के नाम से पुकारते थे) ने लोक-प्रश्नों के गम्भीर अध्ययन की एक धारा चला दी थी। इसका एक त्रैमासिक पत्र भी था जिसमें अक्सर रानडे लिखा करते थे।
स्मरणीय है कि गोखले का 'सार्वजनिक सभा' का मन्त्रिपर स्वीकार करना ही तिलक और डेक्कन एजुकेशन सोसायटी के सदस्यों के बीच मन-मुटाव का मूल कारण था। आदि से ही रानडे इस 'सभा' के मार्गदर्शक थे। तिलक का इस 'सभा' पर कब्जा करने का मुख्य उद्देश्य यही था कि यह जनता की तात्कालिक मनोदशा को व्यक्त करे। इस 'सभा' के सभी पदों पर तिलक के समर्थक थे। केवल मन्त्रिपद पर गोखले विराजमान थे। उन्होंने भी कुछ दिनों बाद त्यागपत्र दे दिया और तीन महीने बाद रानडे की छत्रछाया में 'डेक्कन सभा' नामक एक प्रतिद्वन्द्वी संस्था स्थापित की गई। 'डेक्कन सभा' की स्थापना से ही उदारवादी दल का जन्म माना जाता है क्योंकि इसी अवसर पर रानडे ने उदारवाद की अपनी प्रसिद्ध घोषणा जारी की थी।
तिलक के अनुसार 'डेक्कन सभा' की स्थापना लोकतन्त्र के सिद्धान्तों के विरुद्ध थी। उन्होंने अपने पर उग्रपन्थी होने के लगाए गए आरोप का खण्डन करते हुए कहा कि जब 'सभा' रानडे के हाथों में थी, तब भी उस पर सरकार ने वफादार न होने का आरोप लगाया था : ''हम लोग समाज-सुधार-विषयक विवादों को लेकर 'उदारवादी' और 'उग्रपन्थी' आदि पदों से पूर्णतः परिचित हो गए हैं। किन्तु हम राजनीति में इन कृत्रिम विभेदों को स्वीकार करने को तैयार नहीं। क्या मैं ब्रिटिश सरकार को नष्ट करने वाला हूं? और क्या रानडे तथा प्रोफेसर गोखले उसे बचा लेंगे? अपने को उदारवादी कहना और दूसरों को असम्भव के-पीछे दौड़ने वाला कहकर यह जताना कि वे राजद्रोहात्मक कार्य करते हैं, अत्यधिक अविवेकपूर्ण है।''
यद्यपि तिलक के लोक-जीवन में प्रविष्ट होने के पांच वर्ष बाद कांग्रेस का जन्म हुआ था, तथापि तिलक ने 1889 में बम्बई में हुए उसके अधिवेशन में प्रथम बार भाग लिया। उसी समय दो और व्यक्तियों ने भी इसमें भाग लिया जो बाद में राष्ट्रीय नेता बने। वे थे गोपालकृष्ण गोखले और लाला लाजपत राय। विपिन चन्द्र पाल, जो बाद में 'लाल-बाल-पाल' की राष्ट्रीय त्रिमूर्ति के सदस्य बने, तीन वर्ष पहले ही कांग्रेस में शामिल हो चुके थे। फिर भी 'कांग्रेस में शामिल होना' शब्द का अशुद्ध प्रयोग ही होगा, क्योंकि उस समय तक कांग्रेस केवल एक वार्षिक सम्मेलन की संस्था मात्र थी जिसमें लम्बे-लम्बे भाषण दिए जाते थे। सम्मेलन के बाद फिर उसकी कोई चर्चा नहीं रहती थी। फिर भी वह राजनीतिक जागृति की सूचक थी और जो लोग देश की सेवा करना चाहते थे, वे उसकी ओर खिंचे आ रहे थे।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट