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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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आधुनिक भारत के निर्माता

''मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि अपने ज्ञान अथवा भक्ति के द्वारा परम ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित कर लेने पर भी कर्ता को 'गीता' यही संदेश देती है कि सांसारिक कर्म करो। जैसी कि विधाता की इच्छा है, संसार को क्रमशः सत्पथ की ओर प्रवृत्त करने के लिए कर्म करना ही होगा। लेकिन यह कर्म कर्ता के बन्धन का कारण न बने-इस उद्देश्य से फलप्राप्ति की आशा किए बिना ही निष्काम भाव से इसे करना चाहिए। मेरे विचार से यही 'गीता' का संदेश है।

''गीता में ज्ञानयोग भी है और भक्तियोग भी है। कौन कहता है, नहीं है? लेकिन ये दोनों ही 'गीता' के कर्मयोग के (मूल) उपदेश के पूरक हैं। यदि 'गीता' निराश-हताश अर्जुन को युद्ध के लिए कर्म करने की प्ररणा देने के उद्देश्य से उपदेश के रूप में प्रस्तुत की गई है, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि इस महान ग्रन्थ का अन्तिम उपदेश केवल भक्ति या ज्ञान ही है? वास्तव में 'गीता' तो इन सभी योगों का सम्मिश्रण है और जिस प्रकार वायु न केवल ऑक्सीजन है और न केवल हाइड्रोजन या कोई और ऐसा अकेला तत्व, बल्कि वह इन सबके सम्मिश्रण से निर्मित है, उसी प्रकार 'गीता' भी इन समस्त योगों का सम्मिश्रण है।

''मैं जब यह कहता हूं कि ज्ञान और भक्ति की पूर्णता प्राप्त कर लेने पर भी और इनके जरिए परम ब्रह्म का साक्षात्कार कर लेने के बाद भी कर्ता को 'गीता' कर्म करने का संदेश देती है, तब मेरा प्रायः सभी टीकाकारों से मतभेद हो जाता है। ईश्वर, मनुष्य और संसार में एक आधारभूत एकता है। संसार का अस्तित्व इसलिए है कि ईश्वर की ऐसी इच्छा है। ईश्वर की इच्छा ही इसकी नियामक शक्ति है। मनुष्य ईश्वर से तादात्म्य स्थापित करने के लिए प्रयास करता है और जब यह तादात्म्य स्थापित हो जाता है, तब वह मनुष्य परम ब्रह्म में विलीन हो जाता है। अतः जब यह स्थिति प्राप्त हो जाएगी, तब क्या वह मनुष्य यह कहेगा कि ''मैं कोई कर्म और संसार की कोई सहायता नहीं करूंगा?''-उस संसार की, जिसका अस्तित्व उस परम ब्रह्म की इच्छा का ही परिणाम है और जिस परम ब्रह्म में वह मनुष्य समाहित होकर उसी का अंश बन गया है। यह तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता। और यह मैं नहीं, बल्कि 'गीता' कहती है:

''स्वयं श्रीकृष्ण भी कहते हैं कि तीनों लोकों में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जिसकी प्राप्ति मेरे लिए आवश्यक है, फिर भी श्रीकृष्ण कर्म करते हैं। क्यों? वह इसीलिए तो कर्म करते हैं न कि संसार चलता रहे। यदि वह कर्म नहीं करेंगे, तो यह संसार नष्ट हो जाएगा। अतः यदि मनुष्य ईश्वर से तादात्म्य स्थापित करना चाहता है, तो उसे आवश्यक रूपेण संसार के हितों से भी तादात्म्य स्थापित करना पड़ेगा और उसके लिए कर्म भी करना होगा। यदि वह ऐसा नहीं करता, तो पूर्ण तादात्म्य स्थापित नहीं हो पाता, क्योंकि तीन तत्वों में से केवल दो ही तत्वों (जीव और ब्रह्म) के बीच तादात्म्य स्थापित होता है और तीसरा तत्व (माया, अर्थात संसार) बाहर छूट जाता है। इस प्रकार मैंने इस प्रश्न का अपने लिए हल ढूंढ़ निकाला है। अतः मेरा मत है कि संसार की सेवा करना ईश्वर की इच्छा का पालन है और यही मोक्ष का निश्चित मार्ग है तथा केवल संसार में रहकर ही इस पर चला जा सकता है, संसार को छोड़कर नहीं।''

- (एक भाषण का संक्षिप्त रूप)

 

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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