जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
(प्रस्तावना और अन्तिम अध्याय से)
'गीता रहस्य'
''जब मैं छोटा था, तब मुझसे मेरे बुजुर्ग अक्सर कहा करते थे कि विशुद्ध धार्मिक और दार्शनिक जीवन का मेल रोजमर्रा के जीवन से नहीं बैठता। यदि मोक्ष, जो कि मानव का उच्चतम लक्ष्य है, प्राप्त करना है, तो लौकिक इच्छाओं और इस संसार का परित्याग करना होगा। एक ही समय दो स्वामियों-ईश्वर और संसार-की सेवा नहीं की जा सकती। मैं इसका अर्थ यह समझता था कि जिस धर्म में मेरा जन्म हुआ है, उसके अनुसार यदि कोई व्यक्ति सार्थक जीवन व्यतीत करना चाहता है, तो उसे शीघ्रातिशीघ्र इस संसार का त्याग कर देना चाहिए।
''इससे मैं सोचने को मजबूर हो गया। मैंने अपने से ही यह प्रश्न पूछा : क्या मेरा धर्म मुझसे यह कहता है कि पूर्ण मानवत्व तक पहुंचने के लिए मुझे इस संसार का त्याग करना होगा। बचपन में मुझसे यह भी कहा गया था कि 'भगवद् गीता' एक ऐसी सर्वमान्य पुस्तक है, जिसमें हिन्दू धर्म के सभी सिद्धान्त और दर्शन निहित हैं। अतः मैंने सोचा कि यदि यह बात सही है, तो मुझे अपने प्रश्न का उत्तर इस पुस्तक में ढूंढ़ना चाहिए और इस प्रकार मैंने 'भगवद् गीता' का अध्ययन आरम्भ किया। इससे पहले मेरे मन में किसी भी प्रकार के दार्शनिक पूर्वाग्रह या ऐसे निजी सिद्धान्त नहीं थे, जिनकी पुष्टि के लिए मैंने 'गीता' से प्रमाण एकत्र करने के लिए यह कार्य आरम्भ किया।
''जिस व्यक्ति के मस्तिष्क में पूर्वाग्रह रहते हैं, वह किसी पुस्तक का तटस्थ पाठक नहीं होता। उदाहरणार्थ जब कोई ईसाई 'गीता' को पढ़ता है, तब वह यह जानना नहीं चाहता कि इसका क्या सन्देश है, बल्कि वह केवल यह जानने के लिए ही इसे पढ़ता है कि इसमें ऐसे कौन-से सिद्धान्त हैं, जिन्हें वह इसके पूर्व 'बाइबिल' में देख चुका है और यदि उसे ऐसा मिलता है, तो वह फौरन इस निष्कर्ष पर पहुंच जाता है कि 'गीता' 'बाइबिल' की नकल है। मैंने इस विषय पर 'गीता रहस्य' में विचार किया है, क्योंकि जब आप किसी पुस्तक को और विशेषतः 'गीता' जैसे महान ग्रंथ को पढ़ना और समझना चाहते हैं, तो आपको इसका अध्ययन बिना किसी पूर्वाग्रह के तटस्थ दृष्टि से करना चाहिए, यों मैं जानता हूं कि ऐसा करना बहुत ही कठिन काम है।
''जो लोग कहते हैं कि हम लोग ऐसा ही करते हैं, उनके मस्तिष्क में भी कहीं कोई पूर्वाग्रह छिपा रह सकता है, जो अध्ययन के आनन्द को बहुत हद तक कम कर देता है। अतः मैं यहां यह बतलाने की चेष्टा कर रहा हूं कि सत्य तक पहुंचने के लिए आपकी मानसिक स्थिति कैसी होनी चाहिए। भले ही यह कितना ही मुश्किल काम क्यों न हो, इसे करना ही पड़ेगा। दूसरी बात जो ध्यान में रखने की है, वह यह जानना है कि पुस्तक कब और किन परिस्थितियों में लिखी गई और इसको लिखने का उद्देश्य क्या है। संक्षेप में, पुस्तक को उसके सन्दर्भ से हटाकर नहीं पढ़ना चाहिए। यह बात 'भगवद् गीता' जैसे ग्रंन्थ पर विशेष रूप से लागू होती है।
''विभिन्न टीकाकारों ने इस पुस्तक की विभिन्न टीकाएं की हैं और निश्चय ही इस ग्रंथ के लेखक या रचयिता ने इतने विभिन्न अर्थों को दृष्टि में रखकर यह पुस्तक नहीं लिखी होगी। उसके लेखन का एक ही अर्थ और एक ही उद्देश्य रहा होगा। मैंने इसी अर्थ को ढूंढ़ निकालने की चेष्टा की है। मेरा विश्वास है कि मुझे इस कार्य में सफलता मिली है, क्योंकि मेरा कोई ऐसा निजी सिद्धान्त नहीं था, जिसकी पुष्टि के लिए मैं इस महान ग्रंथ में प्रमाण ढूंढ़ता। अतएव मुझे अपने किसी सिद्धान्त प्रतिपादन के लिए इसके अर्थ को अनुकूल ढंग से तोड़ने-मरोड़ने की कोई जरूरत नहीं थी। क्योंकि 'गीता' का एक भी टीकाकार अब तक ऐसा नहीं हुआ है, जिसने अपने पालतू सिद्धान्त को प्रतिपादित न किया हो और प्रमाण ढूंढ़कर यह सिद्ध न किया हो कि उसके सिद्धान्त को 'गीता' का भी समर्थन प्राप्त है।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट