नई पुस्तकें >> संवाददाता संवाददाताजय प्रकाश त्रिपाठी
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इकतीस अध्यायों में रिपोर्टिंग के उन समस्त सूचना-तत्वों और व्यावहारिक पक्षों को सहेजने का प्रयास किया गया है, जिनसे जर्नलिज्म के छात्रों एवं नई पीढ़ी के पत्रकारों को अपनी राह आसान करने में मदद मिल सके
जॉन पिल्जर पूछते हैं कि गोपनीय क्या है? यह सवाल अक्सर ही समाचार कक्षों, मीडिया अध्ययन संस्थानों, पत्र-पत्रिकाओं में पूछा जाता है। और इस सवाल का जवाब लाखों लोगों की जिंदगी के लिए बेहद महत्वपूर्ण होता है। ज्यादातर 'दोगले रोल मॉडल' पत्रकार अपना काम न करके, सत्ता प्रतिष्ठानों के झूठ को किसी तरह चुनौती देने तथा उसे उजागर करने के बदले में उसे स्वीकार करते हुए, प्रसारित करते हुए तथा उसकी हाँ मे हाँ मिलाकर जनता को धोखा देते रहते हैं, छलते हैं। पत्रकारों ने अगर समय रहते कारपोरेट घरानों के झूठ उजागर किए होते तो आज लाखों लोग जिंदा होते। जब मैंने सर्वसत्तावादी समाजों की रिपोर्टिंग की, तब समझना शुरू किया कि कथित स्वतंत्र समाजों में सेंसरशिप कैसे काम करती है। हम समाचार पत्रों में जो कुछ भी पढ़ते हैं और टेलीविज़न पर जो कुछ भी देखते हैं उसमें किसी पर भी विश्वास नहीं करते, क्यूंकि हम उसके प्रोपेगंडा के पीछे देखने तथा पंक्तियों के बीच पढ़ना सीख गए हैं। और हम यह जानते हैं कि वास्तविक सच हमेशा दबा दिया जाता है। अभी भी पूरी दुनिया में अनगिनत मनुष्यों की भयावह मौत तथा यातना निरंकुश सत्ताओं के दमन से हो रही है। प्रोपेगंडा पर मीडिया युग की यह एक व्यापक चुप्पी है, जिससे मैं हमेशा अचंभित होता हूं। जिसे 'आर्थिक प्रतिबंध' कहा जाता है, जिसका मैंने पहले भी कहीं ज़िक्र किया है कि पाँच लाख बच्चों की दर्ज मौतों के अलावा लाखों लोगों को मार दिया गया। इनमें से किसी एक भी नरसंहार के बारे में तथाकथित मुख्यधारा की मीडिया में लगभग कुछ नहीं बताया गया। एक पूरी पीढ़ी की संगठित हत्या के बारे में क्या कुछ अच्छा हो सकता है, हैरॉल्ड पिंटर के शब्दों में कहें तो कुछ हुआ ही नहीं। यह कोई मामला नहीं है। वर्तमान में सबसे भयानक चुप्पी परमाणु-शस्त्रों तथा शीत-युद्ध की वापसी पर है। अभी भी वास्तविक स्वतंत्र सूचनाएं सभी के लिए प्रमुख शक्ति बनी हुई हैं। और मेरा मानना है कि हमें इस विश्वास कि मीडिया जनता की आवाज़ है, जनता के लिए बोलता है, के जाल में नहीं फंसना चाहिए।
वह बताते हैं, अपने पूरे जीवन भर मैं एक पत्रकार ही रहा हूं। मैं नहीं जानता कि जनता की चेतना कभी भी इतना तेज़ी से बढ़ी थी जितना कि आज बढ़ रही है। हालांकि इसका आकार तथा इसकी दिशा बहुत स्पष्ट नहीं है। फिर भी जनता की बढ़ती आलोचनात्मक जागरूकता ज़्यादा महत्वपूर्ण है जबकि आप देख सकते हैं लोग बड़े पैमाने पर सिद्धांतविहीनता, जीवन जीने के सर्वोत्तम रास्ते के मिथकशास्त्र, को अपना रहे हैं तथा वर्तमान में डर से विनिर्मित स्थितियों में जी रहे हैं। मेरा मानना है कि पांचवा स्तंभ संभव है, जनआंदोलनों के सहयोगी कॉरपोरेट मीडिया को खंड-खंड करेंगे, जवाब देंगे तथा रास्ता दिखाएंगे। प्रत्येक विश्वविद्यालय में, मीडिया अध्ययन के हरेक कॉलेज में, हर समाचार कक्ष में, पत्रकारिता के शिक्षकों, खुद पत्रकारों को वाहियात वस्तुनिष्ठता के नाम पर जारी खून-ख़राबे के दौर में अपनी निभाई जा रही भूमिका के बारे में प्रश्न करने की ज़रूरत है। खुद मीडिया में इस तरह का आंदोलन एक अग्रदूत होगा, जैसा हमने कभी नहीं देखा है। यह सब संभव है। चुप्पियां तोड़ी जा सकती हैं। यह सब हमें जल्द ही करना होगा। उदारवादी लोकतंत्र अब कॉर्पोरेट तानाशाही का आकार ग्रहण कर रहा है। यह एक ऐतिहासिक विचलन है तथा मीडिया को इसका मुखौटा बनने की अनुमति बिल्कुल नहीं देनी चाहिए।
अब पत्रकारिता के छात्रों और नए पत्रकारों के लिए एक नज़र पी.साईंनाथन की महत्वपूर्ण टिप्पणी पर। वह कहते हैं, लोग सोचते होंगे कि अख़बारों में सिर्फ़ एक पेज-थ्री होता है लेकिन उनके पास कई पेज-थ्री होते हैं, जिन्हें वो लगातार कई दिनों तक छापते रहते हैं। वे सप्लिमेंट के भीतर सप्लिमेंट छापते हैं। टेलीविजनों पर बुलेटिन्स की संख्या बढ़ गई है और प्रिंट में पन्नों की संख्या। एक ही सामग्री किसी अख़बार में 'ख़बर' के तौर पर छपती है, किसी अख़बार में 'विज्ञापन' के तौर पर। लोगों को गुमराह करना शर्मनाक है। यह पैकेज पत्रकारिता का विकसित रूप है और यह सभी माध्यमों में मौजूद है। तमाम बड़े पत्रकार पेड न्यूज़ को अपनी बाइलाइन के साथ छपवाते हैं। ऐसे पत्रकारों में कुछ चीफ़ रिपोर्टर और ब्यूरो चीफ़ रैंक के पत्रकार भी शामिल होते हैं। कुछ तो स्वेच्छा से ऐसा करते हैं। पत्रकारों के निजी भ्रष्टाचार के दौर में उसमें शामिल होने और उससे दूर रहने के विकल्प होते हैं लेकिन जब यह सब मालिकों की सहमति से एक संगठित उद्योग की शक्ल में होता है तो हमारे पास क्या विकल्प बचता है?
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- अनुक्रमणिका
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