कविता संग्रह >> महामानव - रामभक्त मणिकुण्डल महामानव - रामभक्त मणिकुण्डलउमा शंकर गुप्ता
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युगपुरुष श्रीरामभक्त महाराजा मणिकुण्डल जी के जीवन पर खण्ड-काव्य
यहां से आगे चलते हुए इन राम भक्तों में कुछ ने पाटिलपुत्र, मिथिला, नेपाल, त्रिविष्टक आदि स्थानों तक की यात्रा की तथा कुछ ने अपने यात्रा पथ को बदल कर दक्षिण पथ की ओर प्रयाण करने का निश्चय किया। कुछ ने हिमालय में स्थित पवित्र तीर्थों में श्री राम को अन्वेषित करने का निश्चय किया। अपनी विरह व्याकुलता में शैल शिखरों पर बर्फ से आच्छादित नैसर्गिक सुषमा का कवि कल्पना में उतरा भाव सौन्दर्य भी मन की क्षण-क्षण में परिवर्तित हो रही भावना से तादात्म्य कर रहा था। प्रकृति सौन्दर्य के लुभावने दृश्य भक्तों के मन दर्पण में जो प्रतिविम्ब बना रहे थे, उनमें भी श्री राम ही बसे हुए थे। मन की व्याकुलता का जो चित्र इस कवि ने शब्द में उतारने का प्रयत्न किया है वह गीत के स्वरों में छायावादी कविता का रहस्यवादी कौशल लगता है। ऐसा लगता है कि छायावादी कवि चतुष्टय का कोई कवि पुनः अवतरित हो गया है। इस स्थान पर प्रकृति के आंचल में छिपे उस महाभाव का अनावरण करते हुए जो अनुभूति हृदय में हुई वह प्रश्न बन कर गीत के स्वरों को और भी प्रश्नाकुल बना देती है। कौन है इस प्राकृतिक छटा के पीछे जो जीवन के विविध रंग छिटका रहा है इस पर्वतीय विधान में यह पंक्तियाँ हिन्दी भाषा के गीतिकाव्य के सौन्दर्य शास्त्रीय विमर्श को भी स्वर देती लगती है। देखें:
बर्फ की ओढ़े रजाई सलवटों में मौन हो तुम।
देव ऋषि यति या प्रकृति के रूप अक्षय कौन हो तुम।।
ब्रह्म के साकार दर्शन हेतु भटकन चल रही है।
चेतना जड़ में छिपी है, श्वास पल पल चल रही है।।
गगन चुम्बी चोटियां या घाटियां हो तपस वाली।
कन्दराओं में छिपी है ज्योति प्रखरित हो निराली।।
है यहां आलोक प्रभु का या स्वयं प्रभु रूप हो तुम।
बर्फ की ओढ़े रजाई सलवटों में मौन हो तुम।।
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