ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य हेमचन्द्र विक्रमादित्यशत्रुघ्न प्रसाद
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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!
सैंतीस
कल शाम में खदादीन बाजीगर का खेमा तलैया किनारे लग गया था। तलैया के उस पार गांव था। इधर पथरीले टीले फैले हुए थे। छोटी-सी पहाड़ी भी चुपचाप खड़ी थी, तलैया के चारों तरफ गाछवृक्ष थे।
सूर्योदय के पहले चन्दा उठी। हवा में हल्की ठंडक थी, अंधेरे-उजाले के संगम पर उसने स्नान किया। सूर्योदय की प्रतीक्षा करने लगी। उधर टीले पर से बांसुरी की ध्वनि सुनायी पड़ी। वह क्षण-भर के लिए चंचल हो उठी, पूर्व दिशा में लालिमा दिखायी पड़ी। उसने चंचल मन को साधा, उसके अन्तर से कुछ शब्द होंठों पर तैरने लगे।
वह तलैया से निकलकर ऊपर आयी, उसे स्मरण हो आया कि मां भी भवन के उपवन में स्थित सरोवर में स्नान कर कार्तिक माह में सूर्य को अर्घ्य देती थीं, तुलसो के सामने दीप जलाती थीं, उन दिनों उनका आहार-विहार बड़ा संयम-नियम से होता था। दान-पुण्य के लिए खले हाथ से सब किया, पर इन सबसे क्या मिला ? उनका दु:खद अन्त हुआ, और उसका कष्टमय जीवन चल रहा है। भगवान की इस निष्ठुरता पर मन खीझ उठता है। सब व्यर्थ है, पर इस कष्ट में मन ऊपर वाले की दया के लिए विकल हो जाता है। मन का खीझना और फिर उसके आगे झुकना कैसी विवशता है, यही दुर्बलता है।
उसने देखा कि मैना काकी उसके स्नान और पूजा को बड़े स्नेह से देख रही है। उन्हें अच्छा लग रहा है। उन्हें जरूर लगता होगा कि काश, वे भी ऐसा कर पातीं। काका ने बाजीगरी सीखने के लिए अपने उस्ताद की शर्त को मान लिया था। देवीदीन से खुदादीन बन गये थे। नट के बदले बाजीगर कहलाने लगे, खेल-तमाशे दिखाकर जीवन चलाने लगे और कोई फर्क नहीं आया-न ये बड़े बन गये और न छोटे हो गये, जहां के तहां रह गये। अपनी जाति से जरूर कट गये, पर घुमक्कड़ों के लिए क्या परेशानी ! गांव-गांव घूम रहे हैं। परिवार साथ में है। कोई चिन्ता नहीं है। काकी को कभी-कभी लगता है कि वह कुछ खो चुकी है।
चन्दा ने मिट्टी के एक बड़े सकोरे में मिट्टी भर ली थी। उसमें तुलसी का बिरवा लगा लिया था। उसने तुलसी में जल दिया, हाथ जोड़ा, दीप नहीं जला सकी थी, पर उसने भावना की कि एक नन्हा दीप जल रहा है। चारों तरफ अक्षत और फूल हैं, और वह झुकी हुई है, ऊपर से बांसुरी की ध्वनि आ रही है। मन को टिकाना कठिन है। उसने एक बार टीले की ओर देखा, वह तो आंखें बंद कर बांसुरी बजा रहा है। हृदय का संगीत सुना रहा है, उसे भी स्नान कर पूजा करनी चाहिए, पर वह तो उसकी पूजा के बाद ही स्नान करेगा। पूजा के समय तक बांसुरी बजायेगा, मानो उसके संगीत की लय पर ही उसके शब्द देवता तक पहुंचेंगे, उसे भी अच्छा लगता है, संगीत की लय पर ही उसके शब्द तुलसी को अर्पित हों। वृन्दा और विष्णु को निवेदित हों, यह तो अद्भुत है—विष्णु तुलसी के साथ ही किसी की पूजा को स्वीकार करते हैं, कैसी मनोहर कथा है। कितना दिव्य भाव है।
चन्दा स्नान-पूजाकर मैना काकी के पास आयी। काकी के सामने झुकी, काकी पीठ पर हाथ फेरकर आशीष देने लगी, वह मुस्करा उठी। खुदादीन काका भी आ गये, उन्होंने भी आशीष दी। वह बोल उठी'काका ! आप खुदादीन होकर भी मेरी पूजा को अच्छा समझ रहे हैं ?'
'हां, बेटी ! बुरा क्यों समझूं ?'
'खुदा का बन्दा तो देवपूजा को कुफ्र मानता है। इस कुफ्र को मिटाना फर्ज समझता है, काफिरों को कष्ट देना पुण्य मानता है और काफिरों की बेटियां उनके लिए।
'बस करो, बेटी ! तुम्हारी बात सही हैं। तुमने बहुत तकलीफ पायी है, लेकिन मैंने बाजीगरी के शौक से उस्ताद की शर्त मानी है। देवीदीन से खुदादीन बन गया हूं। उनके उन्माद और जुनून को तो नहीं अपनाया है....वह तो अधरम है।'
पर यह तो मजहब का आदेश है। सारे तुर्क कमोबेश ऐसा करते हैं, हम भुगत रहे हैं।'
'मैं अरबी या तुर्की नहीं हूं, बेटी ! मैं इसी मिट्टी-पानी का हूं। इस मिट्टी-पानी का हुक्म है कि सबको अपने मन के मुताबिक पूजापाठ का पूरा हक है। किसी को तकलीफ न दो। बेटी-बहू को मां-बहन मानो और मेहनत की रोटी खाओ, यही दीन-धरम है। मैं इसी दीनधरम का पालन कर रहा हूं।'
'तब तो आप आधे-अधूरे हैं। कोई मुल्ला आपको पूरा नहीं।'
'न माने, मैंने भगवान की इबादत का एक खास ढंग अपनाया है। अपने माटी-पानी के स्वभाव को नहीं बदला है। अपने पुरखों को भी नहीं बदला है। इसलिए तुमको बेटी के समान माना है, तुम्हारा मान बचाया है। तुलसी के बिरवे को देख खुश हो जाता हूं और बांसुरी वाले को।'
चन्दा की पल के झुक गयीं, काका ठीक कह रहे हैं। ये हिन्दी मुसलमान हैं; अरबी-ईरानी नहीं, इनके संस्कार नहीं बदले हैं।
गजेन्द्रसिंह टीले से उतरकर तलैया में स्नान करने जा रहा था। चन्दा दो क्षण देखती रही। काकी कलेवा के लिए रोटी बनाने लगी। चन्दा साथ देने पहुंच गयी। खुदादीन अपनी बाजीगरी का अभ्यास कराने लगा।
गजेन्द्र ने देखा कि तलैया के उस पार गांव वाले स्नान करने आ गये हैं, वह इस पार है, शाम में इन गांव वालों को खेल-तमाशे दिखाये जायेंगे। चन्दा ने बांसुरी बजा ना आरम्भ कर दिया है। यदि वह बांसुरी बजाये और चन्दा नाचने के बदले केवल उसके पास आकर खड़ी रहे राधा के समान तो एक आकर्षक दृश्य रच जायेगा। कितना सुन्दर लगेगा, चन्दा का नाचना नहीं, केवल बायीं तरफ राधा बनकर खड़ा हो जाना और उसकी बांसुरी का बजते रहना, यदि वह उससे बांसुरी छीनकर बजा ले....कितना मनभावन होगा! वह कहेगा, इस दृश्य की रचना करेगा, काका मानेंगे ? जरूर मानेंगे !
सूर्य का लाल गोला सामने आ गया। गजेन्द्र स्नान कर अर्घ्य देने लगा, पलकें बन्द कर लीं। उसके सामने कृष्ण-राधा का दृश्य झलक उठा और वह दृश्य सूर्य के अरुण बिम्ब में बदल गया। एक क्षण के बाद वही दृश्य सामने आ गया। राधा ने बांसुरी छीन ली है। वह लेकर तमाल कुंज में छिप रही है और वह पास जाकर विनती कर रहा है। पलकें खोल लीं। हाथ में खाली लोटा था, वह मन-ही-मन मुस्कराया और फिर लोटे में जल भरकर तलैया के ऊपर आया। तुलसी के बिरवे में जल डाला, पर फूल नहीं हैं। वह तो भूल गया। उस तरफ से लेता आता, चन्दा ने भी बिना फूल के ही पूजा की है। गेंदे के फूल तो खिलने लगे हैं। हल्दी रंग के सुनहले फूल मधुर गंध वाले।
चन्दा गर्म-गर्म रोटियां लायी, आंवले की चटनी भी साथ थी। गजेन्द्र ने रूठने का अभिनय किया। चन्दा यह रूठना समझ नहीं सकी। वह बोल उठी- 'श्रीमान् हाथीसिंह जी, मान जाइये, रोटियां कम तो नहीं हैं।
'मैं हाथीसिंह नहीं हूं। न हाथी हूं, न सिंह, गजेन्द्र बांसुरी वाला हूं।' 'अरे, कोई रूठने के समय बोलता भी है ?' चन्दा मुस्करा रही थी।
'तुमने ठीक कहा, रूठने के समय बोलना नहीं चाहिए, क्षमा कर दो।'
'पहले रोटी खा लो तो क्षमा कर दूंगी।'
'पर मेरे रूठने का क्या होगा?'
'बांसुरी से रूठना प्रकट कर देना और मधुर हो जायगा।'
'अरे, तुममें तो कलाकार की आत्मा है, तब तो तुम मेरी बात समझ जाओगी।'
'बोलिए, कौन-सी बात समझने लायक है।'
'चन्दा ! बाजीगरी के खेल-तमाशे में तुम्हारा नाचना अच्छा नहीं लगता। मैं जब बांसुरी बजाऊं तुम राधा के समान पास में खड़ी हो जाना। लगे कि तुम बांसुरी पर मुग्ध हो, बस, इतना ही।'
'बड़ा सुन्दर दृश्य हो सकता है, पर काका से पूछना।'
'पूछ लिया जायगा, तुम बांसुरी छीनकर बजा लो। मैं मुग्ध हो जाऊं। देखने वाले बेसुध हो जायें, और हम अपनी बेसुधी में उन्हें भूल जाये।'
'काका तो मान जायेंगे न !' चन्दा कुछ सोचती हुई बोली। वह उस दृश्य की कल्पना कर रही थी।
'काका की झोली में रुपये बरसेंगे, दाम-छदाम नहीं।'
'राधा-कृष्ण का शुद्ध भाव भी हृदय में रहे, रुपये पर ही न बिक जाय।'
'चन्दा ! भाव शुद्ध रहें-मैं पूरी चेष्टा करूंगा।' 'पहले यह शुद्ध रोटी तो ग्रहण करो।' चन्दा ने अनुरोध किया।
गजेन्द्र इस अनुरोध को मान गया, वह रोटी खाने लगा। चन्दा बांसुरी लाने चली गयी। गजेन्द्र को स्मरण हो आया कि गांव में अपने घर में मां कलेवा के लिए अनुरोध करती थी। भाभी अनुरोध करती थी। भाभी विनोद भी करती थी। मां मुस्करा उठती थी, आज वह यहां है, यहां भी चन्दा का अनुरोध है। यही तो जीवन है, ऐसा न हो तो जीवन कैसे चले। केवल रोटी नहीं, अपने हाथों से अजित रोटी...किसी स्नेहपूर्ण अनुरोध के साथ रोटो। तभी जीवन जीवन है, वह कुछ बने, कुछ करे। पर वह क्या कुछ करेगा? बाजीगरी ? खेती, अफगान राज में नौकरी या किसी अपने राजा के यहां ? बांसुरी बजाकर जीवन नहीं चलेगा? यह कला रोटी नहीं दे सकेगी, मानव को रोटी और प्रतिष्ठा दोनों चाहिए। केवल प्रतिष्ठा से पेट नहीं भरेगा, केवल रोटी से मन नहीं भरेगा। भैया तो कहेंगे कि सेना में भर्ती हो जाओ। खून दो और खून लो। उसका मन नहीं मान सका। खेती भी नहीं कर सका, वह तो बांसुरी सीखता रहा। गांव में एक साधुजी आये, उन्होंने बड़े स्नेह से बांसुरी सिखा दी। वह अभ्यास करता रहा, वह अपने प्राणों के स्वर पर मुग्ध होने लगा और यह चन्दा दिखायी पड़ गयी। इसकी आंखों में पीड़ा का संसार दीख पड़ा। उसने अपने को सिहरते पाया, उसने सोचा कि बांसूरी के संगीत से उसकी पोड़ा को सहलायेगा, और उसकी बांसुरी बजने लगी। दूर-दूर तक बजती रही, उसकी पीड़ा को शान्ति मिली। उसने मेरी बांसुरी को चाहा, और वह यहां है। मन को तृप्ति मिली...रोटी और आंवले की चटनी से।
चन्दा बांसुरी नेकर आ गयी थी, उसने बांसुरी देते हुए कहा-'थोड़ा अभ्यास कर लो।'
गजेन्द्र ने कहा- पहले तुमको अभ्यास करना है।'
'किस तरह....?'
'राधा की तरह।'
फिर बांसुरी की ध्वनि गूंजने लगी।
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