कविता संग्रह >> पतझर में कोंपल पतझर में कोंपलडॉ. मंजु लता श्रीवास्तव
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कवितायें
हर नागरिक की यह इच्छा होती है कि वह जिस समाज और जिस देश में रहता है वह तरक्की करे. कवि भी देश का नागरिक होता है इस कारण पूरे समाज की चिंता करता है. मंजु भी अतीत से कुछ अनुभव लेने की तो बात करती हैं किन्तु वर्तमान को सुन्दर भविष्य की ओर ले जाने के लिए वे स्वयं से और समाज से यह कहती हैं- 'मुड़के पीछे देखना मत सामने ही दृष्टि कर ले।
वे वर्तमान में जो साँस्कृतिक पतन और अमर्यादित वातावरण उत्पन्न हुआ है उसे इस सांकेतिक भाषा में कहती हैं. 'नीर घटा नदिया मंथर गति हुआ प्रदूषित पानी/मर्यादा को छोड़ मछलियाँ करती हैं मनमानी।' ...मंजु जी को कभी कभी ऐसा लगता है कि जैसे 'सब कुछ वैसा का वैसा है/जीवन का बस छोर आ गया।..लेकिन वे इस वास्तविकता को भी स्वीकार करती हैं 'तीर्थ कितने किए प्राण थकने लगे/मन जहा था वहीं का वहीं रह गया।'...
इस प्रकार मंजु जी का यह गीत-संग्रह काव्य के उस उद्देश्य को पूरा करता दिखाई देता है जो मानव के कल्याण और लोकमंगल की चेतना से जुड़ा माना जाता है. इस संग्रह के गीतों में यदि प्रेम के भीतरी आवेगों का वर्णन है तो इस प्रेमावेग को सामाजिक चेतना से जोड़ने का एक मधुर संयोजन भी है. इस संग्रह का हर गीत एक ऐसा सरोवर है जिसमे डुबकी लगाकर जीवन के अनेक अनुभवों का स्पर्श स्वतः ही होता चलता है. वे इतने सरल, सहज और मार्मिक हैं कि पाठक को स्वयं से दूर नहीं रहने देते।
एक बात जो इन गीतों में है वह यह कि ये गीत भाषा और गीत के शिल्प की दृष्टि से एकदम स्वतःस्फूर्त हैं. उनमे कोई बनावट नहीं है, जैसे भीतर से आ रहे हैं वैसी ही अपनी भाषा गढ़ लेते हैं, वैसा ही वे अपना छंद-विधान निर्मित करते चलते हैं. बिम्ब और प्रतीकों के सहारे अपनी बात को कहने का अपना मुहावरा चुनते हैं. वे गीत के पूर्व निर्मित विधि-विधान से एक दम मुक्त हैं और अपनी तरह के हैं, जिनमें रचनाकार का निजी व्यक्तित्व और उसका निजीपन सुरक्षित है. मैं ऐसे गीतों की कवयित्री को हार्दिक बधाई देता हूँ और आशा करता हूँ कि वे आगे भी इसी प्रकार अपने लेखन को जारी रखेंगी. मुझे विश्वास है कि पाठकों के बीच इस संग्रह का स्वागत होगा।
- डॉ. कुँअर बेचैन
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- अपनी बात