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कविता संग्रह >> पतझर में कोंपल

पतझर में कोंपल

डॉ. मंजु लता श्रीवास्तव

प्रकाशक : ज्ञानोदय प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16033
आईएसबीएन :9789385812866

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कवितायें


इस संग्रह के गीतों में जहां एक ओर प्रेम के स्वर हैं वहीं आज जो घृणा और हिंसा का बोलबाला दिखाई देता है उसको भी रेखांकित किया गया है. मंजु जी एक गीत में इस स्थिति का बयान करती हुई कहती हैं

'अब खेतों में ज्वार बाजरा नहीं उगाए जाते हैं। संगीनों-बंदूकों की वह चमकदार खनके फसलें, धारदार हथियारों की अब पौध लगाती हैं नस्लें। '... दहशत भरी सघन ललकारें सहमे पंछी भाग रहे। बंजर धरा भले फिर भी आतंक बुआए जाते हैं। अब खेतों में ज्वार बाजरा नहीं उगाए जाते हैं। ....सचमुच आज चारों ओर एक असुरक्षा का भाव व्यक्ति के मन में घर कर गया है. कराहों और चीखों का शोर विचलित कर रहा है. कवयित्री साफ तौर पर यह कहती हैं 'सदी, नहाई कोलाहल में थर थर काँप रही।'...

मंजु जी कई गीतों में जीवन-दर्शन की भी बात करती दिखाई देती हैं और तब वे यह कहती हैं 'बाँध गठरी मौत की सिर चल पड़े जीवन सफर पर।'...यह जीवन की सच्चाई है। कि जिंदगी अपने जन्म से ही मृत्यु का डर लेकर कांपते दिल से पूरा सफर पार करती है.

आज हमारा समाज राजनीति से जुड़ा हुआ है. लोकतंत्र में यह आवश्यक भी है. किन्त आज राजनीति में जो विद्रूपताएं और विसंगतियां आई हैं उन पर टिप्पणी करते हुए वे कहती हैं 'राजनीति मखमल सी, छिपे हुए भालें हैं।'...इस सचाई से हम सभी परिचित ही हैं कि आज की राजनीति सुख और आनन्द को बांटने वाली न होकर एक चुभन दे जाने वाली है।

पहले गाँव का जीवन और वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का बहुत गुणगान किया जाता था और यह सब बहुत अच्छा भी लगता था. किन्तु पिछले कुछ दशकों में गाँव ऊपर से तो कच्चे से पक्के हो गए हैं किन्तु हृदय और जीवन में बहुत ही अंतर आया है. वहां की अपरिपक्व राजनीति ने और जीवन-चर्या ने वहाँ के जीवन को बहुत ही प्रदूषित कर दिया है. इसलिए वे गाँव से शहर आये व्यक्ति से अब गाँव जाने को मना करती है 'बंधु ! गाँव की ओर न जाना'... क्योंकि वे जानती हैं कि उसके मन में 'वर्षों से जो बसा स्वप्न था उसको तो है टूट ही जाना'... मंजु जी की दृष्टि वर्तमान समस्याओं पर भी गई है इनमें किसानों की समस्या और उनकी विवशताओं के पार्श्व में जो कुछ हुआ उनका वर्णन ऐसे किया है 'आसों फसल नहीं हो पाई फिर बड़की का ब्याह रह गया। छुटकी के अंकुरित स्वप्न पर पाला मार गया। शहरी शिक्षा पाने का सपना फिर हार गया। आस लगी थी पक्की छत की। दीमक चटी नई चौखट की।'... इन तमाम पंक्तियों में कवयित्री की वह चिंता झलकती है जो एक रचनाकार को होना स्वाभाविक है।

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    अनुक्रम

  1. अपनी बात

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