उपन्यास >> श्मशान की राख श्मशान की राखत्रिवेणी प्रसाद त्रिपाठी
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सामाजिक उपन्यास
दो शब्द
मनोहर इस उपन्यास का एक पात्र है, जो अपनी पत्नी रमिया और बेटी नीरू के साथ रहता है। मनोहर दलित वर्ग से है। दलित वर्ग हमारे देश में आज भी उपेक्षित है। भले ही हम राजनीति में उन्हें अपनी गोष्ठी में शामिल करते हों, पर वह सिर्फ वोट की राजनीति के लिये। सत्य तो यही है कि हम भीतर से कुछ और हैं और बाहर से कुछ और। कुर्सी मिलने के बाद हम उन लोगों को भूल जाते हैं, जिनके दरवाजे पर हम कुर्सी मिलने से पहले जाते हैं। शायद कुर्सी का असर ही ऐसा है "प्रभुता बधिर न काँहिं ।"
आज हम इक्कीसवीं सदी में पहुंच चुके हैं। हमने सूचना-प्रद्योगिकी विज्ञान और न जाने किन-किन क्षेत्रों में विश्व स्तरीय सफलता प्राप्त की है। शायद हम अपनी सफलता के मद में अपनी धरती छोड़ चुके हैं, और अपनी सफलता का परचम आसमान से दिखलाना चाहते है। पर यह तो सफलता न हुई, अहं हुआ, अपनो को नीचे छोड़ कर।
सफलता तो तभी है जब हम अपनी धरती पर वसने वाले समाज के सभी तवकों को साथ लेकर ऊपर उड़ें। पर यह हो भी कैसे सकता है ? हमने गुरूजनों की वाणी सुनना बंद कर दिया, उनके द्वारा प्रणीत साहित्य को पढ़ना बंद कर दिया है, जिसके माध्यम से ही हम प्रेम, सदयता, आनंद और मिल कर चलने की शिक्षा पा सकते हैं। आज हमें आवश्यकता है निष्कपट होने की, जियो और जीने दो की नीति पर । जो सबल हैं उन्हें नीचे देखकर उन निस्सहायों को ऊपर की ओर खींचना होगा, ताकि हम सभी समानता का भान कर सकें और तभी हम सच्चे समाजवाद का गठन करने की अनुभूति कर सकेंगे।
- त्रिवेणी प्रसाद त्रिपाठी
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- श्मशान की राख