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अभिशप्त हस्तिना

त्रिवेणी प्रसाद त्रिपाठी

प्रकाशक : जे बी एस पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16001
आईएसबीएन :9789382225140

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हस्तिनापुर की गाथा पर खण्ज काव्य

प्रकृति ने मनुष्य को जहाँ बुद्धिमत्ता प्रदान की है वहीं उसे लोभ-मोह, माया से भी जकड़ दिया है। आत्मा जहाँ उसे सही रास्ते पर चलने का परामर्श देती है, वहीं मन विभिन्न प्रकार की जटिलताओं में भ्रमण कराता है। आत्मा और मन दोनों ही मनुष्य के ऊपर अपना वर्चस्व सावित करना चाहते हैं, पर मन की हमेशा जीत होती है, इसीलिए मनुष्य मन के वशवर्ती होकर हमेशा कुपथ का अवलम्बन करता है। शायद कुरुकुल के महान पराक्रमी योद्धा दुर्योधन के साथ भी यही हुआ। वह भी मन के वशवर्ती होकर पूरे साम्राज्य पर अकेले ही अधिकार करने का लोभ संवरण नहीं कर सका
और आधे साम्राज्य के अधिकारी पाण्डवों को किसी भी उपाय से इस संसार से विदा करने की योजना बनाता रहा। पर होता वही है, जो ईश्वर चाहते हैं, अतः दुर्योधन के किसी भी उपाय ने उसे सफलता नहीं दी, फलतः युद्ध पर ही आखिरी निश्चय ठहर गया।

कर्ण जहाँ दुर्योधन का पक्षपाती था, वहीं श्रीकृष्ण पाण्डवों के पक्षपाती थे। यद्यपि दोनों ही पक्षों ने अवसर के अनुकूल कुमार्ग और असत्य के कीचड़ में अपने पैर गंदे किए, पर विजय का सेहरा पाण्डवों के ही सिर पर बँधा और उस जीत का श्रीकृष्ण को ही पूरा श्रेय जाता है। युद्ध आनन्द नहीं देता, वरन जन-धन सभी का विनाश करता है। चाहे किसी भी पराक्रम की मदद मिले नाश तो युद्धकारी के ही कुटुम्ब और प्रियजनों का होता है। फिर न वहाँ द्वेष अपना विस्तार कर पाता है, न ही सत्य ठहर पाता है। वहाँ तो सिर्फ मृत्यु की विभीषिका विस्तार पाती है और रक्तरंजित युद्ध क्षेत्र और सड़ी-गली लाशें ही स्थायित्व पा पाती हैं।

प्रथम पृष्ठ

    अनुक्रम

  1. अभिशप्त हस्तिना

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