नई पुस्तकें >> समाधान समाधानलालजी वर्मा
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भारत-पाक युद्ध 1971 के परिप्रेक्ष्य में उपन्यास
खड़कपुर में इंडियन इंस्टिट्यूट आफ टेक्नोलॉजी भी है। एक बार का किस्सा है कि हंटर लड़ाकू विमान ने डाइव करने मेंवहाँ के टावर का शीशा तोड़ डाला। और यह अचानक नहीं हुआ था बल्कि एक बाज़ी लगायी गई थी। किसी पार्टी में कॉलेज के डायरेक्टर और वायु स्टेशन के कमांडर में औपचारिकबातें हो रही थीं। कुछ ड्रिंक्स के बाद लड़ाकू विमानों की क्षमता पर चर्चा होने लगी। स्टेशन कमांडर ने गर्व से कहा कि हंटर लड़ाकू विमान, जो भारतीय वायु सेना के पास उस समय सबसे आधुनिक लड़ाकू विमान था डाइव में ध्वनि-गति से भी तेज चलता है, और साउन्ड बेरीअर तोड़ कर उड़ान भरता है। कॉलेज के डायरेक्टर भी एक वैज्ञानिक थे, और वह भी भौतिक साइंस यानी फिजिक्स के। उन्होंने एक चैलेंज दे दिया। स्टेशन कमांडर टॉप क्लास फाइटर पायलट थे। उन्होंनेचैलेंज स्वीकार किया, और दूसरे ही दिन एयर-बेस से उड़ान भरी, कॉलेज के ऊपर से डाइव किया, और सच ही में कॉलेज के टावर का शीशा सोनिक-बूम से टूट गया।
सरला उस समय अपने गाँव में ही थी, कलाईकुंडा एयर बेस के पास। उसे यह वाकया अच्छी तरह से याद था, और बड़े चाव से अपने दोनों बेटों को टाइम पास करने के लिए सुना रही थी। मेघ, जो खडगपुर आई.आई.टी. में ही पढ़ रहा था, ने कहा, “हाँ, माँ जानती हो, टावर का शीशा आज भी उसी तरह टूटा ही छोड़ दिया गया है, एक यादगार के रूप में।”
कुछ सोचते हुए बादल ने कहा, “एक मोमेंटो, ... सूखे पत्तों की तरह जो पैर पड़ने से चरमरा उठते हैं, और अपने अस्तित्व की याद दिलाते हैं।” और कुछ याद करके, “एलियट की एक कविता, ‘द ड्राइ सैल्वेज’ के भाव।” बादल को साहित्य से लगाव था, और खासकर अंगरेजी कविताओं से।
सरला ने गर्व से अपने दोनों बेटों की ओर देखा, और हंसकर बोली, “बातों से पेट नहीं भरने का। कुछ खाने को तो ले आओ। जोरों की भूख लग पड़ी है। पेट में चूहे कूद रहे हैं।”
दोनों भाई कुछ झेंपते हुए रेस्तरां की ओर चले गए। वहां भी लाइन। हुछ देर में ही काउंटर पर पहुंचे। कुछआश्चर्य भी हुआ, और खुशी भी, कि इतनी जल्दी वे काउंटर पर पहुँच गए। पर यह खुशी कुछ पल के ही लिए थी, क्योंकि पता चला कि रेस्तरां में खाना ख़त्म हो गया था। दोनों हाथ डुलाते माँ के पास वापस आये औररेस्तरां में खाना ख़त्म होने का सन्देश हंसी दबाये हुए सुनाया। सरला को तो जोरों की भूख लगी थी। चिढ़ कर बोली, “वाह, ये भी कोई बात हुई! इसलिए तो रेल की व्यस्था इतनी लचर है।”
“पर माँ, आज देखो तो कितनी भीड़ है।” मेघ ने कहा। सरला को लगा कि वह रेलवे का साइड ले रहा है। और भी चिढ़ कर बोली, “क्या इन्हें नहीं मालूम पड़ा कि आज इतनी भीड़ हो रखी है। और भीड़ भी तो ट्रेन नहीं चलने सेही हो रही है। और तुम दोनों हो कि रेलवे का ही साइड ले रहे हो?”
मेघ और बादल दोनों एक साथ ही बोल पड़े, “अरे, नहीं माँ, हमलोग क्यों रेलवे का साइड लेने लगे?... ” मेघ ने बादल को चुप कराते हुए कहा, “अब यहाँ खाना नहीं है, तो कोई बात नहीं। खाना बाहर से ले आते हैं।” बादल ने भी हाँ में हाँ मिलाया और कहा, “स्टेशन के बाहर ही तो कितने सारे ढाबे हैं, वहीं से कुछ ले आते हैं।”
“हाँ, लेकिन ध्यान रखना कि ढाबा साफ़-सुथरा है न।” सरला ने आगाह किया। कॉलरा का प्रकोप कहीं भी और कभी भी कहर ढा सकता है। सरला को अपने बचपनके दिन याद आये। उसके ननिहाल में उसके नाना का घर गाँव से बाहर हुआ करता था। नाना उस एरिया के सुप्रसिद्ध ज़मींदार थे, और उनके घर में काम करने के लिए गाँव से बहुत लोग आते थे। पर जब कॉलरा फैलता था, जो कि प्रत्येक साल की कहानी थी तो गाँव से नौकर-चाकर का आना बंद कर दिया जाता था।बहुत घरों में मौत भी होती थी। पर इस तरह से अहितियात बरतने से नाना की फॅमिली में कभी भी कॉलरा दस्तक नहीं दे सकी। घर के सारे काम स्वयं घर वाले ही करते थे। टीकालगाने का कार्यक्रम भी लगातार सरकार द्वारा चलाया जाता था।
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