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अजनबी

राजहंस

प्रकाशक : धीरज पाकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15358
आईएसबीएन :0

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राजहंस का नवीन उपन्यास

इस समय सुनीता अस्पताल पहुंच चुकी थी...सने डाक्टर से मिलकर सब कागज तैयार कर लिये थे। लता को घर ले जाने के।

लता भी तैयार थी पर वह यह नहीं जानती थी कि सुनीता उसे कहाँ ले जा रही है...उसे तो यहीं पता था कि वह अपने फ्लैट पर जा रही है।

सुनीता के जाने के कुछ देर बाद ही सेठ जी भी आफिस के लिये चल दिये थे। घर में सिर्फ विकास मुकेश रह गये थे।

मुकेश विकास से कुछ अधिक बात नहीं करता चाहता था। अतः वह विकास के कमरे में ही एक उपन्यास लेकर कुर्सी पर बैठ गया था।

विकास पलंग पर लेटा हुआ था तभी फोन की घंटी चीख उठी। विकास ने फोन उठाकर कानों से लगाया-"हैल्लो।''

"हैल्लो कौन विकास?"

"तुम...कौन?” परन्तु उसे आवाज को सुनकर विकास चौंक. उठा क्योंकि इस आवाज को वह भली भांति जानता था।

“कमाल है यार...अब तुम हमारी आवाज भी भूल गये।” उथर से व्यंग भरी स्वर उभरा।

"कहो क्या कहना है?"

"मुझे एक लाख रुपया चाहिये।”

"पर मेरे पास इस समय कुछ भी नहीं है।"

"मैं कोठी पर आ रहा है...परन्तु याद रखना भागने की कोशिश नहीं करना...मेरे आदमी तुम्हारी कोठी की निगरानी कर रहे हैं। और सम्बंध विच्छेद हो गया।

मुकेश का ध्यान फोन की घंटी सुनते ही किताब से हट गया था। वह चोर नजरों से विकास को देख रहा था। विकास की हालत से साफ जाहिर था कि मामला कुछ गम्भीर है परन्तु वह अपनी तरफ से कुछ भी कहना नहीं चाहता था।

रामू ने आकर बताया कोई आपसे मिलना चाहता है। विकास समझ गया कि जग्गा ही होगा उसने कहा-“उसे बैठाओ मैं आता।

रामू चला गया।

जब विकास कमरे से निकल गया तब मुकेश भी उठा और दबे पांव विकास के पीछे चल दिया। मुकेश अन्दर के कमरे में

ऐसी जगह खड़ा हो गया जहाँ से वह सब कुछ देख पाये परन्तु उसे कोई न देख सके।

क़मरे में पहुंचकर विकास ने कहा-“बताओ क्या चाहते हो?"

"और कुछ नहीं एक लाख रूपया...ये आखिरी बार मांग रहा हूं।"

“आज तक तुम हमेशा यही कहते आये हो।”

"ठीक है तो मैं आज ही लता को बता दूंगा कि मुकेश का ऐक्सीडेंट तुमने करवाया था लता को फंसाने के लिये।”

“चुप रहो...मैं तुम्हें एक सप्ताह में रुपया दे दूंगा।"

"क्यों डर गये...मैं जानता हूं तुम कभी नहीं चाहोगे कि तुम्हारा भेद खुले।” जग्गा के चेहरे पर कुटिलता थी।

मुकेश ने सब सुना तो हैरत में आ गया वह नहीं जानता था विकास का रूप इतना घिनौना भी हो सकता है।

“विकास मुझे रुपया अभी चाहिये।"

"परन्तु इस समय मेरे पास कोई रुपया नहीं है।"

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