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राजहंस

प्रकाशक : धीरज पाकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15358
आईएसबीएन :0

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राजहंस का नवीन उपन्यास

"जी...जी...मैं समझी नहीं।" लता कांप उठी उसकी निगाहें अपने पेट पर गई उसे लगा कि ये विकास के और उसके सम्बन्ध में पूछने आई है...एर जल्दी ही लता ने अपने को सम्मान लिया...लेकिन उसके चेहरे के भावों को सुनीता पढ़ गई थी।

“तुम मुकेश को जानती हो?” सुनीता की नजरें लता के चेहरे पर ही जमीं थी।

"न...नहीं...मैं..में...किसी मुकेश को जानती।” लता का चेहरा मुकेश के नाम से पसीने से भीग गया। उसकी आँखों में मुकेश की प्यारी सूरत नाच उठी।

"अगर नहीं जानती तो मुकेश के नाम से चेहरे की रंगत क्यों बदल गई।” सुनीता समझ गई थी कि लता झूठ बोल रही है।

सुनीता की बातें सुन लता की आंखों से आंसू बहने लगे। लता ने अपना चेहरा दोनों हाथों में छुपा लिया।

लता को रोते देख सुनीता का भी मन भर आया। वह सोफे से उठी और लता के पास जा बैठी लता के पास बैठकर सुनीता। ने लता के बालों को सहलाना शुरू कर दिया।

"लता मुझे तुम अपना हितैषी समझो...मैं तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं देने आई हैं...बल्कि तुम्हें सही रास्ते दिखाने आई हूं...तुम नहीं जानती मैं कौन हैं...पर मैं तुम्हारे विषय में सब जानती हूँ।"

"आप कौन हैं?" लता ने अपने को सम्भालते हुये पूछा।

"मैं विकास की पत्नी हूं।"

"क्या?"

"हाँ मैं यह भी जानती है..कि विकास ने तुम्हें अपनी शादी की बात नहीं बताई है।"

“आप मुकेश को कैसे बनती हैं।”

"मुकेश मेरे पापा की फैक्ट्री का मैनेजर है...और मेरा मुंह बोला भाई...उसने मुझे तुम्हारे बारे में सब कुछ बता दिया है...उसके. पास तुम्हारी एक फोटो भी है उसने मुझे तुम्हारी फोटो भी दिखाई थी जिसकी अह से मैं तुम्हें पहचान पाई हूं।"

"कैसा है मुकेश?” लता ने पूछ ही लिया।

"ठीक है पर रात दिन तुम्हें याद करता है...इसलिये उसने अभी तक शादी नहीं की है।"

“पर मैं तो अब मुकेश के काबिल नहीं है...तुम्हारे पति ने मेरा सर्वनाश कर डाला है।"

"लता तुमने मुकेश के साथ अधिक समय गुजारा है...पर तुमने उसे नहीं पहचाना...अगर पहचानती तो ऐसा नहीं कह पाती।"

“हाँ आप ठीक कहती हैं...तभी तो मुझे कष्ट उठाना पड़ा है।"

"लता मैं जानती हूं मुकेश तुम्हें इस हाल में भी अपना सकता है।"

"लेकिन इस रूप में उसके सामने नहीं जा सकती।"

"फिर तुम जो कहो मैं. वह करने को तैयार हूं...तुम मेरे साथ कोठी में भी रह सकती हो।”

“दीदी आप बैठिये मैं अभी आई।” कहकर लता रसोई की ओर चल दी। उसने रसोई में चाय का पानी चढ़ा दिया...कुछ देर पहले जिसे सुनीता को लता कहर धरी नजरों से देख रही थी। इस समय वही उसे देवी के समान नजर आ रही थी। लता के लियें सुनीता अपना सुख भी लुटाने को तैयार थी। क्यों-आखिर क्यों-इस क्यों का जवाब सता को नहीं मिल पा रहा था।

लता दो कप चाय ले आई।

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