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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :390
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1530
आईएसबीएन :9788128812453

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my experiment with truth का हिन्दी रूपान्तरण (अनुवादक - महाबीरप्रसाद पोद्दार)...


बम्बईसे श्री जायजी पिटीट के अथक परिश्रम से स्त्रियो का एक डेप्युटेशन वाइसरॉय के पास पहुँचा। उसमें लेडी ताता, स्व. दिलशाह बेगम आदि महिलाये थी। सबबहनो के नाम तो मुझे याद नहीं है, पर इस डेप्युटेशन का बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा था और वाइसरॉय ने उन्हें आशाजनक उत्तर दिया था।

मैं करांची, कलकत्ता आदि स्थानो पर भी हो आया था। सब जगह अच्छी सभाये हुए थी और लोगोंमें सर्वत्र खूब उत्साह था। आन्दोलन आरम्भ करते समय मुझे यह आशा नहीं थी कि ऐसी सभाये होगी और उनमें लोग इतनी संख्या में उपस्थित होंगे।

इन दिनो मेरी यात्र अकेले ही होती थी, इस कारण अनोखे अनुभव प्राप्त होते थे।खुफिया पुलिसवाले तो मेरे पीछे लगे ही रहते थे। उनके साथ मेरा झगड़ा होने का कोई कारण ही न था। मुझे तो कोई बात छिपानी नहीं थी। इससे वे मुझेपरेशान नहीं करते थे और न मैं उन्हें परेशान करता था। सौभाग्य से उस समय मुझे 'महात्मा' की छाप नहीं मिली थी, यद्यपि जहाँ में पहचान लिया जाता था,वहाँ इस नाम का घोष जरूर होता था। एक बार रेल में जाते हुए कई स्टेशनों पर खुफिया पुलिसवाले मेरा टिकट देखने आते औऱ नम्बर वगैरा लेते रहते थे। उनकेप्रश्नो का उत्तर मैं तुरन्त ही दे देता था। साथी यात्रियो ने मान लिया था कि मैं कोई सीधा-सीदा साधु अथवा फकीर हूँ। जब दो-चार स्टेशनो तक खुफियापुलिसवाले आये तो यात्री चिढ गये और उन्हें गालियाँ देकर धमकाया, 'इस बेचारे साधु को नाहक क्यों सताते हो?' फिर मेरी ओर मुडकर बोले, 'इन बदमाशोको टिकट मत दिखाओ।'

मैंने इन यात्रियों से धीमी आवाज में कहा,'उनके टिकट देखने से मुझे कोई परेशानी नहीं होती। वे अपना कर्तव्य करतेहै। उससे मुझे कोई कष्ट नहीं होता।'

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