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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

''आज कुछ शिथिल हो अहल्या!'' गौतम ने निकट आ, अहल्या के कंधे पर हाथ रखा, "दिन-भर का कार्य बहुत अधिक था?"

"नहीं! कार्य की तो कोई बात नहीं!'' अहल्या ने पुत्र पर से दृष्टि हटाकर, पति को देखा, "किंतु उस व्यस्तता के कारण, मैं दिन-भर में शत को तनिक भी समय नहीं दे सकी। दिन-भर मुझसे अलग रहा है, शत इसलिए इस समय काफी चिपकू हो रहा है। गोद से उतरना ही नहीं चाहता। वैसे मुझे लगता है, इसे हल्का-सा ज्वर भी है। आप देखिए तो...।''

गौतम ने शत के माथे पर अपनी हथेली रखी। माथा गर्म था।

पिता का स्पर्श पाकर शत ने आंखें खोल दी। उन आंखों में भी ज्वर का ताप चढ़ा हुआ था।

"बेटे को ज्वर हो गया।'' गौतम ने कहा।

शत ने शरीर के ताप से सूखे होंठों पर जीभ फेर उन्हें गीला किया और बड़ी धीमी आवाज में बोला, "पिताजी गोद में ले लो।''

गौतम ने शत को गोद में उठा लिया। शत ने फिर से आंखें बंद कर ली। पर गौतम समझ रहे थे, यह नींद नहीं थी, ज्वर के कारण शरीर तथा मन की शिथिलता थी।

"चिकित्साचार्य को नहीं दिखाया?''

"दिन-भर तो मुझे अवकाश ही नहीं मिला।'' अहल्या ने उत्तर दिया, "मैं आपसे थोड़ी ही देर पहले कुटिया में लौटी हूं। तभी सखी सदानीरा इसे मुझे देकर गई है। आज शत दिन-भर सदानीरा के पास ही रहा है। तब मैंने सोचा कि चिकित्साचार्य भी दिन-भर के कार्य से थके हुए होंगे, इस समय उन्हें क्या कष्ट देना। बच्चा ज्वर से शिथिल हो गया है। कोई गंभीर बात नहीं है। कल प्रातः उन्हें दिखा दूंगी।''

"ठीक कहती हो अहल्या।'' किंतु गौतम पूर्णतः सहमत नहीं थे, "पर रात में यदि ज्वर बढ़ गया तो और भी परेशानी होगी। फिर दिनों अपनी व्यस्तता में हम बच्चे की पूरी तरह देखभाल भी नहीं कर पाएंगे।''

और गौतम अपने ही मन में अनेक बार उभरे हुए प्रश्न से उलझ गए। जब कभी उन्होंने अपने आश्रम में कोई विशेष उत्सव किया है, और ऐसे उत्सव वे करते ही रहते हैं, तो उन्होंने पाया है कि वह उन उत्सवों में कुछ ऐसे खो गए हैं, व्यस्त हो गए है कि वे अपने घर-परिवार को सर्वथा भूल गए हैं। जब कभी उन्होंने स्वयं को एक अत्यन्त दक्ष एवं कुशल कुलपति प्रमाणित करने का प्रयत्न किया है, उन्हें सदा ही अपने पति तथा पिता-रूप की उपेक्षा करनी पड़ी है। ऐसा क्यों है कि जो व्यक्ति स्वयं को सारी मानव-जाति के सुख के लिए समर्पित कर देता है, वह अपने परिवार को ही सुखी नहीं रख पाता। यह, दीपक तले अंधकार क्या प्रकृति का नियम है? उन्होंने उत्सव किए हैं, सम्मेलन किए हैं, अभ्यागतों की देखभाल की है, ज्ञान-चर्चाएं की हैं-उन्हें उसके लिए भरपूर यश मिला है; पर क्या उन दिनों वह यह देख पाए हैं कि अहल्या कहां है? कैसी है? क्या उन्हें याद रहा है? ये ज्ञान-उत्सव उनकी अपनी महत्वाकांक्षा रही है, उसे पूर्ण कर वह आत्मतोष भी पाते हैं, और यश भी; पर क्या उनकी पत्नी और बच्चे की भी महत्वाकांक्षा है? क्या इससे उन्हें आत्मतोष और यश मिलता है? या वे लोग गौतम की महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए अपना बलिदान कर रहे हैं? क्या किसी महत्वाकांक्षी, किसी परमार्थी के सगे-संबंधी होना भाग्य का अभिशाप है?

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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