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गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...


राय साहब तनकर बोले–हर्गिज नहीं। आज जो कुछ होना है, हो जाने दीजिये। या तो हम खुद मर जायँगे, या इन जालिमों को हमेशा के लिए सबक दे देंगे।

तंखा ने राय साहब को डाँट बतायी–शेर की माँद में घुसना कोई बहादुरी नहीं है। मैं इसे मूर्खता समझता हूँ।

मगर मिस मालती के मनोभाव कुछ और ही थे। खान के लालसाप्रदीप्त नेत्रों ने उन्हें आश्वस्त कर दिया था और अब इस कांड में उन्हें मनचलेपन का आनन्द आ रहा था। उनका हृदय कुछ देर इन नरपुंगवों के बीच में रहकर उनके बर्बर प्रेम का आनन्द उठाने के लिए ललचा रहा था। शिष्ट प्रेम की दुर्बलता और निर्जीवता का उन्हें अनुभव हो चुका था। आज अक्खड़, अनघड़ पठानों के उन्मत्त प्रेम के लिए उनका मन दौड़ रहा था, जैसे संगीत का आनन्द उठाने के बाद कोई मस्त हाथियों की लड़ाई देखने के लिए दौड़े।
उन्होंने खाँ साहब के सामने जाकर निश्शंक भाव से कहा–तुम्हें रुपये नहीं मिलेंगे।

खान ने हाथ बढ़ाकर कहा–तो अम तुमको लूट ले जायगा।

‘तुम इतने आदमियों के बीच से हमें नहीं ले जा सकता।’

‘अम तुमको एक हजार आदमियों के बीच से ले जा सकता है।’

‘तुमको जान से हाथ धोना पड़ेगा।’

‘अम अपने माशूक के लिए अपने जिस्म का एक-एक बोटी नुचवा सकता है।’

उसने मालती का हाथ पकड़कर खींचा। उसी वक्त होरी ने कमरे में कदम रखा। वह राजा जनक का माली बना हुआ था और उसके अभिनय ने देहातियों को हँसाते-हँसाते लोटा दिया था। उसने सोचा मालिक अभी तक क्यों नहीं आये। वह भी तो आकर देखें कि देहाती इस काम में कितने कुशल होते हैं। उनके यार-दोस्त भी देखें। कैसे मालिक को बुलाये? वह अवसर खोज रहा था, और ज्योंही मुहलत मिली, दौड़ा हुआ यहाँ आया; मगर यहाँ का दृश्य देखकर भौचक्का-सा खड़ा रह गया। सब लोग चुप्पी साधे, थर-थर काँपते, कातर नेत्रों से खान को देख रहे थे और खान मालती को अपनी तरफ खींच रहा था। उसकी सहज बुद्धि ने परिस्थिति का अनुमान कर लिया। उसी वक्त राय साहब ने पुकारा–होरी, दौड़कर जा और सिपाहियों को बुला, ला जल्द दौड़!

होरी पीछे मुड़ा था कि खान ने उसके सामने बन्दूक तानकर डाँटा–कहाँ जाता है सुअर, हम गोली मार देगा।

होरी गँवार था। लाल पगड़ी देखकर उसके प्राण निकल जाते थे; लेकिन मस्त साँड़ पर लाठी लेकर पिल पड़ता था। वह कायर न था, मारना और मरना दोनों ही जानता था; मगर पुलिस के हथकंडों के सामने उसकी एक न चलती थी। बँधे-बँधे कौन फिरे, रिश्वत के रुपए कहाँ से लाये, बाल-बच्चों को किस पर छोड़े; मगर जब मालिक ललकारते हैं, तो फिर किसका डर। तब तो वह मौत के मुँह में भी कूद सकता है।

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