सदाबहार >> गोदान गोदानप्रेमचंद
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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...
मातादीन उस दिन खुल पड़ा। परदा होता है हवा के लिए। आँधी में परदे उठाके रख दिये जाते हैं कि आँधी के साथ उड़ न जायँ। उसने शव को दोनों हथेलियों पर उठा लिया और अकेला नदी के किनारे तक ले गया, जो एक मील का पाट छोड़कर पतली-सी धार में समा गयी थी। आठ दिन तक उसके हाथ सीधे न हो सके। उस दिन वह जरा भी नहीं लजाया, जरा भी नहीं झिझका।
और किसी ने कुछ कहा भी नहीं; बल्कि सभी ने उसके साहस और दृढ़ता की तारीफ की।
होरी ने कहा–यही मर्द का धरम है। जिसकी बाँह पकड़ी, उसे क्या छोड़ना!
धनिया ने आँखें नचाकर कहा–मत बखान करो, जी जलता है। यह मर्द है? मैं ऐसे मर्द को नामर्द कहती हूँ। जब बाँह पकड़ी थी, तब क्या दूध पीता था कि सिलिया ब्राह्मणी हो गयी थी?
एक महीना बीत गया। सिलिया फिर मजूरी करने लगी थी। सन्ध्या हो गयी थी। पूणर्मासी का चाँद विहँसता-सा निकल आया था। सिलिया ने कटे हुए खेत में से गिरे हुए जौ के बाल चुनकर टोकरी में रख लिये थे और घर जाना चाहती थी कि चाँद पर निगाह पड़ गयी और दर्द-भरी स्मृतियों का मानो स्रोत खुल गया। अंचल दूध से भींग गया और मुख आँसुओं से। उसने सिर लटका लिया और जैसे रुदन का आनन्द लेने गयी।
सहसा किसी की आहट पाकर वह चौंक पड़ी। मातादीन पीछे से आकर सामने खड़ा हो गया और बोला–कब तक रोये जायगी सिलिया! रोने से वह फिर तो न आ जायगा। यह कहते-कहते वह खुद रो पड़ा।
सिलिया के कंठे में आये हुए भर्त्सना के शब्द पिघल गये। आवाज सँभालकर बोली–तुम आज इधर कैसे आ गये?
मातादीन कातर होकर बोला–इधर से जा रहा था। तुझे बैठा देखा, चला आया।
‘तुम तो उसे खेला भी न पाये।’
‘नहीं सिलिया, एक दिन खेलाया था।’
‘सच?’
‘सच!’
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