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सदाबहार >> गोदान

गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...


पटेश्वरी ने पूछा–रात कुछ खाया था?

धनिया बोली–हाँ, रोटियाँ पकायी थीं; लेकिन आजकल हमारे ऊपर जो बीत रही है, वह क्या तुमसे छिपा है?  महीनों से भरपेट रोटी नसीब नहीं हुई। कितना समझाती हूँ, जान रखकर काम करो; लेकिन आराम तो हमारे भाग्य में लिखा ही नहीं।

सहसा होरी ने आँखें खोल दीं और उड़ती हुई नजरों से इधर-उधर ताका।

धनिया जैसे जी उठी। विह्वल होकर उसके गले से लिपटकर बोली–अब कैसा जी है तुम्हारा? मेरे तो परान नहों में समा गये थे।

होरी ने कातर स्वर में कहा–अच्छा हूँ। न जाने कैसा जी हो गया था।

धनिया ने स्नेह में डूबी भर्त्सना से कहा–देह में दम तो है नहीं, काम करते हो जान देकर। लड़कों का भाग था, नहीं तुम तो ले ही डूबे थे!

पटेश्वरी ने हँसकर कहा–धनिया तो रो-पीट रही थी।

होरी ने आतुरता से पूछा–सचमुच तू रोती थी धनिया?

धनिया ने पटेश्वरी को पीछे ढकेल कर कहा–इन्हें बकने दो तुम। पूछो, यह क्यों कागद छोड़कर घर से दौड़े आये थे?

पटेश्वरी ने चिढ़ाया–तुम्हें हीरा-हीरा कहकर रोती थी। अब लाज के मारे मुकरती है। छाती पीट रही थी।

होरी ने धनिया को सजल नेत्रों से देखा–पगली है और क्या। अब न जाने कौन-सा सुख देखने के लिए मुझे जिलाये रखना चाहती है।

दो आदमी होरी को टिकाकर घर लाये और चारपाई पर लिटा दिया। दातादीन तो कुढ़ रहे थे कि बोआई में देर हुई जाती है, पर मातादीन इतना निर्दयी न था। दौड़कर घर से गर्म दूध लाया, और एक शीशी में गुलाबजल भी लेता आया। और दूध पीकर होरी में जैसे जान आ गयी।

उसी वक्त गोबर एक मजदूर के सिर पर अपना सामान लादे आता दिखायी दिया।

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