सदाबहार >> गोदान गोदानप्रेमचंद
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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...
‘अभी-अभी रुद्रपाल ने लड़की के नाम एक पत्र भेजा है जो उसने मुझे दे दिया।’
‘आजकल के लड़कों में और तो कोई खूबी नज़र नहीं आती, बस स्वच्छन्दता की सनक सवार है।’
‘सनक तो है ही; मगर इसकी दवा मेरे पास है। मैं उस छोकरी को ऐसा गायब कर दूँ कि कहीं पता न लगेगा। दस-पाँच दिन में यह सनक ठंडी हो जायगी। समझाने से कोई नतीजा नहीं।’
रायसाहब काँप उठे। उनके मन में भी इस तरह की बात आयी थी; लेकिन उन्होंने उसे आकार न लेने दिया था। संस्कार दोनों व्यक्तियों के एक-से थे। गुफावासी मनुष्य दोनों ही व्यक्तियों में जीवित था। रायसाहब ने उसे ऊपर वस्त्रों से ढँक दिया था। राजा साहब में वह नग्न था। अपना बड़प्पन सिद्ध करने के उस अवसर को राय साहब छोड़ न सके।
जैसे लज्जित होकर बोले–लेकिन यह बीसवीं सदी है, बारहवीं नहीं। रुद्रपाल के ऊपर इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, मैं नहीं कह सकता; लेकिन मानवता की दृष्टि से...
राजा साहब ने बात काटकर कहा–आप मानवता लिये फिरते हैं और यह नहीं देखते कि संसार में आज मनुष्य की पशुता ही उसकी मानवता पर विजय पा रही है। नहीं, राष्ट्रों में लड़ाइयाँ क्यों होतीं? पंचायतों से मामले न तय हो जाते? जब तक मनुष्य रहेगा, उसकी पशुता भी रहेगी।
छोटी-मोटी बहस छिड़ गयी और विवाह के रूप में आकर अन्त में वितंडा बन गयी और राजा साहब नाराज होकर चले गये। दूसरे दिन राय साहब ने भी नैनीताल को प्रस्थान किया। और उसके एक दिन बाद रुद्रपाल ने सरोज के साथ इंगलैंड की राह ली। अब उनमें पिता-पुत्र का नाता न था। प्रतिद्वन्द्वी हो गये थे। मिस्टर तंखा अब रुद्रपाल के सलाहकार और पैरोकार थे। उन्होंने रुद्रपाल की तरफ से राय साहब पर हिसाब-फहमी का दावा किया। राय साहब पर दस लाख की डिग्री हो गयी। उन्हें डिग्री का इतना दुःख न हुआ जितना अपने अपमान का। अपमान से भी बढ़कर दुःख था जीवन की संचित अभिलाषाओं के धूल में मिल जाने का और सबसे बड़ा दुःख था इस बात का कि अपने बेटे ने ही दगा दी। आज्ञाकारी पुत्र के पिता बनने का गौरव बड़ी निर्दयता के साथ उनके हाथ से छीन लिया गया था।
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