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नारी विमर्श >> नारी कामसूत्र

नारी कामसूत्र

विनोद वर्मा

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :343
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13567
आईएसबीएन :9788183615242

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काम को आत्मज्ञान की चरम सीमा तक ले जाना ही इस पुस्तक का ध्येय है


पाश्चात्य विद्वानों ने जैसा कहा है, मैं उसे स्पष्ट करते हुए यह कहना चाहूँगी कि प्राचीन काल में भारतीय काम-वासना से 'ग्रसित' नहीं थे। वे जीवन में कामुकता को अन्य इंद्रियजनित अनुभूतियों का ही भाग समझते थे। 'कामुकता' को वे पृथक तथा विशिष्ट व्यवहारयोग्य नहीं मानते थे। वे इसे जीवन के अन्य क्रिया-कलापों से पृथक तथा रहस्यमय नहीं समझते थे। यह दृष्टिकोण उस स्थिति में बिलकुल स्पष्ट है यदि हम प्राचीन भारतीयों की ब्रह्मांड विषयक विचारधारा को समझें, जिसके अंतर्गत ब्रह्मांड पूर्णरूपेण व्यवस्थित और संपूर्ण है जिसमें प्रत्येक वस्तु परिवर्तनीय तथा गतिशील है। कोई भी घटना अनायास नहीं घटित होती तथा प्रत्येक वस्तु अंतःसंबद्ध, परस्पर संबद्ध तथा परस्पर निर्भर है।
सबसे प्राचीन भारतीय ग्रंथ, चार वेद या ज्ञान ग्रंथ हैं जिनकी रचना लगभग ३५०० वर्षों पूर्व हुई थी। अथर्ववेद में काम-वासना की निम्न प्रकार से प्रशंसा की गई है :
“काम सबसे पहले उत्पन्न हुआ। देवतागण, पूर्वज अथवा नर इसकी बराबरी नहीं कर सकते। ओ काम, तुम महान हो क्योंकि प्रत्येक जीवित वस्तु में तुम्हारा वास है। मैं तुम्हें नमन करता हूँ। तुम्हारा देवत्व सूर्य, चंद्रमा, वायु तथा अग्नि से भी अधिक पूजनीय है। तुम्हारा सभी में समावेश है, अतः तुम महान हो। मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ।
नारी-नर के संसर्ग का अर्थ गहन है तथा भारतीय परंपरा में इसका एक पवित्र स्थान है। यह ब्रह्मांड की दो प्रमुख ऊर्जाओं तथा संपूरक शक्तियों के मिलन तथा विघटन का प्रतीक है, जो एक अद्वितीय आत्मिक आनंद की अनुभूति देता है। 'नर' (सार्वभौम आत्मन्) का प्रकृति (सृष्टि-तत्त्व) से संयोजन ही इस अद्भुत संसार का कारण है तथा उनका एक-दूसरे में पूर्ण विलय ही मूलभूत स्वतंत्रता तथा अमरत्व का.मार्ग प्रशस्त करता है। क्षणिक शारीरिक सुखों को दीर्घकालीन बनाकर आध्यात्मिक तथा ब्रह्मांडीय अनुभवों तक विस्तारित किया जा सकता है। फिर भी यह सब करने के लिए व्यक्ति को जीवन को संपूर्णता की दृष्टि से देखना और ब्रह्मांडीय प्रणाली तथा इससे हमारे संबंधों को समझना पड़ता है।

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