नारी विमर्श >> नारी कामसूत्र नारी कामसूत्रविनोद वर्मा
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काम को आत्मज्ञान की चरम सीमा तक ले जाना ही इस पुस्तक का ध्येय है
अध्याय-क्रम
आभार सात
हिंदी संस्करण की भूमिका नौ
आमुख तेरह
पहला भाग : नारीत्व का बोध
पृष्ठ : ३२-५१
१. इस ग्रंथ की रचना नारी और नर, दोनों के उपयोग के लिए तथा अनुकूल
वातावरण उत्पन्न करने के लिए की जा रही है।
२. नारी समाज की सबसे छोटी इकाई के बीज-स्वरूप है तथा उसके असंतोष से
वर्तमान और भविष्य में संशय एवं अस्त-व्यस्तता आ जाती है।
३. नारी को चाहिए कि वह संसार में शांति तथा संतुलन बनाने के लिए अपनी
सुरक्षा का मार्ग तथा अपने हित का उपाय स्वयं ढूँढ़े।
४. अपनी शक्ति को बढ़ाने में ही नारी का हित है।
५. शक्ति तीन प्रकार की होती है : शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक।
६. शक्ति उसके अपने प्रयत्न से ही बढ़ेगी।
७. प्रयत्न करना सबके लिए अनिवार्य है, उनके लिए भी जो जन्म से सौंदर्ययुक्त
तथा धनवान हैं।
८. नारी की सच्ची सुंदरता उसकी शक्ति में है, न कि बाह्य रूप में।
९. शारीरिक तथा मानसिक कोमलता और शक्ति समकालिक हैं।
१०. चित्त के स्थिर होने से एकाग्रता होती है तथा एकाग्रता से आत्मज्ञान।
११. आत्मज्ञान से ही इंद्रियों द्वारा काम की पूर्ण तृप्तिं तथा आत्मा का
साक्षात्कार
होता है।
नारी कामसूत्र के प्रथम भाग की यहाँ इति होती है। इसमें नारीत्व के बोध पर
प्रकाश डाला गया है तथा पुस्तक के विषयों को संक्षेप में बताया गया है।
दूसरा भाग : नारी-तत्त्व तथा नर-तत्त्व में संतुलन
पृष्ठ : ५२-७५
१. नर और नारी की मूल प्रकृति में अंतर का कारण उनमें नारी-तत्त्व के तथा
नर-तत्त्व के अनुपात की भिन्नता है।
२. नारी-तत्त्व तथा नर-तत्त्व त्रिगुणात्मक हैं तथा तीनों गुणों की मात्रा
में भिन्नता उनके भेद का कारण है।
३. नारी-तत्त्व तथा नर-तत्त्व के अनुपात में भिन्नता के कारण नारी और नर की
मूल प्रकृति में अंतर होता है।
४. मातृत्व नारीत्व का एक अभिन्न अंग है तथा वह केवल संतान उत्पत्ति से संबंध
नहीं रखता।
५. नारियों की स्वाधीनता तथा स्वतंत्रता एवं नरों का प्रभुत्व अपने अंदर के
मातृत्व
भाव को अस्वीकार करने में नहीं होता।
६. सृष्टि के त्रिगुणात्मक होने के कारण गुणों का अनुपात सदैव बदलता रहता है।
७. मनुष्य को अपना पूरा मनोबल तथा अपनी बुद्धि तीनों गुणों का संतुलन बनाए
रखने के लिए लगानी चाहिए।
८. सृष्टि के संतुलन के लिए आवश्यक है कि नारी और नर अपने को एक-दूसरे
के पूरक समझें न कि अलग-अलग खंड।
९. नर अपने में पहले से अधिक गुण को और बढ़ाए तो उसमें रजोगुण का अंश
अत्यधिक हो जाता है जो उसे नारी और बच्चों से दूर कर रोगों का कारण बनता है।
१०. अगर नारी ऐसा करे तो उसका भी यही दुष्परिणाम होता है।
११. नारी-नर में कामपूर्ति एवं सहचरता के लिए गुणों को स्वतंत्र रूप में
प्रकट करना
तथा एक-दूसरे के गुणों के लिए सद्भाव रखना अनिवार्य है।
नारी कामसूत्र के दूसरे भाग की यहाँ इति होती है। इसमें नारी-तत्त्व तथा
नर-तत्त्व के त्रिगुणात्मक स्वरूप के बारे में बताया गया है।
तीसरा भाग : आर्तव का काम से संबंध
पृष्ठ : ७६-१०१
१. अपने जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए नारी को मासिक-धर्म के कारणों
तथा प्रक्रिया के विषय में वैज्ञानिक जानकारी प्राप्त करनी चाहिए।
२. मासिक-धर्म की अवधि में नारी में शारीरिक तथा मानसिक परिवर्तन होते हैं;
अपना संतुलन बनाए रखने के लिए उसे पूरा प्रयत्न करना चाहिए।
३. काम की भावना, आकांक्षा तथा उत्तेजना में महीने के भिन्न-भिन्न भागों में
दोषों की भिन्नता के कारण अंतर होता है।
४. नर द्वारा यह भिन्नता अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए तथा स्थिति को कोमलता
से सँभालना चाहिए।
५. कहते हैं कि रजस्वला नारी को संसर्ग नहीं करना चाहिए, व्यक्तिगत रूप से
विचार करते हुए इस दिशा में सावधानी से काम लेना चाहिए।
६. नारी को चाहिए कि वह मासिक-धर्म के कष्टों से छुटकारा पाने के लिए बड़े
ध्यान से अपनी समस्याओं का अध्ययन कर उनके उपचार का प्रयत्न करे।
७. आर्तव में कोई भी परिवर्तन हो तो उसकी ओर शीघ्र ध्यान दे एवं बुद्धिमान
वैद्य की सलाह से उसका उपचार करे।
८. स्वस्थ नारी के रजःस्राव का रंग लाल होता है तथा वह दुर्गंध-रहित होता है
और दाग नहीं छोड़ता।
९. गर्भ-निरोध का उत्तरदायित्व नारी और नर-दोनों पर है और अगर नारी संतान
नहीं चाहती तो गर्भ-निरोध के उपाय के बिना संसर्ग न करे।
१०. प्रायः ४५ और ५५ वर्ष की आयु के बीच आर्तव बंद हो जाता है किंतु वात
दोष होने से यह इससे पहले भी समाप्त हो सकता है।
११. आर्तव बंद होने से नारी की काम-भावना में अंतर नहीं होता किंतु आर्तव
समाप्ति के पहले का काल स्वास्थ्य के प्रतिकूल होता है तथा इसके लिए उपचार और
चिकित्सा की आवश्यकता होती है।
नारी कामसूत्र के तीसरे भाग की इति होती है। इसमें आर्तव और काम के संबंध के
विषय पर प्रकाश डाला गया है।
चौथा भाग : गर्भ और प्रसव का काम से संबंध
पृष्ठ : १०२-१२९
१. गर्भावस्था तथा प्रसव, ये दोनों नारी-जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाएँ हैं तथा
इनका काम से सीधा संबंध मानना चाहिए।
२. गर्भधारण करने से पहले नारी को चाहिए कि वह स्वस्थ जीवन बिताए, योगाभ्यास
तथा औषधि द्वारा अपने गर्भाशय को निर्दोष, जोड़ों को लचीला और मन को सुदृढ़
बनाए।
३. गर्भवती होने पर नारी के शरीर में दो आत्माएँ निवास करती हैं, उसको चाहिए
कि अपने मनोबल से अपने अंदर विकसित हो रहे जीव से अनुरूपता बनाए रखे।
४. गर्भावस्था में शरीर के तीनों दोषों का अनुपात बदलता रहता है, अतः अपने
तथा बच्चे के भावी स्वास्थ्य के लिए उनका संतुलन बनाए रखने का अत्यधिक
प्रयत्न करना चाहिए।
५. गर्भवती नारी को अपने स्तनों का विशेष ध्यान रखना चाहिए क्योंकि वह उसके
नवजात शिशु के भोजन का एकमात्र स्रोत बनेंगे।
६. गर्भावस्था में नारी को अपनी कामेच्छा से अनभिज्ञ होकर अपना सारा बल एवं
ध्यान अपने भावी शिशु की ओर नहीं लगाना चाहिए।
७. नारी को चाहिए कि वह अपनी मानसिक शक्ति से अपने-आप को प्रसव के लिए तैयार
करे जोकि एक दर्द, विच्छेद तथा खुशी का अनुभव होता है।
८. बच्चे के जन्म के बाद नारी को अपना शारीरिक तथा मानसिक संतुलन बनाए रखने
का प्रयत्न करना चाहिए तथा भावना की दृष्टि से बच्चे के साथ ही व्यस्त नहीं
रहना चाहिए।
९. स्तनों में दूध का निष्कासन रीति सहित करना चाहिए; दूध की कमी बच्चे और
माँ, दोनों के लिए हानिकारक है।
१०. बच्चे के जन्म के कुछ समय पश्चात् नारी-नर को अपनी पारस्परिक मैत्री तथा
काम-भावना को सावधानीपूर्वक नया मोड़ देना चाहिए।
११. अपनी काम-शक्ति पुनः प्राप्त करने के लिए नारी को बच्चे के जन्म के
पश्चात् स्वास्थ्यवर्धक तथा बाजीकरण द्रव्यों का प्रयोग करना चाहिए।
नारी कामसूत्र के चौथे भाग की इति होती है। इसमें गर्भावस्था तथा प्रसव के
संबंध में प्रकाश डाला गया है तथा प्रसव के बाद के हितोपयोग के बारे में
बताया गया है।
पाँचवाँ भाग : नारी के तीन रूप
पृष्ठ : १३०-१४९
१. नारी के भिन्न-भिन्न रूपों की गहराई तथा शक्ति के सब पहलू समझ लिए जाने
चाहिए।
२. नारी के अस्तित्व के तीन रूप हैं-निर्माण, विनाश तथा विवेक।
३. तीनों गुणों के अनुपात की भिन्नता ही त्रिरूप का कारण है।
४. असंतुलित तथा दोषपूर्ण जीवन जीने की बाध्यता अनेक शारीरिक तथा मानसिक
रोगों का कारण बन जाती है।
५. उनसे उत्पन्न उग्रता तथा विनाश दूसरों के दुख तथा समाज में असंतुलन का
कारण बन जाते हैं।
६. सत्त्व के बल से नारी को अपनी शक्ति बढ़ानी चाहिए तथा दृढ़संकल्प रहना
चाहिए।
७. परिवार तथा समाज को नारी के तीनों रूपों के सभी स्तरों पर मान्यता देनी
चाहिए।
८. काम के स्तर पर भी नारी के तीनों रूपों की अभिव्यक्ति होनी महत्त्वपूर्ण
है।
९. असंतुलन की निरंतरता से कामेच्छा का अंत हो जाता है क्योंकि यह तो गुणों
से ही उत्पन्न होती है।
१०. अपनी स्थिति को सुधारने के लिए कोई समय-असमय नहीं होता, पर उसके लिए
भरपूर प्रयत्न तथा अनुशासन की आवश्यकता होती है।
११. परिस्थिति में परिवर्तन तथा नए उत्साह के साथ कार्यों में संलग्न हो जाने
से सफलता मिलती है।
इससे नारी कामसूत्र के पाँचवें भाग की, जोकि नारी के तीन रूपों का वर्णन करता
है, इति होती है।
छठा भाग : शारीरिक शक्ति का काम से संबंध
पृष्ठ : १५०-१६५
१. कामपूर्ति के लिए शरीर का हित प्राथमिक है क्योंकि यह इसका साधन है।
२. नियमित रूप से बाह्य और आंतरिक शुद्धि करने से स्फूर्ति प्राप्त होती है
तथा सुंदरता बढ़ती है।
३. त्रिदोष-संतुलन से ओज बढ़ता है तथा इससे काम-शक्ति बढ़ती है।
४. नारी और नर-दोनों के लिए शारीरिक शक्ति को बढ़ाना आवश्यक है।
५. नियमित रूप से शरीर की मालिश करने से त्वचा की विषय भोग-शक्ति बढ़ती
६. सुवासित शरीर आकर्षण का कारण बनता है।
७. इंद्रियशक्ति को बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिए।
८. शरीर के अंगों का लचीलापन लावण्य, स्वास्थ्य तथा संभोग क्षमता को बढ़ाता
है।
९. अभ्यास के द्वारा योगासन सिद्ध कर लेने चाहिए।
१०. प्राणायाम के अभ्यास से भिन्न-भिन्न स्तरों पर काम-शक्ति की वृद्धि होती
है।
११. विभिन्न स्तरों पर अनुरूपता महत्त्वपूर्ण है और इसमें शारीरिक साम्यता
सर्वप्रथम
नारी कामसूत्र के छठे भाग की यहाँ इति होती है। इसमें शारीरिक शक्ति का काम
से संबंध बताया गया है।
सातवाँ भाग : मानसिक शक्ति का काम से संबंध
पृष्ठ : १६६-१८१
१. काम की गहन अनुभूति के लिए मानसिक शक्ति को बढ़ाना चाहिए।
२. मैथुन के समय मानसिक शक्ति दूसरे के मन तथा शरीर के भाव को समझने में
लगानी चाहिए।
३. अवरुद्ध मनःस्थिति से काम-भावना का भी अवरोध होता है।
४. नारी-नर में एक-दूसरे के लिए एकत्व की भावना होनी चाहिए।
५. चित्त की एकाग्रता से तेज और आकर्षण बढ़ता है।
६. मनोबल के उपयोग से काम-शक्ति को कल्पना द्वारा व्यर्थ नहीं होने देना
चाहिए।
७. शंका, भय और संशय कामपूर्ति में बाधक है तथा मनोशक्ति से इनका शमन करना
चाहिए।
८. नित्यता का भाव एक भ्रम है जो मन में नहीं रखना चाहिए।
९. वर्तमान क्षण में अपने पूरे मनोबल से लीन होने का अभ्यास करना चाहिए।
१०. सहभोगी के चुनाव के समय उसकी शारीरिक तथा मानसिक अनुरूपता पर ध्यान देना
आवश्यक है।
११. काम संबंधों द्वारा बहुदर्शन अनुभूति प्राप्त करने के लिए दोनों
सहभोगियों में आदर, सहानुभूति, अनुकंपा तथा सद्भाव होना चाहिए।
नारी कामसूत्र के सातवें भाग की इति होती है। इसमें मानसिक शक्ति का काम के
साथ संबंध बताया गया है।
आठवाँ भाग : वातावरण तथा रीतियों का काम से संबंध
पृष्ठ : १८२-१९९
१. सत्त्व और तमस की अधिकता होने से नारियाँ अपनी काम-भावना को मंद गति एवं
सौम्यता से अभिव्यक्त करती हैं।
२. रजस की अधिकता होने के कारण नर का स्वभाव इससे विपरीत होता है।
३. काम में एक लय होने तथा उसके प्रबल अनुभव के लिए प्रारंभ में धैर्य तथा
मंथर गति आवश्यक है।
४. उपयुक्त वातावरण से लक्ष्यप्राप्ति में सरलता होती है।
५. प्राकृतिक दृश्यों तथा अन्य आनंदवर्धक अनुभवों से नारी आश्वस्त तथा निःशंक
हो जाती है तथा काम-भाव प्रबल रूप से प्रकट करती है।
६. इससे उसका रचनात्मक पक्ष प्रोत्साहित होता है तथा वह क्रियाशील और कुशल हो
जाती है।
७. अपने रचनात्मक भावोदय के कारण वह नर का सत्त्व उत्तेजित करती है जिससे
उसकी ग्रहण-शक्ति बढ़ती है।
८. इससे नारी की भावना और भी प्रबल हो जाती है तथा उसकी प्रभूत शक्ति
प्रवाहित होने लगती है।
९. विविध रीतियों से यह अनुभूति दीर्घकालिक की जा सकती है।
१०. योग की विधियों से कुंडलिनी शक्ति भी जाग्रत की जा सकती है।
११. मनुष्य की अथाह सृजन शक्ति के प्रयोग से सहभोगियों को अपनी व्यक्तिगत
रीतियों का निर्माण करना चाहिए।
नारी कामसूत्र के आठवें भाग की यहाँ इति होती है। इसमें वातावरण तथा रीतियों
का काम से संबंध बताया गया है।
नवाँ भाग : काम में विविधता तथा लय
पृष्ठ : २००-२२३
१. सभी इंद्रियों की तृप्ति एवं काम-सुख के लिए नारी और नर-दोनों की साधना
तथा श्रम आवश्यक है।
२. यद्यपि कामेच्छा तथा काम-सुख स्वाभाविक हैं किंतु मनुष्य अपनी बुद्धि और
बल से इसमें वृद्धि या ह्रास कर सकता है।
३. सब सुखों में काम-सुख सर्वोपरि मानना चाहिए तथा कल्पना से ही भोग कर उसे
व्यर्थ नहीं करना चाहिए।
४. काम में लय तथा विविधता लाने के लिए शारीरिक तथा मानसिक शक्ति बढ़ाने के
पूर्व वर्णित उपायों का प्रयोग करना चाहिए।
५. कुछ लोग भ्रमवश ये सोचते हैं कि कामोत्तेजना शरीर के कुछ विशेष अंगों तक
ही सीमित है।
६. योगाभ्यास आदि से विभिन्न अंगों को क्रियाशील बनाना चाहिए तथा संभोग के
समय इनका उपयोग करना चाहिए।
७. काम-ज्ञान केवल पुस्तकों से एवं तर्क से नहीं प्राप्त किया जा सकता।
८. काम में विविधता के अनुभव के लिए नए ढंग तथा उपाय अपनाने आवश्यक है।
९. नारी और नर द्वारा लंबे समय तक किए गए पारस्परिक सहयोग एवं प्रयत्न से ही
काम का संपूर्ण अनुभव होता है तथा काम-ज्ञान प्राप्त होता है।
१०. इसके लिए सहज, स्वाभाविक होना आवश्यक है।
११. काम में सहज स्वाभाविकता तभी आती है जब बाकी जीवन में भी ऐसा ही हो।
नारी कामसूत्र के नवें भाग की यहाँ इति होती है। इसमें काम में विविधता तथा
लय का वर्णन किया गया है।
दसवाँ भाग : कायाकल्प तथा बाजीकरण विधियाँ
पृष्ठ : २२४-२४५
१. विश्व में प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है तथा मनुष्य का शरीर काल से
प्रतिबद्ध है।
२. बुद्धिमान व्यक्ति को सुखी जीवन के लिए विधिपूर्वक कायाकल्प करना चाहिए।
३. कायाकल्प के लिए नियमित रूप से पंचकर्म क्रियाएँ, योगाभ्यास, बलवर्धक
द्रव्यों का उपयोग इत्यादि करना चाहिए।
४. कायाकल्प मानसिक स्तर पर भी आवश्यक है।
५. इन सब उपचारों से सुख और पूर्णता का अनुभव होता है।
६. काम में शारीरिक परिपूर्णता तथा गहन अनुभव के लिए यह उपचार आवश्यक है।
७. बाजीकरण का ठीक अर्थ तथा महत्त्व समझ लेना चाहिए।
८. देश, काल और आवश्यकता के अनुसार ही बाजीकरण पदार्थों का सेवन करना चाहिए।
९. बाजीकरण तथा कामसादक पदार्थ काम-जीवन में संतुलन लाने के लिए प्रयोग किए
जाने चाहिए।
१०. कायाकल्प में प्रयुक्त होने वाले पदार्थ ओजस को बढ़ाने के कारण बाजीकरण
भी हो सकते हैं।
११. बाजीकरण पदार्थों के प्रयोग से पहले जो कुछ कामसादक हो उसको दूर करना
चाहिए।
नारी कामसूत्र के दसवें भाग की यहाँ इति होती है। इसमें कायाकल्प और बाजीकरण
विधियों पर प्रकाश डाला गया है।
ग्यारहवाँ भाग : काम का आत्मज्ञान से संबंध
पृष्ठ : २४६-२६१
१. काम में इंद्रियाँ बहुत गहरे रूप से अपने विषयों में आसक्त होती हैं।
२. इस आसक्ति के बाद किंचित आनंद की अनुभूति होती है जिसमें आत्मभाव का अनुभव
होता है।
३. मानसिक प्रयत्न द्वारा इंद्रियों के चरम अनुभव से अतीत होकर मनुष्य को
आत्मज्ञान का अनुभव होता है।
४. प्रयत्न तथा अभ्यास से आत्मानुभूति द्वारा प्राप्त आनंद का अनुभव बढ़ाया
जा सकता है।
५. बाह्य रूप तथा विचार आदि की भिन्नता होने पर भी हमारे अंदर का जीव या
आत्मा, जो जीवन-शक्ति का कारण है, सबमें एक ही है तथा अपरिवर्तनीय
और अविनाशी है।
६. काम द्वारा आत्मज्ञान का अनुभव करने के लिए इंद्रियों की पूरी आसक्ति
आवश्यक है।
७. काम द्वारा आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए चित्त की एकाग्रता, शरीर का
लचीलापन तथा प्राणायाम का अभ्यास आवश्यक है।
८. इंद्रियों से अतीत अनुभव करने का ध्येय मन में रखकर काम से इंद्रियों की
आसक्ति बढ़ानी चाहिए।
९. इंद्रियों से परे का अनुभव आत्मदर्शन होता है।
१०. आत्मदर्शन से अनंतता का अनुभव होता है।
११. आत्मज्ञान से प्राप्त असीमित शक्ति का प्रयोग मानव-कल्याण के लिए करना
चाहिए।
नारी कामसूत्र के अंतिम भाग की इति होती है। इसमें काम द्वारा आत्मज्ञान
प्राप्त करने के विषय पर प्रकाश डाला गया है।
प्रत्येक भाग में ग्यारह सूत्र वाली तथा ग्यारह भागों में संपूर्ण यह पुस्तक
नारी-नर दोनों के लिए कल्याणकारी हो तथा जगत में संतुलन और शांति लाए।
परिशिष्ट
पृष्ठ : २६४-३३६
परिशिष्ट : एक नारी कामसूत्र का दार्शनिक तथा सैद्धांतिक आधार २६५
परिशिष्ट : दो योगाभ्यास तथा कामाभिव्यक्ति प्राणायाम, योगाभ्यास तथा आसन,
काम-शक्ति को दिशा देना २८१
परिशिष्ट : तीन स्वास्थ्य संबंधी कुछ निर्देश; कायाकल्प तथा बाजीकरण ३१०
कष्टप्रद रजोधर्म तथा अन्य संबंधित विकार, गर्भाशय का कायाकल्प, योनि की
देखभाल, गर्भावस्था, रजोनिवृत्ति की समस्याएँ, कायाकल्प द्रव्य, बाजीकरण
द्रव्य।
उपसंहार ३३७