उपन्यास >> महाभोज महाभोजमन्नू भंडारी
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महाभोज विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है
'अरे यों तो धोती के नीचे सभी नंगे और ससुरी इस राजनीति में तो धोती के बाहर
भी नंगे। पर दा साहब एकदम अपवाद ? धोती के नीचे भी धोती ही निकलेगी इस गीता
बाँचनेवाले के। खाल खींचने पर ही सामने आ सकता है इनका नंगापन।'
सारे बदन को थरथरा देनेवाला एक सम्मिलित ठहाका।
'चुनाव जीत गए तो बहुत शानदार पार्टी लेंगे आपकी गुलाबी बागवाली कोठी में।
'धत्तेरे की, तुम जैसा आदमी अपनी औक़ात से ऊपर उठ ही नहीं सकता। माँगी भी तो
पार्टी !'
जीतने के छः महीने के अंदर-अंदर अपना मंत्रिमंडल बनाना होगा-सुकुल बाबू यह
चुनौती है आपके लिए।'
‘पोर्टफोलियोवाले मुख्यमंत्री आप और बिना पोर्टफोलियोवाले बिहारी भाई।'
और फिर धीरे-धीरे तरंग में आकर सब लोग अपनी-अपनी संभावित उपलब्धियों के ख्वाब
देखने लगे।
शहर के अलग-अलग भागों में, अलग-अलग ढंग से जश्न मनाती मौज-मस्ती में डूबी इस
विशाल बिरादरी से कटे हए तीन लोग-सक्सेना, लोचन बाबू और बिंदा-पूरी तरह
उपेक्षित, परित्यक्त और एक तरफ़ फेंके हुए !
अपने सस्पेंशन का ऑर्डर पढ़ने के बाद भी जैसे कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई
सक्सेना के मन में-न दुख की, न पश्चात्ताप की ! सामने बच्चों को खाना परोसती
हुई पत्नी पर नज़र पड़ी। क्या कहेंगे उससे और कैसे लेगी वह इस खबर को ?
क्षण-भर के लिए जाने कैसी करुणा उमड़ आई पत्नी के लिए मन में, पर थोड़ी देर
में ही रुक्मा का चेहरा उभर आया ! तीन दिन तक वह बिंदा को लिए-लिए हरिजन-टोला
और टिटहरी गाँव में घूमते रहे थे तो रुक्मा ने हाथ जोड़कर कहा था
“इन्हें अपने साथ इतना मत रखो साहेबजी, इन्हें ज़रूर कोई कुछ कर-करा देगा !
फिर क्या होगा...इस बच्चे का क्या होगा ?'
और इस पर बिंदा की दहाड़ती हुई घुड़की- 'चुप कर ! तू सोचती है, तेरे पीछे मैं
ज़नख़ा होकर बैठ जाऊँगा ?' 'बिंदा इज द रियल कल्प्रिट।'
'ओह, नो सर ! यह हो नहीं सकता। यह सरासर गलत है। मैंने इस केस का रेशा-रेशा
उधेड़कर देखा है। मैं...।'
पर डी.आई.जी. के पास पूरी रिपोर्ट तैयार है। अकाट्य तर्कों से लैस, ठोस
प्रमाणों से पुष्ट।
'बिसू के जेल से आने के पहले बिंदा का पूरा व्यवहार एक सीधेसरल सामान्य आदमी
का व्यवहार था, पर बिसू से परिचय के बाद एक खास तरह की तुर्शी और तेजी आ गई
उसके मिज़ाज में। अपनी पत्नी के प्रेमी को देखकर होता ही है ऐसा। कोई बरदाश्त
नहीं कर सकता; बिंदा जैसा आदमी तो कभी नहीं।
मरने वाले दिन बिसू ने अपना अंतिम भोजन बिंदा के घर किया। हीरा के बयान से यह
साफ़ है कि शाम का खाना उसने नहीं खाया। डॉक्टरी रिपोर्ट में जिस ज़हर की बात
है, यह दस-बारह घंटे बाद असर करनेवाला है। वह ज़हर इस खाने के साथ ही पहुँचा
है बिसू के पेट में। खाना खिलाते ही बिंदा शहर चला गया और दूसरे दिन लौटा।
जाने से पहले बिंदा ने झगड़े की बात खुद स्वीकार की। बिंदा ने समझ लिया कि
अभी जैसा माहौल है उसमें आसानी से...।'
और फिर सक्सेना के लिए शब्दों के अर्थ ही गायब हो गए ! सिर-पैर, अर्थ,
तुक-सभी !
‘पागलखाने और थाने में कोई फ़र्क रहने दिया है आप लोगों ने ? यहाँ जो कुछ भी
होता है उसका कोई सिर-पैर, तुक... !' बिंदा की आवाज़ और उसको चीरती हुई
डी.आई.जी. की आवाज़, ‘बिंदा ने ही मारा है बिसू को।'
बिसू मरा नहीं है, साहब ! सबके लिए वह मर चुका है, पर मैं तो अपने भीतर उसे
महसूस करता हूँ। मर तो वह सकता ही नहीं है,
साहब ! आप देखिए, आगजनी के असली मजरिम को जब तक...।'
“और आप इस बिंदा के साथ पार्टी बनाकर आगजनी की घटना के प्रमाण जुटा रहे थे ?
बिसू के हत्यारे से ध्यान हटाने के लिए वह आगजनी की बात उछाल रहा था और
आप...एक सीनियर एस.पी. होकर उसके हाथ का मोहरा बन गए ? सिम्पली...।'
‘सरासर झूठ है यह।' ऑफ़िस की मर्यादा और अनुशासन की सारी सीमाओं को तोड़कर एक
तरह से चीख पड़े थे सक्सेना। उसके बाद उन्होंने क्या-क्या कहा, उन्हें कुछ
याद नहीं। सिर्फ एक अहसास था कि जैसे वे नहीं, उनके भीतर से कोई और बोले चला
जा रहा था।
लेकिन अब ?
आज तक वे भीतरी उबाल और बाहरी दबाव के बीच टुकड़े-टुकड़े होकर हमेशा घुटने ही
टेकते आए हैं। हर बार दिनेश को लड़ाई के मैदान में ले तो ज़रूर गए हैं, पर
जैसे ही गोलियाँ चली हैं, उसे वहीं छोड़कर भाग आए हैं-अकेला, निहत्था। वह
गोलियों की बौछार से लहूलुहान होता रहा है और ये खुद एक असह्य अपराध-बोध से।
'नहीं, और नहीं।' अब तो वे चाहें, तो भी शायद ऐसा नहीं कर सकते...
मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिए गए लोचन भैया ने पार्टी से भी त्यागपत्र दे
दिया-स्वेच्छा से। लेकिन हज़ार-हज़ार प्रश्नों के सलीब पर टँगा हुआ उनका मन
हर पल उन्हें मथता रहता है। अपने आस-पास और चारों तरफ़ जो कुछ हो रहा है, उसे
आँख मूंदकर स्वीकारते रहें-एकदम उदासीन और तटस्थ होकर ? रह सकता है कोई भी
जीवित आदमी इस तरह ? नहीं रह सकते थे, तभी तो एक बहुत बड़ी क्रांति के एक
छोटे-से वाहक बने थे। पर कैसी हुई यह क्रांति ? कहीं से कुछ भी तो नहीं बदला
! अब कहाँ से होगी दूसरी क्रांति और कौन करेगा उस क्रांति को जो सब कुछ बदल
दे ? आज तो परिवर्तन का नाम लेनवाले की आवाज़ घोंट दी जाती है-उसे काटकर फेंक
दिया जाता है। एक तरफ़ फिके गिने-चुने आदमियों के घुटे गले और सँधी आवाजों से
क्रांति का स्वर फूट सकेगा अब कभी ?
'एकला चलो रे' गीत कितने क़दम चला पाएगा किसी को भी ?
बिसू के जिस नाम को लेकर एक महीने पहले यहाँ से वहाँ तक तूफ़ान मच गया था, अब
वही नाम सिमटकर या तो हीरा की आँखों से बहते हुए आँसुओं में रह गया है या
बिंदा की आँखों से बरसते हुए अंगारों में।
पुलिस की बेंतों और ठोकरों की बौछार के बीच बिंदा कह रहा है, 'मैंने बिस को
नहीं मारा...मैं बिस को मार ही नहीं सकता। मुझे तो उसकी आखिरी इच्छा पूरी
करनी है। मैं उसे पूरी करके ही रहूँगा...चाहे जैसे भी हो, जो भी हो...।'
'आखिरी इच्छा पूरी करेगा ? ले कर...ले कर...!' और पुलिसवालों की मार की
रफ़्तार और बढ़ जाती है। लेकिन बिंदा का चिल्लाना बंद नहीं होता। आवेश में
थरथराता हुआ चीखता है- ‘मार डालो, मार डालो। तुमने बिसू को मार डाला, मुझे भी
मार डालो, लेकिन देखना बिसू की इच्छा को कोई नहीं मार सकता।'
नहीं मार सकता...ले देख !' और फिर बिंदा के शरीर को रुई की तरह धुनकर वे उसे
बे-दम कर देते हैं। आवेश उसका सिसकियों में बदल जाता है और गर्जना कराह में।
रेल के सेकंड-क्लास के डिब्बे में सक्सेना की बगल में बैठी हुई रुक्मा घुटनों
में सिर दिए सिसक रही है और सक्सेना के अपने मन में जैसे धीरे-धीरे कोई कराह
रहा है। गोदी में रखे ब्रीफकेस में आगजनी के. बिसू की मौत के प्रमाणों से भरी
फ़ाइलें रखी हैं।
इतना समझाने के बाद भी मुसाफ़िरों से भरे डिब्बे में रुक्मा का इस तरह रोना
उन्हें अच्छा नहीं लग रहा था। थोड़ी सख्त आवाज़ में कहा, 'चुप करो, रुक्मा !'
चौंककर रुक्मा ने झटके से सिर उठाया और बड़ी अबूझ-सी नज़रों से सक्सेना को
देखती रही-इतना परिचित स्वर !
मगर वह यहाँ कहाँ ? वह तो जेल में है।
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