लोगों की राय

उपन्यास >> महाभोज

महाभोज

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13538
आईएसबीएन :9788171198399

Like this Hindi book 0

महाभोज विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है


और फिर दोनों परम तृप्त और प्रसन्न भाव से बनारस का लँगड़ा और केसरिया संदेश खाते रहे।

आज हरिजन-टोला से हरिजनों के एक दल के मुखिया ने आकर पांडेजी को आश्वासन दिया है कि उनके वोट लखन को ही मिलेंगे, तभी से सभी लोग पीछे पड़े हुए हैं लखन के कि इसी बात पर कुछ हो जाए। लेकिन लखन है कि साँस ही नहीं ले रहा इस पर। जोरावर ने धिक्कारते हुए कहा-

'अरे यह सूम कुछ नहीं करेगा। ठीक है, हमारी चौपाल में होगा आज का खाना-पीना।' बिंदा की गिरफ़्तारी और सक्सेना के तबादले की खबर ने निश्चित ही नहीं, बेहद उत्साहित कर दिया है जोरावर को।

'भेजे में गरमी भर दी झूठ-मूठ की, वरना हम क्या दा साहब का साथ छोड़ सकते हैं कभी ?' अपनी कही बात का विश्वास दिलाने के लिए ही तरह-तरह की फ़ितरत में रहता है आजकल।

शाम को दस-बारह लोगों का जमावड़ा जम गया चौपाल में। स्कॉच की बोतल खुली है। शहर से स्पेशल सींक कबाब और पनीर के पकौड़े आए हैं। दा साहब के संरक्षण में पला लखनसिंह पीने का शौक़ नहीं रखता। कभी-कभी चोरी-छिपे एक-आध पैग चढ़ा ले तो यह दूसरी बात है, पर पांडेजी की तो यह दैनिक आवश्यकता है। शाम को दो पैग के बिना न सारे दिन की थकान मिटती है, न ही अगले दिन के लिए चुस्ती आती है। और जोरावर, विलायती चाहे कितनी ही पी ले...जब तक थोड़ी देशी नहीं ले लेता, तृप्ति नहीं होती !

लखन की सुस्ती और ढीला-ढालापन देखकर फटकारा पांडेजी ने, 'तुम्हारी तरफ़ की दावत जोरावर कर रहा है; अब क्या है जो मुँह लटका रखा है ?' लेकिन लखन की उदासी है कि उँट नहीं रही। इधर बहुत उत्साह से काम कर रहा था लखन, लेकिन जिस दिन से बिंदा पकड़ा गया, उस दिन से पता नहीं क्या हो गया है उसे ! गिरफ़्तारी के समय वह स्वयं उपस्थित था, और शहर के थाने तक भी साथ गया था। बिंदा का बेशुमार चिल्लाना और अंगारे की तरह धधकती हुई उसकी आँखें ! भूल ही नहीं पा रहा है वह उन आँखों को, बल्कि अब तो हालत यह हो गई है कि शहर के हर आदमी के चेहरे पर उसे वे ही आँखें दिखाई देने लगी हैं। एक अजीब-सी दहशत समा गई है उसके मन में। शुरू से दा साहब के साथ रहने के बावजूद राजनीति में इतना पगा नहीं है कि ऐसी बातों का कोई असर ही न हो।

जोरावर ने जब सुना तो बड़ी ज़ोर से हँसा, ‘बड़ा पिद्दी का दिल है इस लखन का जो बिंदा जैसे थर्ड-रेट गुंडे से डर गया। अगर किसी खाँटी से पाला पड़ गया तो ये ससुरा तो हगने-मूतने लगेगा।'

पांडेजी विषय को खींचकर असली मुद्दे पर ले आए, 'बिंदा की गिरफ़्तारी से पाँच प्रतिशत वोट तो कटे ही समझो। विरोधी लोग खूब प्रचार कर रहे हैं इसका भी। यह अच्छा हुआ कि रैली के एक दिन बाद हुई गिरफ़्तारी। फिर भी पाँच प्रतिशत तो गए।

'तुम फिकर नहीं करो पांडेजी, जोरावर के रहते। हमें मालूम है, सुकुल बाबू को वोट देनेवाले कौन हैं ? तुम क्या सोचते हो, हमारे रहते बूथ पर पहुँच पाएँगे वे लोग ? जोरावर के राज में वे ही वोट दे पाएँगे जिन्हें जोरावर चाहेगा।'

‘अब यह तो चुनाव का परिणाम बताएगा।' इन बातों से पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो पाते पांडेजी।

'चुनाव का परिणाम क्या बताएगा, हम बताते हैं। समझ लो, जीत गए चुनाव।' और हाथ के एक ज़ोरदार झटके से उसने विजय की घोषणा कर दी।

'इस जशन को जीत का जशन ही समझो।' और जोरावर ने फिर सबके गिलास भर दिए।

रात एक बजे खाना लगा, उसके पहले तक लोग जशन के मूड में पीते ही रहे।

लॉन में कनात और शामियाना लगा है और पेड़ों और पौधों पर रंग-बिरंगे फूल खिले हैं। श्री और श्रीमती सिन्हा बड़े उत्साह और आत्मीयता से स्वागत कर रहे हैं आनेवालों का। बड़े-बड़े सरकारी अफ़सर, व्यापारी, वकील, डॉक्टर-कहना चाहिए-क्रीम ऑफ़ द टाउनजुटा हुआ है इस समय सिन्हा साहब के लॉन में। वर्दीधारी बैरे ट्रे में साफ़्ट ड्रिंक्स लेकर घूम रहे हैं। यहाँ से वहाँ तक फैली, सजी-सँवरी मोटी-छरहरी महिलाएँ ही उपकृत कर रही हैं इन लोगों को ! पुरुषों की भीड़ तो टुकड़ों-टुकड़ों में ऊपर-नीचे आ-जा रही है। यों महिलाओं के लिए भी वह क्षेत्र वर्जित क़तई नहीं, पर कम ही है उनकी संख्या वहाँ। ऊपर के कमरे में बाक़ायदा बार बना हुआ है। शीवाज़-रीगल, ब्लैक-डॉग से लेकर देशी रम तक कम-से-कम पच्चीस क़िस्म की शराबें रखी हुई हैं वहाँ और सिन्हा साहब के दोनों पुत्र बड़ी शालीनता और मुस्तैदी के साथ सबको अपनी-अपनी पसंद का ड्रिंक ढाल-ढालकर दे रहे हैं। सिन्हा साहब शिष्टता के नाते हर किसी के पास दो-दो मिनट जाकर बधाई के बोझ से बोझिल होते जा रहे हैं। श्रीमती सिन्हा बिना किसी काम के ही अपने भारी-भरकम शरीर को बड़ी फुर्ती से इधर-उधर घुमाकर ऐसी व्यस्तता का आभास दे रही हैं कि लगता है जैसे इनके चलने से ही पार्टी चल रही है।

तभी इन्कम टैक्स कमिश्नर वर्मा-जो उम्र में कुछ बड़े होने के बावजूद अपने को सिन्हा का लँगोटिया यार कहते हैं-गेट से ही गुहारते हुए घुसे, 'अरे सिन्हा, मुबारक हो भाई,' और बड़ी गर्मजोशी से सिन्हा के गले मिले। फिर बड़ी शराफ़त-भरी मुसकान के साथ कहा, 'यार, बड़ी रौनकें लगा रखी हैं ? लगता है, बिना डिज़र्व किए प्रमोशन मिल गया है तुझे...वरना रूटीन में ऐसा क्या रखा है ?'

कैसी बात करते हैं भाई साहब, यह पार्टी खाली प्रमोशन की थोड़े है कोई !' कुछ थिरकते हुए श्रीमती सिन्हा ने कहा तो चेहरे पर अपार विस्मय लाकर वर्मा बोले, 'तो और क्या हो गया तुम्हारे घर में ? दस दिन को मैं बाहर गया, इस बीच भाई लोगों ने पार्टी का मौक़ा भी पैदा कर लिया !' फिर बड़े नाटकीय अंदाज़ में पूछा, 'बात क्या हो गई ?'

'अपनी कैद की पच्चीसवीं वर्षगाँठ मना रहे हैं।' लाला दीनदयाल ने अपनी तरफ़ से भारी मज़ाक़ किया।

'ओ हो, यह बात है क्या...तब तो ईनाम के तौर पर महीने-दो महीने की छुट्टी दिलवा देनी चाहिए सिन्हा को इस कैद से। क्यों, भाभीजी ?'

'कमाल करते हैं आप भी, भाई साहब,' ठुमकते हुए मिसिज़ सिन्हा बोलीं, 'कैद तो मैंने पच्चीस साल तक काटी है। पुलिसवाले के साथ रहना किसी सज़ा से कम होता है ? ईनाम तो मुझे मिलना चाहिए।'

'ठीक है तो ईनाम के तौर पर आप छुट्टी ले लीजिए, सिन्हा को मैं अपने साथ ले जाता हूँ।'

एक सम्मिलित ठहाका !

इसके बाद छोटे-छोटे दलों में बँटकर लोग आपस में बातचीत करने लगे। हाथों में क़ीमती गिलास थामे हुए कोई दल देश में बढ़ते भ्रष्टाचार पर चिंता कर रहा था, तो कोई फैलती हुई अव्यवस्था पर। किसी के सोच और रोष का विषय था-देश का तेजी से गिरता हुआ नैतिक स्तर, तो किसी को दिन-ब-दिन बढ़ते हुए मूल्य परेशान कर रहे थे। रोगन-पॉलिश से चमकती हुईं, लक़दक़ कपड़ों में लिपटी स्त्रियाँ पुरुषों की हाँ में हाँ मिला रही थीं।

लेकिन किसी के दिमाग में एक क्षण के लिए भी यह बात न आई कि डी.आई.जी. की हैसियत का आदमी इतनी क़ीमती शराबें कहाँ से पिला सकता है, कैसे पिला सकता है ? किसी बड़े जौहरी की दुकान के शो-केस की शोभा बढ़ानेवाला कम-से-कम बीस-पच्चीस हजार का हीरों का सेट श्रीमती सिन्हा के शरीर की शोभा बढ़ाने कैसे आ पहुँचा ? कहाँ से आ पहुँचा ?

नहीं, ये बातें गिने-चुने मूर्खों को छोड़कर, अब किसी को परेशान नहीं करतीं। परेशान करना तो दूर, क्षण-भर के लिए भी किसी के दिमाग में नहीं आतीं। कुछ बातें, कुछ तथ्य, कुछ स्थितियाँ प्रचलित होते-होते सबके बीच इस तरह स्वीकृति पा लेती हैं कि वे फिर लोगों की सोच की सीमा में रहती ही नहीं।

खाने की पुकार के साथ ही लोग दो टेबलों में बँट गए-सामिष, निरामिष। गरमा-गरम खाने की महक, प्लेटों-चम्मचों की खनखनाहट, बातों...क़हक़हों...और ठहाकों से सारा लॉन गुलज़ार हो उठा। हलक़ से उतरकर पेट में गई हुई शराब अब दिमागों पर छा गई थी और सारी दुनिया बड़ी हसीन...बड़ी रंगीन...बड़ी खुशगवार हो उठी थी।

दत्ता बाबू के मन में दा साहब की शाबाशी से खुशी और जेब में काग़ज़ के डबल कोटे का परमिट पड़ा हुआ है और वे ज़मीन से डेढ़ इंच ऊपर महसूस कर रहे हैं अपने को। हलवाई के यहाँ से दस सेर ताज़ा बूंदी के लड्डू बँधवाए। आज प्रेस में मिठाई बाँटेंगे सबको और अगर हो सका तो पंद्रह-पंद्रह दिन के बोनस की घोषणा भी कर देंगे।

प्रेस पहुँचकर भवानी के सामने काग़ज़ का परमिट रखते हुए कहा, 'लो, अब तो हुआ विश्वास। कहते थे न कि इन मिनिस्टरों की ज़बानी तारीफ़ का कोई मतलब नहीं ! अब बोलो, है मतलब या नहीं ?'

मिल गया परमिट ?' एकदम उछल पड़ा भवानी, 'वाह, काग़ज़-संकट के इस समय में कोटा डबल हो जाए तो समझो कि पौ-बारह।'

'पिछले पंद्रह दिनों में नौ विज्ञापन लाकर दिए तुम्हें, आज चार की बात और पक्की करके आया हूँ। रत्ती ने फ़ोन कर दिया था विकास एडवर्टाइजिंग कंपनी को, बस चार विज्ञापनों की जगह रिज़र्व करवा ली। आइटम बदलते रहेंगे हर महीने। कल नरोत्तम को भेजकर इस महीने के ब्लॉक्स मँगवा लेना।'

'जियो...जियो !' पूरे उत्साह में चिल्लाया भवानी।

'....यह तो हो गया, अब देश में क्रांति लाओ 'मशाल' के जरिए, नहीं तो यह जीना मरने में बदल जाएगा।' दत्ता बाबू ने कहा।

'तुम फ़िकर मत करो,' और भवानी ने कुछ ऐसी तत्परता से दराज़ खोली, मानो दराज़ से ही क्रांति निकाल लाएँगे ! पर निकाला केवल एक सफ़ेद कागज़ और उसे सामने फैलाकर क़लम खोलते हुए बोले, 'देश में क्रांति जब आएगी तब आएगी...और कमबख्त कभी आएगी भी या नहीं, भगवान जाने, पर 'मशाल' के दफ़्तर और मशाल के संपादक, सह-संपादक की जिंदगी में तो क्रांति दरवाजे पर आकर खड़ी हो गई समझो। अभी सारा हिसाव समझाकर तुम्हें क्रांति की झलक भी दिखा देता हूँ।'

‘ऐसी की तैसी तुम्हारे हिसाब की।' कागज़ सरकाकर एक ओर कर दिया दत्ता बाबू ने, और बोले-

‘पहले मिठाई बाँटो। लड्डू लाया हूँ मैं, और सोचता हूँ कि पंद्रह-पंद्रह दिन के बोनस की घोषणा भी कर दूं।'

‘अभी केवल मिठाई बाँट दो। बोनस की बात अगले महीने के लिए रहने दो-स्टेप बाई स्टेप। क्रांति को ऐसी रफ़्तार से चलने दो कि हमारे लिए करना संभव हो और बाक़ी लोगों के लिए पचाना। समझे ?'

थोडी ही देर में प्रेस के सारे लोग दफ़्तर के बाहरवाले बरामदे में जमा हो गए। सबको लड्डू दिए गए और फिर चाय और गरम समोसे खिलाए गए। निहायत ही अनौपचारिक-से इस जश्न में दत्ता बाबू ने एक छोटा-सा औपचारिक भाषण दिया-सबके परिश्रम और सहयोग की प्रशंसा करते हुए अख़बार के दिनों-दिन बढ़ते महत्त्व और बढ़ती हुई ज़िम्मेदारी की बात बताई।

सब लोग चले गए तो भवानी ने चुटकी लेते हुए कहा, 'यार दत्ता, तुझे मालूम नहीं शायद, पर इस तरह की भाषणबाजी करते हुए तुम काफ़ी बड़े चुग़द लगते हो। दा साहब के पास से आने के बाद दो-चार दिनों तक यह चुगदपना छाया रहता है तुम पर।' और खुद ही खी...खी करके हँसने लगा।

शाम को भवानी बोला, 'अब ज़रा अपने रोजमर्रा के रूटीन में भी क्रांति आ जाए आज। नरोत्तम को भी बुलवा लेते। लेकिन घर में चलकर बिलकुल नहीं बैठेंगे-किसी बढ़िया जगह !'

और जब वे प्रेस से निकले तो बिना पिए हुए ही हलका-हलका सुरूर छाया हुआ था उन पर।

सुकुल बाबू की शानदार रैली के उपलक्ष्य में आयोजित एक जश्न।

निःसंदेह नया कीर्तिमान स्थापित किया है इस रैली ने। पिछले महीने से केवल दा साहब का स्तुतिगान करनेवाले 'मशाल' ने भी स्वीकार किया कि इस प्रांत के इतिहास में आज तक तो ऐसी रैली कभी हुई नहीं। एक लाख से ऊपर ही आदमी जुटे थे वहाँ। देखनेवाला दृश्य था-बिसू की मौत और हरिजनों पर होनेवाले अत्याचारों के विरोध में सैकड़ों पोस्टर लिए थे हज़ारों लोग। सुकुल बाबू का कहना था कि एकदम बयालीसवाला समाँ उपस्थित हो गया था। सत्तारूढ़ पार्टी के लोग तो दीदे फाड़-फाड़कर देखते ही रह गए। सबको जैसे अपनी असली तसवीर दीखने लगी थी उसमें। सहमते मन से सब अपनी-अपनी कुर्सियों के पाए सहलाने लगे !

रैली की इस अभूतपूर्व सफलता पर गद्गद और भीतर तक कृतज्ञ होकर बिहारी भाई को बाँहों में भर लिया था सुकुल बाबू ने। इसमें संदेह नहीं कि इसका सारा श्रेय बिहारी भाई को ही है। पिछले दस-बारह दिन से तो रात-दिन एक कर दिया था बिहारी भाई ने। कुछ घंटों को भी मुश्किल से सोए होंगे वह। पैसा तो ज़रूर पानी की तरह बहाया, पर अपने कार्यकर्ताओं का दूर-दूर तक और कोने-कोने में ऐसा जाल बिछाया कि रैली वाले दिन खेत-मजदूर और हरिजनों के किसी भी घर में आदमी तो दूर, चिड़िया का बच्चा तक नहीं रहने पाया था।

'इस रैली को तो ज़ोरदार ढंग से सेलिब्रेट करना पड़ेगा, सुकुल बाबू !' हर समय सेलिब्रेशन का मौक़ा ढूँढ़ते रहनेवाले लालता बाबू बोले तो काशी ने अपने उसी व्यंग्यात्मक लहजे में कहा-

क्यों नहीं, क्यों नहीं, बिसू की मौत और हरिजनों पर होनेवाले जुलुम तो सेलिब्रेट होने चाहिए। इससे मौजूं मौक़ा और कब मिलेगा ?'

बेमौक़ उछाला गया यह फूहड़ व्यंग्य अच्छा नहीं लगा सुकुल बाबू को। केवल नज़रों से ही काशी को फटकार दिया उन्होंने और लालता बाबू को सौंप दिया यह काम। लेकिन रैली के ठीक दूसरे दिन बिंदा की गिरफ़्तारी ने बिहारी को सरोहा में इतना व्यस्त बना दिया कि उस दिन तो कुछ हो नहीं सका। आज भी सब लोग क़रीब दो-दो पैग चढ़ा चुके तब जाकर प्रकट हुए बिहारी भाई।

'बिना दूल्हे के ही दावत शुरू कर दी हमने तो, क्या करते ?'

'कोई बात नहीं।' अपने इस महत्त्व पर भीतर-ही-भीतर पुलकित हैं बिहारी भाई। बातचीत का एक ही विषय है-सरोहा चुनाव।

'बिंदा की गिरफ्तारी ने तो हमारा पक्ष और भी मज़बूत कर दिया। बड़े ही माकूल मौके पर हुई गिरफ़्तारी।'

एक उल्लसित स्वर।

'दो दिन पहले हो गई होती तो रैली में दस-बीस पोस्टर बिंदा के नाम के भी उठवा देते। वैसे घर-घर जाकर गुस्सा तो खूब भड़का दिया है सबका। मीटिंग भी खूब धुआँधार हुई थी उस दिन। देखना, नहीं-नहीं करके भी दस प्रतिशत वोट तो फूट ही जाएँगे हमारी तरफ़।'

एक सुखद सूचना !

'बिंदा ससुरा तो हाथ नहीं रखने देता था, अब उसकी बीवी से वे सारे प्रमाण निकलवाओ जो बिसू ने जुटाए थे, वह दे देगी। कहो कि हम केस लड़ेंगे बिंदा का।'

एक विवेकपूर्ण सुझाव।

'हाँ ! चुनाव हार गए तो ज़रूर केस लड़ोगे। जीत गए तो कितनी बड़ी-बड़ी बातें आ जाएँगी करने के लिए ! उनके सामने इस केस की भला क्या अहमियत ?'

एक व्यंग्योक्ति।

'दा साहब की यह चाल उलटी कैसे पड़ गई ? इतनी आसानी से उलटी चाल चलनेवाले तो हैं नहीं दा साहब। ज़रूर कुछ होगा उनके दिमाग में।'

एक शंका।

'भूलो मत, चतुर कौवा ही विष्ठा पर बैठता है। खेत-मजदूरों और हरिजनों के सारे वोट गए इस बार...पक्की बात।'

शंका का समाधान।

'बहुत ऊँचे क़िस्म की घाघ और घुन्नी चीज हैं दा साहब।'

शंका जारी।

'सुकुल बाबू जब कुर्सी पर थे तो वे भी कुछ कम नहीं थे। और आज कुर्सी मिल जाए तो फिर कल ही देखना। यह कुर्सी साली सबको...।'

विषयान्तर।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book