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सपनप्रिया

विजयदान देथा

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :295
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1324
आईएसबीएन :81-263-0196-1

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ कहानियों का संग्रह...

Sapanpriya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘हवाई शब्दजाल व विदेशी लेखकों के अपच उच्छिष्ट का वमन करने में मुझे कोई सार नजर नहीं आता। आकाशगंगा से कोई अजूबा खोजने की बजाय पाँवों के नीचे की धरती से कुछ कण बटोरना ज्यादा महत्त्वपूर्ण लगता है। अन्यथा इन कहानियों को गढ़ने वाले लेखक की कहानी तो अनकही रह जाएगी।.... कुछ दिन पहले ही मुझे यह आत्मबोध हुआ कि मैं आकाश से टपका हुआ लेखक नहीं हूँ बल्कि चतुर्दिक् परिवेश के बीच हमेशा पलता रहा हूँ....राजस्थानी ‘बात’ का वजन, उसकी ध्वनि उसके छिपे अर्थ जो व्यक्त के द्वारा अव्यक्त की ओर संकेत करते हैं, प्रच्छन्न मौन को मुखरित करते हैं- यह सब प्रखर हो जाता है। बहुत कुछ बदल जाता है कथानक वे ही हैं, हिन्दी कहानी के आयाम बदल जाते हैं। इसलिए कि मैं निरंतर बदलता रहता हूँ। परिष्कृत और संशोधित होता रहता हूँ। जीवित गाछ-बिरछों के उनमान प्रस्फुटित होता रहता हूँ। सघन होता रहता हूँ।’’

प्रख्यात कथाकार विजयदान देथा (बिज्जी) के इस वक्तव्य के बाद इस संग्रह के बारे में अधिक कहने की जरूरत नही है। केवल यह आग्रह ही किया जा सकता है कि हिन्दी के कथा-प्रेमी पाठक इस ‘सपनप्रिया’ संग्रह की अद्भुत और अद्विताय कहानियाँ अवश्य पढ़े।

इधर-उधर


प्रिय अनिल,

लोक जुम्बिश की वह कार्यशाला न केवल अविस्मरणीय थी, मेरे जीवन के ऐसे उत्फुल्ल एवं उल्लासित क्षण थे, जिनकी घनघोर अनुभूति मुझे पहले कभी नहीं मालूम हुई। पूरी यात्रा के दौरान घनघोर ही बादल छाये हुए थे। पाली के बाद इस वर्ष की पहली घनघोर बारिश हुई थी। आबू रोड उतरते ही पाँच-सात कार्यकर्ताओं ने प्रतिभागियों को तत्काल घेर लिया। झटपट सामान उतारा। जैसे कोई आत्मीय मेहमान आये हों। शामियाना तना हुआ था। सुयोग ऐसा घटित हुआ कि रात के अँधियारे को बरसात की फुहारें भिगो रही थीं। बिजली के तेज लट्टू उसे आलोकित कर रहे थे। रोशनी में स्फुलिंग की नाई चमकती फुहारों का नजारा भी अद्वितीय था। पहले के प्रतिभागियों को छोड़कर एम्बेसेडर कार आयी तो स्वयंसेवकों ने तन्मयतापूर्वक सामान गाड़ी में रखा।

जब मैं शिखर होटल पहुँचा तब रात के ग्यारह बज चुके थे। उस वक्त भी खाना गरम रखा था। सारी व्यवस्था मालूक थी। इसका वेशेविस सिंगर के कहानी-संग्रह ‘काफ्का का दोस्त और अन्य कहानियाँ’ से ‘कबूतर’ कहानी पढ़ते-पढ़ते सो गया। लाजवाब कहानी है। ऐसा लगा कि इस कहानी का लेखक मैं ही हूँ। जाने क्यों श्रेष्ठतम रचनाएं पढ़कर मुझे ऐसा  अपूर्व आनन्द आता है मानो वे रचनाएँ मेरे भीतर से  ही खिली हों। महकी हों। बरसात की वजह से गुलाबी ठण्डक बड़ी सुहानी लग रही थी। तिसपर आबू पर्वत की ऊँचाई। फड़फड़ाते हुए मुझे बयार करने लगे तो तनिक सिरहाने महसूस हुई। झिझकर उठ बैठा। रोशनी जगमगा रही थी। कबूतर एक भी नजर नहीं आया। बन्द कमरे से जाने कहाँ उड़ गये ? क्योंकर उड़ गये ? सोने में देर हो गयी थी। इसलिए सवेरे चार बजे उठकर ‘राजस्थान-पत्रिका’ के लिए कहानी लिखना चाहता था। इसाक वेशेविस के कबूतरों ने पौने तीन बजे ही जगा दिया तो वापस सोने की इच्छा नहीं हुई। तुम्हें पता है अनिल, कि कोमल बिना पढ़े सो नहीं पाता। उसकी यह अच्छी आदत मैंने भी अपना ली। करीब आधी शताब्दी से यह आदत जस-की-तस निभ रही है। किसी भी कारण से एक बार नींद उचट जाए तो पाँच-सात पृष्ठ बिना निगोड़ी नींद पलकों के आस-पास ही नहीं फटकती।

‘हड़कम्प’ शीर्षक लिखते समय सहसा तुम्हारी एक बात कलेजे को छू गयी। जब सन् 1958 के किसी शुभ दिन मैंने पुख्ता सोच-समझकर निर्णय लिया कि हिन्दी की बजाए राजस्थानी में लिखे बिना मेरी कहानियाँ आकांक्षित ऊँचाइयों तक नहीं उड़ सकती तब से अट्ठाईस वर्ष तक विभिन्न फलों की ‘फुलवाड़ी’ सींचता रहा। सँवारता रहा। पर तुम कई बार मुझे मीठे ढंग से समझाते रहे कि हिन्दी की बजाय राजस्थानी में लिखने का निर्णय अव्यावहारिक, असंगत और आत्मघाती है। हिन्दी का दायरा राष्ट्रव्यापी है और राजस्थान का एकदम सीमित। प्रान्तीय मान्यता और शिक्षा के अभाव में प्रशिक्षित वर्ग बड़ी मुश्किल से तैयार हो पाएगा। तब तुम्हारा सोचना था कि मेरा संकल्प अनुचित है। समय-सापेक्ष नहीं है। और जब ‘रूँख’ की सघनता के बाद हिन्दी में फिर से लिखना प्रारम्भ किया तो तुम्हारा पुरजोर आग्रह है कि मुझे केवल राजस्थानी में ही लिखना चाहिए। अनुवाद का काम तो कोई भी कर लेगा।

पर मैं फकत अनुवाद ही तो नहीं करता, अनिल। हिन्दी में फुलवाड़ी की कथाओं को पुनःसृजित करता हूँ। राजस्थानी ‘बात’ का वजन, उसकी ध्वनि, उसके छिपे अर्थ जो व्यक्त के द्वारा अव्यक्त की ओर संकेत करते हैं, प्रच्छन्न मौन को मुखरित अर्थ करते हैं-यह सब प्रखर हो जाता है। बहुत बदल जाता है। कथानक वे ही हैं। पर कहानी के आयाम बदल जाते हैं। इसलिए कि मैं निरन्तर बदलता रहता हूँ। कहूँ कि और संशोधित होता रहता हूँ। जीवित गाछ-बिरछों के उनमान प्रस्फुटित करता रहता हूँ। सघन होता रहता हूँ।

खुलासा करने के लिए और अधिक पीछे जाना पड़ेगा अनिल, जब मैं सन् 1948 से 1950 तक ‘ज्वाला’ साप्ताहिक में काम करता था। ‘ब्लिट्ज’ की साइज के सोलह पृष्ठ निकलते थे। नियमित रूप से तीन स्तम्भ  लिखता था। ‘हम सभी मानव हैं’ ‘दोजख की सैर’ और ‘घनश्याम, परदा गिराओ’। तीनों स्तम्भों के कथा की बुनावट रहती थी। मानववाले स्तम्भ में मानवता के तहत की हर व्यक्ति की जाति सम्प्रदाय, धर्म या मजहब का दायरा अविच्छिन्न रहता था। आज के मुहावरे में साम्प्रदायिकता के खिलाफ ‘एक मानव’ के नाम से मेरी कलम अबाध चलती रहती थी। ‘दोजख की सैर’ में विभागीय भ्रष्टाचार पर कटाक्ष का स्वरूप रहता था। वह भी कथा के माध्यम से। ‘घनश्याम, पर्दा गिराओ’ में राजनेताओं का पाखण्ड उजागर होता था। जब दर्शकों के सामने भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा आने लगती तब नेताजी जोर से चिल्लाते-घनश्याम, परदा गिराओ। ये तीनों स्तम्भ तो लिखता ही था, पर पूरे के पूरे सोलह पृष्ठ अपने हाथ से फेयर करके प्रेस में आने देता था। कलम मँजती रही। धार लगती रही।

तब एक शिफ्त मुझमें और भी थी अनिल, कि लिखने के पूर्व-चाहे किसी विधा में लिखूँ कविता, कहानी, गद्यगीत, निबन्ध या आलोचना-न कुछ सोचता था। लिखना शुरू करने के बाद न रुकता था। न काट-छाँट करता था और न लिखे हुए को फिर से पढ़ता था। प्रारंभ से ही पत्र-पत्रिकाएँ गले पड़ती गयीं, सो ये सब नखरे वहाँ चलते नहीं थे। हर रोज समय पर काम निपटाना पड़ता था। पर मैंने बेगार कभी नहीं टाली। आधे-अधूरे मन से कभी काम नहीं किया। मैं काम को बेगार समझता ही नहीं, चाहे अपना हो चाहे दूसरों का। सम्पूर्ण निष्ठा से करता हूँ। काया के साँचे में मन और आत्मा उड़ेल कर। तुमने भी कई बार ठोक-बजाकर मेरे इस स्वभाव को जाँचा-परखा है। इसे तुम मेरी बेवकूफी समझों या मेरी नादानी कि......परिश्रम के साथ परिश्रम को मैंने कभी जोड़ कर देखने की चेष्ठा ही नहीं की। हाथ लग जाए तो कोई एतराज नहीं, न लगे तो कोई आग्रह नहीं। बस, चाकू की धार तेज व टिकाऊ होनी चाहिए। फिर उससे प्याज काटो, चाहे आलू, लौकी या बैंगन। आसानी से कट जाते हैं। शुरूआत में हिन्दी के रियाज से जो धार लगी, वह राजधानी में उसी कौशल से काम आयी। दृष्टि हमेशा ऊपर की ओर रखी कि शरीर से न भी हो, पर मन और आत्मा से बदलों पर चलूँ। लहराती बिजलियों को बाहुपाश में भरू और बादलों के बीच ही नहाऊँ। धोऊँ। चाँदनी से प्यास बुझाऊँ !
 
उन दिनों हाथ में छपी पाण्डुलिपि और छपी कहानियों की फाइलें रखने की तमीज ही नहीं थी ! बाद में बहुत कोशिश करने पर मुश्किल से ‘ज्वाला’ के बीसेक अंक हाथ लगे। वह फटी जर्जरित फाइल आज तो मेरे पास अमूल्य खजाने के बतौर सुरक्षित है। उसकी अधिकांश हिन्दी कहानियों को राजधानी में पुनःसृजित किया। वे ‘अलेखूं हिटलर’ में छपी हैं। जब सद्यजात सन्तान बढ़ते-बढ़ते शिशु होती है, किशोर होती है। युवा होती है, वृद्ध होती है तो शरीर का ढाँचा भिन्न नहीं होता। उसी एक काया के भीतर और बाहर परिवर्तन होता रहता है। पहिचान भले ही बदल जाए, पर मूल ढाँचा वहीं रहता है। कुछ ऐसा ही परिवर्तन मेरी कहानियों में सम्भव हुआ। हिन्दी से राजस्थानी में परिवर्द्धन, तत्पश्चात् ‘फुलवाड़ी’ की राजस्थानी कथाओं का हिन्दी में पुनः सृजन ।.....मेरी रचनाओं में गहरी रुचि रखने वाले परमहितैषी मुझे टोकते रहते हैं कि नये सृजन की कीमत पर राजस्थानी हिन्दी में पुनर्लेखन न करूँ। पर मुझे इसमें प्रजापति-सा आनन्द आता है। अपने ही हाथों रची सृष्टि को नया रूप प्रदान करना ! यह तो अदम्य हौसले का काम है। मानों अपनी सन्तान को काट-कूटकर फिर से जीवित करने जैसा। जिस तरह मेरे भीतर सृष्टा का स्वरूप नित्य-प्रति बदलता रहता है, तदनुरूप अपनी रचनाओं का रूप बदलने रहने की खातिर मेरी उत्कट अभिलाषा बनी रहती है।

क्यों रे अनिल, यदि कोई तथाकथित बुद्धिजीवी ताल ठोककर यह चुनौती दे, ‘इस दुनियाँ में है कोई ऐसा दिग्गज जो मुझे समझा सके !’ उसे कोई नहीं समझा सकता-ऐसा मेरा विनम्र खयाल है। दरअसल वह समझना ही नहीं चाहता। इसी तरह राजस्थान के कुछ ‘उद्भव’ लेखक मेरी ‘फुलवाड़ी’ के मौलिक सृजन के लिए तैयार ही नहीं हैं। उन्हें लाख चेष्टा करने पर भी समझा नहीं सकूँगा कि फुलवाडी की लोककथाएं मौलिक सृजन के आगे की रचनाएं हैं, जिनकी सृष्टि मौलिक रचनाओं की अपेक्षा ज्यादा कठिन हैं। हिन्दी के विख्य़ात आलोचक श्री विजय मोहन सिंह जी की दृष्टि में ‘द्रवित प्राणायाम:’ करने पर भी उन्हें लिखा नहीं जा सकता।

दूसरी ओर हिन्दी के सामान्य पाठक, लेखक और समालोचक यह कहते हुए भी नहीं हिचकते कि मुझ अकेले को हिन्दी में सम्मिलित करने पर हिन्दी का आधुनिक गतिरोध मिट सके, क्योंकि वे ‘उद्भव’ नहीं हैं। इसलिए आकृमिक भाव से अपनी भावना प्रकट कर सके, क्योंकि वे ‘उद्भव’ नहीं। सामान्य हैं। सहज हैं। ग्रन्थिरहित हैं। हीन भावना से पीड़ित नहीं हैं। मिथ्या अहंकार के रोगी नहीं हैं। हिन्दी के सहज सामान्य लेखकों की अप्रत्याशित प्रशंसा से मुझे खुशी तो अवश्य हुई लेकिन मेरा माथा खराब नहीं हुआ। उनकी सुरुचि को मेरी रचनाएं पढ़कर जाने-अनजाने कोई ठेस न लगे, उनका मोहभंग न हो, मेरे चेतन-अवचेतन में यह सावचेती हमेशा बनी रहती है। बेइन्तहा कृतज्ञ हूँ हिन्दी के सुविज्ञ साहित्याकारों का जिन्होंने मुझे असीम प्यार और सम्मान दिया और आशा-बँधाई कि मेरी कलम में दम है, मेरी कल्पना सक्षम है। ‘फुलवाड़ी’ की बगिया से अब तक पचासेक फलों की महक उन्हें मिल पायी है। ‘सपनप्रिया’ के फूलों की सर्वथा दूसरी ही सौरभ मिलेगी।

तुम्हें जानकर खुशी होगी अनिल, कि अँग्रेजी के सहृदय पाठकों ने भी मुझे उसी रूप में अपनाया। ‘मानुष’ द्वारा प्रकाशित ‘द डिलेमा’ (दुविधा) में मेरी छह लम्बी प्रेमकथाओं का अँग्रेजी अनुवाद है। समाक्षाएँ तो मेरे हाथ में नहीं लगीं, पर चार-पाँच जो भी उपलब्ध हुईं या मित्रों ने उपलब्ध करायीं, उन्हें पढ़कर तो आश्चर्य-चकित हुए बिना रहा नहीं गया। क्योंकि अंग्रेजी-परस्त विद्वान तो अन्य भारतीय भाषाओं को कुछ समझते ही नहीं। किन्तु संविधान की आठवीं सूची से बहिस्कृत राजधानी लेखक को उन्होंने घास की बजाए स्वादिष्ट व्यजंन की थाल  परोसा है। ‘दुविधा और उलझन’ की समीक्षाएँ पढ़कर साहित्यिक पत्रिकाओं से मेरी कहानियाँ की परजोर माँग निरंतर बनी रहती है। जिसकी मैं पूर्ति कर नहीं पाता।

 किंतु किसी अनुवादक या प्रकाशक की चिट्ठी कभी नहीं आयी कि वे अपनी मातृभाषा में उसका अनुवाद या पुस्तक रूप में प्रकाशित करना चाहते हैं। परन्तु ‘द डिलेमा’ की समीक्षाएं छपते ही महाराष्ट्र के मालवण शहर से वनिता सामन्त की चिट्टी आयी  कि वे मराठी में उनका अनुवाद करना चाहती हैं। पुणे से ‘मेहता पब्लिशिंग हाउस’ सुनील मेहता का पत्र आया कि वे मराठी में ‘द डिलेमा’ का अनुवाद छापना चाहते हैं। ‘महाराष्ट्र टाइम्स’ में आधे पृष्ठ की समीक्षा छपी है।
तुम मन-ही-मन सोच रहे होगे अनिल, कि अपने बारे में ऐसी प्रशंसात्मक जानकारी मैं कभी छपवाता नहीं हूँ। फिर तुम्हारे पत्र में यह अपवाद क्यों ? इस पहेली का अर्थ मेरे समझाने पर भी तुम समझना नहीं चाहोगे कि इसमें मेरी प्रशंसा के बहाने मुझे गढ़ने वाली हाथों की भी अप्रत्यक्ष प्रशंसा है। सम्भवता तुम बुरा भी मानोंगे। मानो। पर उम्र की ढलान पर मुझे धीरे-धीरे आत्मस्वीकृतियाँ अपने पाठकों के सामने प्रस्तुत करनी ही होंगी वरना अपराध-बोध से मुक्त नहीं मिलेगी। यों व्यक्तिगत रूप से जहाँ-कहीं भी प्रासंगिक हो मैं उन्मुक्त भाव से कबूल करता हूँ कि राजनेता के रूप में स्वर्गीय निरंजननाथ जी आचार्य जो राजस्थान विधान-सभा के अध्यक्ष रह चुके हैं, राज्य के मन्त्रिमण्डल में भी जिनकी भागीदारी रही है-मेरे सृजन के ‘रुँख’ को गहर-घमेर बनाने में उनका काफी योगदान रहा है। और अधिकारी वर्ग में  तुम्हारा। मैं जो कुछ भी हूँ, उसे गढ़ने में तुम्हारा और स्वर्गीय निरंजननाथ जी आचार्य का सशक्त हाथ रहा है।

और भी बहुतेरे हाथ हैं। जिनका मेरे निर्माण में परोक्ष-अपरोक्ष श्रेय रहा है। अब समय-समय पर उन्हीं का जिक्र करूँगा। (हवाई शब्दजाल व विदेशी लेखकों के अपच उच्छिष्ट का वमन करने में मुझे सार नजर नहीं आता। आकाश गंगा से कोई अजूबा खोजने की बजाय पाँवों के नीचे की धरती से कुछ कण बटोरना ज्यादा महत्त्वपूर्ण लगता है। अन्यथा इन कहानियों को घड़नेवाले लेखक की कहानी तो अनकही रह जाएगी। तो अनिल यह भी एक कहानी है। मेरी अपनी कहानी जो मैंने नहीं, मेरे मित्र ने लिखी है। मेरे शुभचिन्तकों ने लिखी है। सँवारी है। कुछ दिन पहले ही मुझे यह आत्मबोध हुआ कि मैं कोई आकाश से टपका लेखक नहीं हूँ, बल्कि चतुर्दिक् परिवेश के बीच हमेशा पलता रहा हूँ) उस परिवेश की आंशिक कहानी है। शायद अब तो सही परिप्रेक्ष्य में समझ रहे हो न कि यह कहानी प्रस्तुत संग्रह की अतल गहराइयों में डूबी हुई दास्तान है।

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