लेख-निबंध >> एक साहित्यिक की डायरी एक साहित्यिक की डायरीगजानन माधव मुक्तिबोध
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प्रस्तुत है एक साहित्यिक डायरी...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘एक साहित्यिक की डायरी’ के पहले संस्करण की
पाण्डुलिपि मार्च
1964 में भोपाल में मुक्तिबोध जी ने मुझे सौंपी थी और वह जिस रूप में
चाहते थे उसी रूप में वह प्रकाशित हुई। उस पाण्डुलिपि में
‘कुटुयान’ और काव्य-सत्य’ और
‘कलाकार की
व्यक्तिगत ईमानदारी’ शीर्षक किस्तें नहीं थीं और फलस्वरूप वे
पहले
संस्करण में नहीं हैं।
ये सारी डायरियाँ ’57, ’58 और ’60 में ‘वसुधा’ (जबलपुर) में प्रकाशित हुई थीं।
‘डायरी’ शब्द एक भ्रम पैदा करता है और यह गलतफहमी भी हो सकती है कि मुक्तिबोध की ये डायरियाँ भी तिथिवार डायरियाँ होंगी। लेकिन वास्तविकता यह है कि ‘एक साहित्यिक की डायरी’ केवल उस स्तम्भ का नाम था जिसके अन्तर्गत समय-समय पर मुक्तिबोध को अनेक प्रश्नों पर विचार करने की छूट न केवल सम्पादन की ओर से बल्कि स्वयं अपनी ओर से भी होती थी। ‘वसुधा’ के पहले नागपुर के ‘नया खून’ साप्ताहिक में वह ‘एक साहित्यिक की डायरी’ स्तम्भ के अन्तर्गत कभी अर्द्ध-साहित्यिक और कभी गैर-साहित्यिक विषयों पर छोटी-छोटी टिप्पणियाँ लिखा करते थे जो एक अलग संकलन के रूप में प्रकाशन के लिए प्रस्तावित हैं। प्रस्तुत डायरी में केवल ‘वसुधा’ में प्रकाशित किस्तों-जो स्वयं में स्वतन्त्र निबन्ध हैं-को शामिल करने का उनका उद्देश्य ही यही था कि वे न तो सामयिक टिप्पणियों को साहित्य मानते थे और न साहित्य को सामयिक टिप्पणी वस्तुतः जैसा कि श्री ‘अदीब’ ने लिखा है, मुक्तिबोध की डायरी उस सत्य की खोज है जिसके आलोक में कवि अपने अनुभव को सार्वभौमिक अर्थ दे देता है।
ये सारी डायरियाँ ’57, ’58 और ’60 में ‘वसुधा’ (जबलपुर) में प्रकाशित हुई थीं।
‘डायरी’ शब्द एक भ्रम पैदा करता है और यह गलतफहमी भी हो सकती है कि मुक्तिबोध की ये डायरियाँ भी तिथिवार डायरियाँ होंगी। लेकिन वास्तविकता यह है कि ‘एक साहित्यिक की डायरी’ केवल उस स्तम्भ का नाम था जिसके अन्तर्गत समय-समय पर मुक्तिबोध को अनेक प्रश्नों पर विचार करने की छूट न केवल सम्पादन की ओर से बल्कि स्वयं अपनी ओर से भी होती थी। ‘वसुधा’ के पहले नागपुर के ‘नया खून’ साप्ताहिक में वह ‘एक साहित्यिक की डायरी’ स्तम्भ के अन्तर्गत कभी अर्द्ध-साहित्यिक और कभी गैर-साहित्यिक विषयों पर छोटी-छोटी टिप्पणियाँ लिखा करते थे जो एक अलग संकलन के रूप में प्रकाशन के लिए प्रस्तावित हैं। प्रस्तुत डायरी में केवल ‘वसुधा’ में प्रकाशित किस्तों-जो स्वयं में स्वतन्त्र निबन्ध हैं-को शामिल करने का उनका उद्देश्य ही यही था कि वे न तो सामयिक टिप्पणियों को साहित्य मानते थे और न साहित्य को सामयिक टिप्पणी वस्तुतः जैसा कि श्री ‘अदीब’ ने लिखा है, मुक्तिबोध की डायरी उस सत्य की खोज है जिसके आलोक में कवि अपने अनुभव को सार्वभौमिक अर्थ दे देता है।
तीसरा क्षण
आज से कोई बीस साल पहले की बात है। मेरा एक मित्र केशव और मैं दोनों
जंगल-जंगल घूमने जाया करते। पहाड़-पहाड़ चढ़ा करते, नदी-नदी पार किया
करते। केशव मेरे-जैसा ही पन्द्रह वर्ष का बालक था। किन्तु वह मुझे बहुत ही
रहस्यपूर्ण मालूम होता। उसका रहस्य बड़ा ही अजीब था। उस रहस्य से मैं भीतर
ही भीतर बहुत आतंकित रहता।
केशव ने ही बहुत-बहुत पहले मुझे बताया कि इड़ा, पिगंला और सुषुम्ना किसे कहते हैं। कुण्डलिनी चक्र से मुझे बड़ा डर लगता। उसने हठयोगियों की बहुत-सी बातें बड़े ही विस्तार के साथ वर्णन कीं।
केशव का सिर पीछे से बहुत बड़ा था। आगे की ओर लम्बा और विस्तृत था। माथा साधारण और घनी-घनी भौंहों के नीचे काली आँखें, बहुत गहरी, मानो दो कुएँ पुतली के काँच से मढ़े हुए हों। यह भी लगता कि उसकी आँखें और जमी हुई हैं। आँखों के बीच, नाक की शुरुआत पर घनी-घनी भौहों की दोनों पट्टियाँ नीचे झुककर मिल जाती थीं। कभी-कभी नाई द्वारा वह इस मिलन-स्थल पर भौहों के बाल कटवा लेता। लेकिन उनके रोएँ फिर उग आते। आँखों के नीचे फीका-पीला, लम्बा, शिथिल और उकताया हुआ थका चेहरा था।
केशव मझोले कद का बालक था जिसे खेलने-कूदने से कोई मोह नहीं था। उसका गणित विषय अच्छा था। इसीलिए केशव मेरे लिए मिडिल और मैट्रिक में जरूरी हो उठा था।
फिर भी मैं केशव के प्रति विशेष उत्साहित नहीं था। मुझे प्रतीत हुआ कि वह मेरे प्रति अधिक स्नेह रखता है। वह मेरे पिताजी के श्रद्धेय मित्र का लड़का था इसलिए उसके वहाँ मेरा काफी आना-जाना था।
केवल एक ही बात उसमें और मुझमें समान थी। वह बड़ा ही घुमक्कड़ था। मैं भी घूमने का शौकीन था। हम दोनों सुबह-शाम और छुट्टी के दिनों में तो दिन-भर दूर-दूर घूमने जाया करते।
इसके बावजूद उसका लम्बा चेहरा फीका और पीला रहता। किन्तु वह मुझसे अधिक स्वस्थ था, उसका डील ज्यादा मजबूत था। वह निस्सन्देह हट्टा-कट्टा था। फिर भी उसके चेहरे की त्वचा काफी पीली रहती। पीले लम्बे चेहरे पर घनी भौंहों के नीचे गहरी-गहरी काली चमकदार कुएँ-नुमा आँखें और सिर पर मोटे बाल और गोल अड़ियल मजबूत ठुड्डी मुझे बहुत ही रहस्य-भरी मालूम होती। केशव में बाल-सुलभ चंचलता न थी वह एक स्थिर प्रशान्त पाषाण-मूर्ति की भाँति मेरे साथ रहता।
मुझे लगता कि भूमि के गर्भ में कोई प्राचीन सरोवर है। उसके किनारे पर डरावने घाट, आतंककारी देव-मूर्तियाँ और रहस्यपूर्ण गर्भ-कक्षोंवाले पुराने मन्दिर हैं। इतिहास ने इन सबको दबा दिया। मिट्टी की तह पर तह, परतों पर परतें, चट्टानों पर चट्टानें छा गयीं। सारा दृश्य भूमि में गड़ गया, अदृश्य हो गया। और उसके स्थान पर यूकैलिप्ट्स के नये विलायती पेड़ लगा दिये गये। बंगले बना दिये गये। चमकदार कपड़े पहने हुई खूबसूरत लड़कियाँ घूमने लगीं। और उन्हीं-किन्हीं बंगलों में रहने लगा मेरा मित्र केशव जिसने शायद पिछले जन्म में या उसके भी पूर्व के जन्म में उसी भूमि-गर्भस्थ सरोवर का जल पिया होगा, वहाँ विचरण किया होगा।
मनुष्य का व्यक्तित्व एक गहरा रहस्य है-इसका प्रथम भान मुझे केशव द्वारा मिला-इसलिए नहीं कि केशव मेरे सामने खुला मुक्त हृदय नहीं था। उसके जीवन में कोई ऐसी बात नहीं थी जो छिपायी जाने योग्य हो। इसके अलावा वह बालक सचमुच बहुत दयालु, धीर-गम्भीर, भीषण कष्टों को सहज ही सह लेनेवाला, अत्यन्त क्षमाशील था। किन्तु साथ ही वह शिथिल, स्थिर, अचंचल, यन्त्रवत् और सहज-स्नेही था। उसमें सबसे बड़ा दोष यह था कि उसमें बालकोचित, बाल-सुलभ गुण-दोष नहीं थे। मुझे हमेशा लगा कि उसका विवेक वृद्धता का लक्षण है।
जब हम हाई-स्कूल में थे, केशव मुझे निर्जन अरण्य-प्रदेश में ले जाता। हम भर्तृहरि की गुहा, मछिन्दरनाथ की समाधि आदि निर्जन किन्तु पवित्र स्थानों में जाते। मंगलनाथ के पास शिप्रा नदी बहुत गहरी, प्रचण्ड मन्थर और श्याम-नील थी। उसके किनारे-किनारे हम नये-नये भौगोलिक प्रदेशों का अनुसन्धान करते। शिप्रा के किनारों पर गैरव और भैरव साँझें बितायीं। सुबहें और दुपहर अपने रक्त में समेट लीं। सारा वन्य-प्रदेश श्वास में भर लिया। सारी पृथ्वी वक्ष में छिपा ली।
मैंने केशव को कभी भी योगाभ्यास करते हुए नहीं देखा, न उसने कभी सचमुच ऐसी साधना की। फिर भी वह मुझसे योग की बातें करता। सुषुम्ना नाड़ी के केन्द्रीय महत्त्व की बात उसने मुझे समझायी। षट्चक्र की व्यवस्था पर भी उसने पूर्ण प्रकाश डाला। मेरे मन के अँधेरे को उसके प्रकाश ने विच्छिन्न नहीं किया। किन्तु मुझे उसके योग की बातें रहस्य के मर्मभेदी डरावने अँधेरे की भाँति आकर्षित करती रहती मानो मैं किन्हीं गुहाओं के अँधेरे में चला जा रहा हूँ और कहीं से (किसी स्त्री की) कोई मर्मभेदी पुकार मुझे सुनाई दे रही है।
मैंने अपने मन का यह चित्र उसे कह सुनाया। वह मेरी तरफ अब पहले से भी अधिक आकर्षित हुआ। बहुत सहानुभूति से मेरी तरफ ध्यान देता। धीरे-धीरे मैं उसके अत्यन्त निकट आ गया। उसकी सलाह के बिना काम करना अब मेरे लिए असम्भव हो गया था।
साधारण रूप से, मेरे मन में उठनेवाली भाव-तरंगें मैं उसे कह सुनाता-चाहे वे भावनाएँ अच्छी हों, चाहे बुरी, चाहे वे खुशी करने लायक हों, चाहें ढाँकने लायक। हम दोनों के बीच एक ऐसा विश्वास हो गया था कि तथ्य का अनादर करना, छुपाना, उससे परहेज करके दिमागी तलघर में डाल देना न केवल गलत है, वरन् उससे कई मानसिक उलझनें होती हैं।
एक बात कह दूँ। अपने खयाल या भाव कहते समय मैं बहुत उच्छ्वसित हो उठता। मुझे लगता कि मन एक रहस्यमय लोक है। उसमें अँधेरा है। अँधेरे में सीढ़ियाँ है। सीढ़ियाँ गीली हैं। सबसे निचली सीढ़ी पानी में डूबी हुई है। वहाँ अथाह काला जल है। उस अथाह जल से स्वयं को ही डर लगता है। इस अथाह काले जल में कोई बैठा है। वह शायद मैं ही हूँ। अथाह और एकदम स्याह-अँधेरे पानी की सतह पर चाँदनी का एक चमकदार पट्टा फैला हुआ है, जिसमें मेरी ही आँखें चमक रही हैं, मानो दो नीले मूँगिया पत्थर भीतर उद्दीप्त हो उठे हों।
मेरे मन के तहखाने में उठी हुई ध्वनियाँ उसे आकर्षित करतीं। धीरे-धीरे वह मुझमें ज्यादा दिलचस्पी लेने लगा। मैं जब उसे अपने मन की बातें, कह सुनाता तो वह क्षण-भर अपनी घनी भौंहोंवाली प्रशान्त-स्थिर आँखों से मेरी तरफ देखता रहता। साधारण बातें, जो कि हमारे समाज की विशेषताएँ थीं, हमारी चर्चा का विषय बनतीं। यद्यपि उसकी ज्ञान-सम्पत्ति अल्प ही थी, हमारी चर्चाएँ विविध विषयों पर होतीं। मुझे अभी तक याद है कि उसने मुझे पहली बार कहा था कि गाँधीवाद ने भावुक कर्म की प्रवृत्ति पर कुछ इस ढंग से जोर दिया है कि सप्रश्न बौद्धिक प्रवृत्ति दबा दी गयी है। असल में यह गाँधीवादी प्रवृत्ति प्रश्न, विश्लेषण और निष्कर्ष की बौद्धिक क्रियाओं का अनादर करती है। यह बात उसने मुझे तब कही थी जब सन् तीस-इकतीस का सत्याग्रह खत्म हो चुका था और विधान सभाओं में घुसने की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही थी। तब हम स्थानीय इण्टरमीडिएट कॉलेज के फर्स्ट ईअर में पढ़ते थे। तभी हमने रूस के पंचवर्षीय आयोजन का नाम सुना था।
इसके बाद हम डिग्री कॉलेज में पहुँचे-किसी दूसरे शहर में। मुझे नहीं मालूम था कि केशव ने भी वही कॉलेज जॉयन किया है। मैंने उसके बारे में जानकारी लेने की कोई कोशिश भी नहीं की थी। सच तो यह है कि मेरा उसके प्रति कोई विशेष स्नेह नहीं था, न कोई आकर्षण। ऐसे पाषाणवत्, प्रशान्त, गम्भीर व्यक्ति मुझे पसन्द नहीं। हाँ, उसके प्रति मेरे मन में सम्मान और प्रशंसा के भाव थे, और चूँकि वह मुझे बहुत चाहता था, इसलिए मुझे भी उसे चाहना पड़ता था। शायद उसे मेरी यह स्थिति मालूम थी। लेकिन कभी उसने अपने मन का भाव नहीं दरशाया इस सम्बन्ध में।
और, एक बार, जब हम दोनों फोर्थ ईअर में पढ़ रहे थे वह मुझे कैण्टीन में चाय पिलाने ले गया। केवल मैं ही बात करता जा रहा था। आखिर वह बात भी क्या करता-उसे बात करना आता ही कहाँ था। मुझे फिलॉसफी में सबसे ऊँचे नम्बर मिले थे। मैंने प्रश्नों के उत्तर कैसे-कैसे दिये, इसका मैं रस-विभोर होकर वर्णन करता जा रहा था। चाय पीकर हम दोनों आधी मील दूर एक तालाब के किनारे जा बैठे। वह वैसा ही चुप था। मैंने साइकोऐनलिसिस की बात छेड़ दी थी। जब मेरी धारा-प्रवाह बात से वह कुछ उकताने लगता तब वह पत्थर उठाकर तालाब में फेंक मारता। पानी की सतह पर लहरें बनतीं और डुप्प-डुप्प की आवाज।
साँझ पानी के भीतर लटक गयी थी। सन्ध्या तालाब में प्रवेश कर नहीं रही थी। लाल-भड़क आकाशीय वस्त्र पानी में सूख रहे थे। और मैं सन्ध्या के इस रंगीन यौवन से उन्मत्त हो उठा था।
हम दोनों उठे चले, और दूर एक पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े हो रहे। एकाएक मैं अपने से चौंक उठा। पता नहीं क्यों, मैं स्वयं एक अजीब भाव से आतंकित हो उठा। उस पीपल-वृक्ष के नीचे अँधेरे में मैने उससे एक अजीब और विलक्षण आवेश में कहा, ‘‘शाम, रंगीन शाम, मेरे भीतर समा गयी है, बस गयी है। वह एक जादुई रंगीन शक्ति है। मुझे उस सुकुमार ज्वाला-ग्राही जादुई शक्ति से-यानी मुझसे मुझे डर लगता है।’’ और सचमुच, तब मुझे एक कँपकँपी आ गयी !!
इतने में शाम साँवली हो गयी। वृक्ष अँधेरे के स्तूप-व्यक्तित्व बन गये। पक्षी चुप हो उठे। एकाएक सब ओर स्तब्धता छा गयी। और, फिर इस स्तब्धता के भीतर से एक चम्पई पीली लहर ऊँचाई पर चढ़ गयी। कॉलेज के गुम्बद पर और वृक्षों के ऊँचे शिखरों पर लटकती हुई चाँदनी सफेद धोती सी चमकने लगी।
एकाएक मेरे कन्धे पर अपना शिथिल ढीला हाथ रख केशव ने मुझसे कहा, याद है एक बार तुमने सौन्दर्य की परिभाषा मुझसे पूछी थी ? मैंने उसकी बात की तरफ ध्यान न देते हुए बेरुखी-भरी आवाज में कहा, हाँ।
‘‘अब तुम स्वयं अनुभव कर रहे हो।’’
मैं नहीं जानता कि मैं क्या अनुभव कर रहा था। मैं केवल यही कह सकता हूँ कि किसी मादक अवर्णनीय शक्ति ने मुझे भीतर से जकड़ लिया था। मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ कि उस समय मेरे-अन्तःकरण के भीतर एक कोई और व्यक्तित्त्व बैठा था। मैं उसे महसूस कर रहा था। कई बार उसे महसूस कर चुका था। किन्तु अब तो उसने भीतर से मुझे बिलकुल ही पकड़ लिया था। ‘‘मैं जो स्वयं था वह स्वयं हो गया था। अपने से ‘बृहत्तर’, विलक्षण अस्वयं।’’
एकाएक उस पाषाण-मूर्ति-मित्र की भीतरी रिक्तता पर मेरा ध्यान हो आया। वह मुझसे कितना दूर है, कितना भिन्न है, कितना अलग है-अवांछनीय रूप से भिन्न ! !
वह मुझसे पण्डिताऊ भाषा में कह रहा था, किसी वस्तु या दृश्य या भाव से मनुष्य जब एकाकार हो जाता है तब सौन्दर्य बोध होता है। सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट वस्तु और उसका दर्शन, इन दो पृथक् तत्त्वों का भेद मिटकर सब्जेक्ट ऑब्जेक्ट से तादात्म्य प्राप्त कर लेता है तब सौन्दर्य भावना उद्बुद्ध होती है ! !
मैंने उसकी बात की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। सौन्दर्य की परिभाषा वे करें जो उससे अछूते हैं, जैसे मेरा मित्र केशव ! उनकी परिभाषा सही हो तो क्या, गलत हो तो क्या ! इससे क्या होता जाता है ! !
दिन गुजरते गये। एक ही गांव के हम दो साथी, भिन्न प्रकृति के, भिन्न गुण-धर्म के, भिन्न दशाओं के। एक-दूसरे से उकता उठने के बावजूद हम दोनों मिल जाते। चर्चा करने लगते। मेरी कतरनी जैसी चलती। केशव साँकल में लगे हुए, फिर भी खुले हुए, ढीले ताले-सा प्रतीत होता। कोई मकान के अन्दर जाये, देख-भाल ले, चोर-चपाटी कर ले, लेकिन जाते वक्त साँकल में ताला जरूर अटका जाये, वह भी खुला हुआ; चाबी लगाने की जरूरत नहीं। ताला भीतर से टूटा है, चाबी लग ही नहीं सकती।
लेकिन इस ताले में एक दिन अकस्मात चाबी भी लग गयी। छुट्टी का दिन। वृक्षों के समीप धूप अलसा रही थी। मैं घर में बैठे-बैठे ‘बोर’ हो रहा था। मैंने साइकिल पर आते हुए और धूप में चमकते हुए एक चेहरे को दूर से देखा।
इधर मैंने काफी कविताएँ लिख ली थीं। सोचा, शिकार खुद ही जाल में फँसने आ रहा है। केशव का चेहरा उत्तप्त था। चेहरे पर कुछ नयी बात थी जिसको मैं पहचान नहीं पाया। कविताओं से मुझे इतनी फुरसत नहीं थी कि केशव की तरफ ध्यान दे सकूँ। मैं तो अपने नशे में रहता था।
अगर मैं बोलना न शुरू करता तो चुप्पी काली होकर घनी और घनी होकर और भी काली और लम्बी हो जाती। इसलिए मैंने ही बोलना शुरू किया, ‘‘कैसे निकले ?’’
केशव गरदन एक ओर गिराकर रह गया। उसके बाल तब आधे माथे पर आ गये। मुझे लगा, वह आराम करना चाहता है। उसने आरम्भ किया, ‘‘मैंने तो बहुच-बहुत सोचा कि ईस्थेटिक एक्सपीरिएन्स क्या है। आज मैंने इसी सम्बन्ध में कुछ लिखा है। तुम्हें सुनाने आया हूँ।’’
भीतर दिल में मेरी नानी मर गयी। मैं खुद कविताएँ सुनाने की ख्वाहिश रखता था। अब यह केशव अपनी सुनाने बैठेगा। मेरी सारी दुपहर खराब हो जायेगी। शीः।
मैंने प्रस्ताव रखा, ‘‘अपने उस विषय की बात ही क्यों न कर लें।’’
‘‘ज़रूर; लेकिन तुम्हें डिसिप्लिन से बात करनी होगी।’’ यह कहकर वह मुस्करा दिया !!
यह मुस्कराहट मुझे चुभ गयी। तो क्या मैं इतना पागल हूँ कि बात करने में भटक जाता हूँ ! इस साले ने बहुत ध्यानपूर्वक मेरे स्वाभाव का अध्ययन किया होगा। शायद मैं इसे बहुत ‘बोर’ करता रहा हूँगा। अपने स्वभाव के अध्ययन के इतने अधिक और इतने प्रदीर्घ अवसर किसी को देना शायद उचित नहीं था। मैं तो उल्लू सरीखा बोलता जाता हूँ और ये हजरत अपने दिमाग की नोटबुक में मेरी हर गलती टीप लेते हैं !
मैंने विश्वास दिलाने की जबरजस्त चेष्टा की और कुचेष्टा करते हुए ‘‘बात बिलकुल ढंग से ही होगी।’’
उसने कहा, ‘‘मैंने तुम्हें बताया था कि ‘निज’ और ‘पर’ ‘स्व-पक्ष’ और ‘वस्तु-पक्ष’ दोनों जब एक हो जाते हैं तब तादातम्य उत्पन्न होता है !’’
उसके भावों की गम्भीरता कुछ ऐसी थी, चेहरा उसने इतना सीरियस बना रखा था कि मुझे अपनी हँसी दबा देनी पड़ी। पहली बात तो यह है कि मुझे उसकी शब्दावली अच्छी नहीं लगी। यह तो मैं जनता हूँ कि सारे दर्शन का मूल आधार सब्जेक्ट-ऑब्जेक्ट रिलेशनशिप की कल्पना है-स्व-पक्ष और वस्तु-पक्ष की परिकल्पनाएँ और उन दो पक्षों के परस्पर सम्बन्ध की कल्पना के आधार पर ही दर्शन खड़ा होता है। अथवा यूँ कहिए की ज्ञान-मीमांसा खड़ी होती है। एपिस्टॅमॉलॉजी अर्थात् ज्ञान-मीमांसा की बुनियाद पर ही परिकल्पनाओं के प्रसाद की रचना की गयी है। इस दृष्टि से देखा जाये तो मुझे वाक्य पर हँसने की जरूरत नहीं थी। मैं उसकी स्थापना को विवाद्य मान सकता हूँ, हास्यास्पद नहीं।
फिर भी मैं हँस पड़ा-इसलिए कि मुझे उसके शब्दों में, उसके स्वयं के विचित्र व्यक्तित्व की झलक दिखलाई दी। वही बोझिल, गतिहीन, ठण्डा, पाषाणवत् व्यक्तित्व !!
उसकी भौहें कुछ आकुंचित हुईं। फीका, पीला चेहरा, किंचित् विस्मय से मेरी ओर वही ठण्डी दृष्टि डालने लगा-मानो वह मेरे रुख का अध्ययन करना चाहता हो।
मैंने कहा, ‘‘भाई मुझे तादात्म्य और तदाकारिता की बात समझ में नहीं आयी। सच तो यह है कि किसी वस्तु में तदाकार नहीं हो पाता। तदाकारिता की बात का मैं खण्डन नहीं करता, किन्तु मैं उसको एक मान्यता के रूप में ग्रहण नहीं करना चाहता।’’
उसने कहा, ‘‘क्यों ?’’
मैंने जवाब दिया, ‘‘एक तो मैं वस्तु-पक्ष का ठीक-ठीक अर्थ नहीं समझता। हिन्दी में मन से बाह्य वस्तु को ही वस्तु समझा जाता है-मेरा खयाल है। मैं कहता हूँ कि मन का तत्त्व भी वस्तु हो सकता है। और अगर यह मान लिया जाये कि मन का तत्त्व भी एक वस्तु है तो ऐसे तत्त्व के साथ तदाकारिता या तादातम्य का कोई मतलब नहीं होता क्योंकि वह तत्त्व मन ही का एक भाग है, हाँ, मैं इस मन के तत्त्व के साथ तटस्थता का रुख की कल्पना कर सकता हूँ; तदाकारिता नहीं।’’
मेरे स्वर और शब्द की हल्की धीमी गति ने उसे विश्वास दिला दिया कि मैं उसकी बात उड़ाने के लिए नहीं कह रहा हूँ, वरन् उसकी बातें समझने में महसूस होनेवाली कठिनाई का बयान कर रहा हूँ।
आखिकार वह मेरा मित्र था, बुद्धिमान और कुशाग्र था। उसने मेरी ओर देखकर किंचित् स्मित किया और कहने लगा, ‘‘तुम एक लेखक की हैसियत से बोल रहे हो इसलिए ऐसा कहते हो। किन्तु सभी लोग लेखक नहीं हैं। दर्शक हैं, पाठक हैं, श्रोता हैं। वे हैं, इसलिए तुम भी हो-यह नहीं कि तुम हो इसलिए वे हैं !! वे तुम्हारे लिए नहीं हैं, तुम उनके सम्बन्ध से हो । पाठक या श्रोता तादात्म्य या तन्मयता से बातें शुरू करें तो तुम्हें आश्चर्य नहीं होना चाहिए।’’
मेरे मुँह से निकला, ‘‘तो ?’’
उसने जारी रखा, ‘‘तो यह कि लेखक की हैसियत से, सृजन-प्रक्रिया के विश्लेषण के रास्ते से होते हुए सौन्दर्य-मीमांसा करोगे या पाठक अथवा दर्शक की हैसियत से, कालानुभव के मार्ग से गुजरते हुए सौन्दर्य की व्यख्या करोगे ? इस सवाल का जवाब दो !’’
मैं उसकी चपेट में आ गया। मैं कह सकता था कि दोनों करूँगा। लेकिन मैंने ईमानदारी बरतना उचित समझा। मैंने कहा, ‘‘मैं तो लेखक की हैसियत से ही सौन्दर्य की व्याख्या करना चाहूँगा। इसलिए नहीं कि मैं लेखक को कोई बहुत ऊँचा स्थान देना चाहता हूँ वरन् इसलिए कि मैं वहाँ अपने अनुभव की चट्टान पर खड़ा हुआ हूँ।’’
उसने भौहों को सिकोड़कर और फिर ढीला करते हुए जवाब दिया, ‘‘बहुत ठीक; लेकिन जो लोग लेखक नहीं हैं वे तो अपने ही अनुभव के दृढ़ आधार पर खड़े रहेंगे और उसी बुनियाद पर बात करेंगे। इसलिए उनके बारे में नाक-भौं सिकोड़ने की जरूरत नहीं। उन्हें नीचा देखना तो और भी गलत है।’’
उसने कहना जारी रखा, ‘‘इस बात पर बहुत कुछ निर्भर करता है कि आप किस सिरे से बात शुरू करेंगे ! यदि पाठक श्रोता या दर्शक के सिरे से बात शुरू करेंगे तो आपकी विचार-यात्रा दूसरे ढंग की होगी। यदि लेखक सिरे से सोचना शुरू करेंगे तो बात अलग प्रकार की होगी। दोनों सिरे से बात होगी सौन्दर्य-मीमांसा की है। किन्तु यात्रा की भिन्नता के कारण अलग-अलग रास्तों का प्रभाव विचारों को भिन्न बना देगा।
दो यात्राओं की परस्पर भिन्नता, अनिवार्य रूप से, परस्पर-विरोधी ही है-यह सोचना निराधार है। भिन्नता पूरक हो सकती है, विरोधी भी।
यदि हम यथा तथ्य बात भी करें तो भी बल (एम्फैसिस) की भिन्नता के कारण विश्लेषण भी भिन्न हो जायेगा।
किन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि प्रश्न किस प्रकार उपस्थित किया जाता है। प्रश्न तो आपकी विचार-यात्रा होगी। यदि इस विचार-यात्रा को रेगिस्तान में विचरण का पर्याय नहीं बनाना है तो प्रश्न को सही ढंग से प्रस्तुत करना होगा। यदि वह गलत ढंग से उपस्थित किया गया तो अगली सारी यात्रा गलत हो जायेगी।’’
उसने मेरी तरफ ध्यान से देखा। शायद वह देखना चाहता था कि मैं उसकी बात गम्भीरता पूर्वक सुन रहा हूँ या नहीं। शायद उसका यह विश्वास था कि मैं अत्यधिक इम्पल्सिव, सहज-उत्तेजित हो उठने वाला एक बेचैन आदमी की तरह हूँ। किन्तु मैं शान्त था। मेरे मन की केवल एक ही प्रतिक्रिया थ और वह यह कि केशव यह समझता है कि मैं समस्या को ठीक तरह से प्रस्तुत करना नहीं जानता। असल में उसकी यह धारणा मुझे बहुत अप्रिय लगी। मैं उसकी इस धारणा को बहुत पहले से जानता था। वह काई बार दुहरा भी चुका था। असल में वह बौद्धिक क्षेत्र में अपने को मुझसे उच्चतर समझता था। उसका ठण्डापन, उस के फलस्वरूप हम दो के बीच की दूरी, दूरी का सतत मान, और इस मान के बावजूद हम दोनों का नैकट्य-परस्पर घनिष्ठता और इसके विपरीत, दूरी के उस मान के कारण मेरे मन में केशव के विरुद्ध एक झख मारती खीझ और चिड़चिड़ापन—इन सब बातों से मेरे अन्तःकरण में, केशव से मेरे सम्बन्धों की भावना विषम हो गयी थी। सूत्र उलझ गये थे। मैं केसव को न तो पूर्णतः स्वीकृत कर सकता था न उसे अपनी जिन्दगी से हटा सकता था। इस प्रकार की मेरी स्थिति थी। फिर भी चूँकि ऐसी स्थित बहुत पहले से चली आयी थी इसलिए मुझे उसकी आदत पड़ गयी थी। किन्तु इस अभ्यस्तता के बावजूद कई बार में विक्षोभ फूट पड़ता और तब केशव की आँखों में एक चालाक रोशनी दिखाई देती, और मुझे सन्देह होता कि वह मेरी तरफ देखकर मुस्कराता हुआ कोई गहरी चोट कर रहा है। उस समय उसके विरुद्ध मेरे हृदय में घृणा का फोड़ा फूट पड़ता !!
किसी न किसी तरह मैं अपने को सामंजस्य और मानसिक सन्तुलन की समाधि में लिया; यह बताने के लिए मैं उसकी बातें ध्यानपूर्वक सुन रहा हूँ। मैंने उसके तर्कों और युक्तियों के प्रवाह में डूबकर मर जाना ही श्रेयस्कर समझा क्योंकि इस रवैये से या रुख से मेरे आत्मगौरव की रक्षा हो सकती थी। इस बीच मेरा मन दूर-दूर भटकने लगा। बाहर से शायद मैं धीर-प्रशान्त लग रहा था।
केशव ने ही बहुत-बहुत पहले मुझे बताया कि इड़ा, पिगंला और सुषुम्ना किसे कहते हैं। कुण्डलिनी चक्र से मुझे बड़ा डर लगता। उसने हठयोगियों की बहुत-सी बातें बड़े ही विस्तार के साथ वर्णन कीं।
केशव का सिर पीछे से बहुत बड़ा था। आगे की ओर लम्बा और विस्तृत था। माथा साधारण और घनी-घनी भौंहों के नीचे काली आँखें, बहुत गहरी, मानो दो कुएँ पुतली के काँच से मढ़े हुए हों। यह भी लगता कि उसकी आँखें और जमी हुई हैं। आँखों के बीच, नाक की शुरुआत पर घनी-घनी भौहों की दोनों पट्टियाँ नीचे झुककर मिल जाती थीं। कभी-कभी नाई द्वारा वह इस मिलन-स्थल पर भौहों के बाल कटवा लेता। लेकिन उनके रोएँ फिर उग आते। आँखों के नीचे फीका-पीला, लम्बा, शिथिल और उकताया हुआ थका चेहरा था।
केशव मझोले कद का बालक था जिसे खेलने-कूदने से कोई मोह नहीं था। उसका गणित विषय अच्छा था। इसीलिए केशव मेरे लिए मिडिल और मैट्रिक में जरूरी हो उठा था।
फिर भी मैं केशव के प्रति विशेष उत्साहित नहीं था। मुझे प्रतीत हुआ कि वह मेरे प्रति अधिक स्नेह रखता है। वह मेरे पिताजी के श्रद्धेय मित्र का लड़का था इसलिए उसके वहाँ मेरा काफी आना-जाना था।
केवल एक ही बात उसमें और मुझमें समान थी। वह बड़ा ही घुमक्कड़ था। मैं भी घूमने का शौकीन था। हम दोनों सुबह-शाम और छुट्टी के दिनों में तो दिन-भर दूर-दूर घूमने जाया करते।
इसके बावजूद उसका लम्बा चेहरा फीका और पीला रहता। किन्तु वह मुझसे अधिक स्वस्थ था, उसका डील ज्यादा मजबूत था। वह निस्सन्देह हट्टा-कट्टा था। फिर भी उसके चेहरे की त्वचा काफी पीली रहती। पीले लम्बे चेहरे पर घनी भौंहों के नीचे गहरी-गहरी काली चमकदार कुएँ-नुमा आँखें और सिर पर मोटे बाल और गोल अड़ियल मजबूत ठुड्डी मुझे बहुत ही रहस्य-भरी मालूम होती। केशव में बाल-सुलभ चंचलता न थी वह एक स्थिर प्रशान्त पाषाण-मूर्ति की भाँति मेरे साथ रहता।
मुझे लगता कि भूमि के गर्भ में कोई प्राचीन सरोवर है। उसके किनारे पर डरावने घाट, आतंककारी देव-मूर्तियाँ और रहस्यपूर्ण गर्भ-कक्षोंवाले पुराने मन्दिर हैं। इतिहास ने इन सबको दबा दिया। मिट्टी की तह पर तह, परतों पर परतें, चट्टानों पर चट्टानें छा गयीं। सारा दृश्य भूमि में गड़ गया, अदृश्य हो गया। और उसके स्थान पर यूकैलिप्ट्स के नये विलायती पेड़ लगा दिये गये। बंगले बना दिये गये। चमकदार कपड़े पहने हुई खूबसूरत लड़कियाँ घूमने लगीं। और उन्हीं-किन्हीं बंगलों में रहने लगा मेरा मित्र केशव जिसने शायद पिछले जन्म में या उसके भी पूर्व के जन्म में उसी भूमि-गर्भस्थ सरोवर का जल पिया होगा, वहाँ विचरण किया होगा।
मनुष्य का व्यक्तित्व एक गहरा रहस्य है-इसका प्रथम भान मुझे केशव द्वारा मिला-इसलिए नहीं कि केशव मेरे सामने खुला मुक्त हृदय नहीं था। उसके जीवन में कोई ऐसी बात नहीं थी जो छिपायी जाने योग्य हो। इसके अलावा वह बालक सचमुच बहुत दयालु, धीर-गम्भीर, भीषण कष्टों को सहज ही सह लेनेवाला, अत्यन्त क्षमाशील था। किन्तु साथ ही वह शिथिल, स्थिर, अचंचल, यन्त्रवत् और सहज-स्नेही था। उसमें सबसे बड़ा दोष यह था कि उसमें बालकोचित, बाल-सुलभ गुण-दोष नहीं थे। मुझे हमेशा लगा कि उसका विवेक वृद्धता का लक्षण है।
जब हम हाई-स्कूल में थे, केशव मुझे निर्जन अरण्य-प्रदेश में ले जाता। हम भर्तृहरि की गुहा, मछिन्दरनाथ की समाधि आदि निर्जन किन्तु पवित्र स्थानों में जाते। मंगलनाथ के पास शिप्रा नदी बहुत गहरी, प्रचण्ड मन्थर और श्याम-नील थी। उसके किनारे-किनारे हम नये-नये भौगोलिक प्रदेशों का अनुसन्धान करते। शिप्रा के किनारों पर गैरव और भैरव साँझें बितायीं। सुबहें और दुपहर अपने रक्त में समेट लीं। सारा वन्य-प्रदेश श्वास में भर लिया। सारी पृथ्वी वक्ष में छिपा ली।
मैंने केशव को कभी भी योगाभ्यास करते हुए नहीं देखा, न उसने कभी सचमुच ऐसी साधना की। फिर भी वह मुझसे योग की बातें करता। सुषुम्ना नाड़ी के केन्द्रीय महत्त्व की बात उसने मुझे समझायी। षट्चक्र की व्यवस्था पर भी उसने पूर्ण प्रकाश डाला। मेरे मन के अँधेरे को उसके प्रकाश ने विच्छिन्न नहीं किया। किन्तु मुझे उसके योग की बातें रहस्य के मर्मभेदी डरावने अँधेरे की भाँति आकर्षित करती रहती मानो मैं किन्हीं गुहाओं के अँधेरे में चला जा रहा हूँ और कहीं से (किसी स्त्री की) कोई मर्मभेदी पुकार मुझे सुनाई दे रही है।
मैंने अपने मन का यह चित्र उसे कह सुनाया। वह मेरी तरफ अब पहले से भी अधिक आकर्षित हुआ। बहुत सहानुभूति से मेरी तरफ ध्यान देता। धीरे-धीरे मैं उसके अत्यन्त निकट आ गया। उसकी सलाह के बिना काम करना अब मेरे लिए असम्भव हो गया था।
साधारण रूप से, मेरे मन में उठनेवाली भाव-तरंगें मैं उसे कह सुनाता-चाहे वे भावनाएँ अच्छी हों, चाहे बुरी, चाहे वे खुशी करने लायक हों, चाहें ढाँकने लायक। हम दोनों के बीच एक ऐसा विश्वास हो गया था कि तथ्य का अनादर करना, छुपाना, उससे परहेज करके दिमागी तलघर में डाल देना न केवल गलत है, वरन् उससे कई मानसिक उलझनें होती हैं।
एक बात कह दूँ। अपने खयाल या भाव कहते समय मैं बहुत उच्छ्वसित हो उठता। मुझे लगता कि मन एक रहस्यमय लोक है। उसमें अँधेरा है। अँधेरे में सीढ़ियाँ है। सीढ़ियाँ गीली हैं। सबसे निचली सीढ़ी पानी में डूबी हुई है। वहाँ अथाह काला जल है। उस अथाह जल से स्वयं को ही डर लगता है। इस अथाह काले जल में कोई बैठा है। वह शायद मैं ही हूँ। अथाह और एकदम स्याह-अँधेरे पानी की सतह पर चाँदनी का एक चमकदार पट्टा फैला हुआ है, जिसमें मेरी ही आँखें चमक रही हैं, मानो दो नीले मूँगिया पत्थर भीतर उद्दीप्त हो उठे हों।
मेरे मन के तहखाने में उठी हुई ध्वनियाँ उसे आकर्षित करतीं। धीरे-धीरे वह मुझमें ज्यादा दिलचस्पी लेने लगा। मैं जब उसे अपने मन की बातें, कह सुनाता तो वह क्षण-भर अपनी घनी भौंहोंवाली प्रशान्त-स्थिर आँखों से मेरी तरफ देखता रहता। साधारण बातें, जो कि हमारे समाज की विशेषताएँ थीं, हमारी चर्चा का विषय बनतीं। यद्यपि उसकी ज्ञान-सम्पत्ति अल्प ही थी, हमारी चर्चाएँ विविध विषयों पर होतीं। मुझे अभी तक याद है कि उसने मुझे पहली बार कहा था कि गाँधीवाद ने भावुक कर्म की प्रवृत्ति पर कुछ इस ढंग से जोर दिया है कि सप्रश्न बौद्धिक प्रवृत्ति दबा दी गयी है। असल में यह गाँधीवादी प्रवृत्ति प्रश्न, विश्लेषण और निष्कर्ष की बौद्धिक क्रियाओं का अनादर करती है। यह बात उसने मुझे तब कही थी जब सन् तीस-इकतीस का सत्याग्रह खत्म हो चुका था और विधान सभाओं में घुसने की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही थी। तब हम स्थानीय इण्टरमीडिएट कॉलेज के फर्स्ट ईअर में पढ़ते थे। तभी हमने रूस के पंचवर्षीय आयोजन का नाम सुना था।
इसके बाद हम डिग्री कॉलेज में पहुँचे-किसी दूसरे शहर में। मुझे नहीं मालूम था कि केशव ने भी वही कॉलेज जॉयन किया है। मैंने उसके बारे में जानकारी लेने की कोई कोशिश भी नहीं की थी। सच तो यह है कि मेरा उसके प्रति कोई विशेष स्नेह नहीं था, न कोई आकर्षण। ऐसे पाषाणवत्, प्रशान्त, गम्भीर व्यक्ति मुझे पसन्द नहीं। हाँ, उसके प्रति मेरे मन में सम्मान और प्रशंसा के भाव थे, और चूँकि वह मुझे बहुत चाहता था, इसलिए मुझे भी उसे चाहना पड़ता था। शायद उसे मेरी यह स्थिति मालूम थी। लेकिन कभी उसने अपने मन का भाव नहीं दरशाया इस सम्बन्ध में।
और, एक बार, जब हम दोनों फोर्थ ईअर में पढ़ रहे थे वह मुझे कैण्टीन में चाय पिलाने ले गया। केवल मैं ही बात करता जा रहा था। आखिर वह बात भी क्या करता-उसे बात करना आता ही कहाँ था। मुझे फिलॉसफी में सबसे ऊँचे नम्बर मिले थे। मैंने प्रश्नों के उत्तर कैसे-कैसे दिये, इसका मैं रस-विभोर होकर वर्णन करता जा रहा था। चाय पीकर हम दोनों आधी मील दूर एक तालाब के किनारे जा बैठे। वह वैसा ही चुप था। मैंने साइकोऐनलिसिस की बात छेड़ दी थी। जब मेरी धारा-प्रवाह बात से वह कुछ उकताने लगता तब वह पत्थर उठाकर तालाब में फेंक मारता। पानी की सतह पर लहरें बनतीं और डुप्प-डुप्प की आवाज।
साँझ पानी के भीतर लटक गयी थी। सन्ध्या तालाब में प्रवेश कर नहीं रही थी। लाल-भड़क आकाशीय वस्त्र पानी में सूख रहे थे। और मैं सन्ध्या के इस रंगीन यौवन से उन्मत्त हो उठा था।
हम दोनों उठे चले, और दूर एक पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े हो रहे। एकाएक मैं अपने से चौंक उठा। पता नहीं क्यों, मैं स्वयं एक अजीब भाव से आतंकित हो उठा। उस पीपल-वृक्ष के नीचे अँधेरे में मैने उससे एक अजीब और विलक्षण आवेश में कहा, ‘‘शाम, रंगीन शाम, मेरे भीतर समा गयी है, बस गयी है। वह एक जादुई रंगीन शक्ति है। मुझे उस सुकुमार ज्वाला-ग्राही जादुई शक्ति से-यानी मुझसे मुझे डर लगता है।’’ और सचमुच, तब मुझे एक कँपकँपी आ गयी !!
इतने में शाम साँवली हो गयी। वृक्ष अँधेरे के स्तूप-व्यक्तित्व बन गये। पक्षी चुप हो उठे। एकाएक सब ओर स्तब्धता छा गयी। और, फिर इस स्तब्धता के भीतर से एक चम्पई पीली लहर ऊँचाई पर चढ़ गयी। कॉलेज के गुम्बद पर और वृक्षों के ऊँचे शिखरों पर लटकती हुई चाँदनी सफेद धोती सी चमकने लगी।
एकाएक मेरे कन्धे पर अपना शिथिल ढीला हाथ रख केशव ने मुझसे कहा, याद है एक बार तुमने सौन्दर्य की परिभाषा मुझसे पूछी थी ? मैंने उसकी बात की तरफ ध्यान न देते हुए बेरुखी-भरी आवाज में कहा, हाँ।
‘‘अब तुम स्वयं अनुभव कर रहे हो।’’
मैं नहीं जानता कि मैं क्या अनुभव कर रहा था। मैं केवल यही कह सकता हूँ कि किसी मादक अवर्णनीय शक्ति ने मुझे भीतर से जकड़ लिया था। मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ कि उस समय मेरे-अन्तःकरण के भीतर एक कोई और व्यक्तित्त्व बैठा था। मैं उसे महसूस कर रहा था। कई बार उसे महसूस कर चुका था। किन्तु अब तो उसने भीतर से मुझे बिलकुल ही पकड़ लिया था। ‘‘मैं जो स्वयं था वह स्वयं हो गया था। अपने से ‘बृहत्तर’, विलक्षण अस्वयं।’’
एकाएक उस पाषाण-मूर्ति-मित्र की भीतरी रिक्तता पर मेरा ध्यान हो आया। वह मुझसे कितना दूर है, कितना भिन्न है, कितना अलग है-अवांछनीय रूप से भिन्न ! !
वह मुझसे पण्डिताऊ भाषा में कह रहा था, किसी वस्तु या दृश्य या भाव से मनुष्य जब एकाकार हो जाता है तब सौन्दर्य बोध होता है। सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट वस्तु और उसका दर्शन, इन दो पृथक् तत्त्वों का भेद मिटकर सब्जेक्ट ऑब्जेक्ट से तादात्म्य प्राप्त कर लेता है तब सौन्दर्य भावना उद्बुद्ध होती है ! !
मैंने उसकी बात की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। सौन्दर्य की परिभाषा वे करें जो उससे अछूते हैं, जैसे मेरा मित्र केशव ! उनकी परिभाषा सही हो तो क्या, गलत हो तो क्या ! इससे क्या होता जाता है ! !
दिन गुजरते गये। एक ही गांव के हम दो साथी, भिन्न प्रकृति के, भिन्न गुण-धर्म के, भिन्न दशाओं के। एक-दूसरे से उकता उठने के बावजूद हम दोनों मिल जाते। चर्चा करने लगते। मेरी कतरनी जैसी चलती। केशव साँकल में लगे हुए, फिर भी खुले हुए, ढीले ताले-सा प्रतीत होता। कोई मकान के अन्दर जाये, देख-भाल ले, चोर-चपाटी कर ले, लेकिन जाते वक्त साँकल में ताला जरूर अटका जाये, वह भी खुला हुआ; चाबी लगाने की जरूरत नहीं। ताला भीतर से टूटा है, चाबी लग ही नहीं सकती।
लेकिन इस ताले में एक दिन अकस्मात चाबी भी लग गयी। छुट्टी का दिन। वृक्षों के समीप धूप अलसा रही थी। मैं घर में बैठे-बैठे ‘बोर’ हो रहा था। मैंने साइकिल पर आते हुए और धूप में चमकते हुए एक चेहरे को दूर से देखा।
इधर मैंने काफी कविताएँ लिख ली थीं। सोचा, शिकार खुद ही जाल में फँसने आ रहा है। केशव का चेहरा उत्तप्त था। चेहरे पर कुछ नयी बात थी जिसको मैं पहचान नहीं पाया। कविताओं से मुझे इतनी फुरसत नहीं थी कि केशव की तरफ ध्यान दे सकूँ। मैं तो अपने नशे में रहता था।
अगर मैं बोलना न शुरू करता तो चुप्पी काली होकर घनी और घनी होकर और भी काली और लम्बी हो जाती। इसलिए मैंने ही बोलना शुरू किया, ‘‘कैसे निकले ?’’
केशव गरदन एक ओर गिराकर रह गया। उसके बाल तब आधे माथे पर आ गये। मुझे लगा, वह आराम करना चाहता है। उसने आरम्भ किया, ‘‘मैंने तो बहुच-बहुत सोचा कि ईस्थेटिक एक्सपीरिएन्स क्या है। आज मैंने इसी सम्बन्ध में कुछ लिखा है। तुम्हें सुनाने आया हूँ।’’
भीतर दिल में मेरी नानी मर गयी। मैं खुद कविताएँ सुनाने की ख्वाहिश रखता था। अब यह केशव अपनी सुनाने बैठेगा। मेरी सारी दुपहर खराब हो जायेगी। शीः।
मैंने प्रस्ताव रखा, ‘‘अपने उस विषय की बात ही क्यों न कर लें।’’
‘‘ज़रूर; लेकिन तुम्हें डिसिप्लिन से बात करनी होगी।’’ यह कहकर वह मुस्करा दिया !!
यह मुस्कराहट मुझे चुभ गयी। तो क्या मैं इतना पागल हूँ कि बात करने में भटक जाता हूँ ! इस साले ने बहुत ध्यानपूर्वक मेरे स्वाभाव का अध्ययन किया होगा। शायद मैं इसे बहुत ‘बोर’ करता रहा हूँगा। अपने स्वभाव के अध्ययन के इतने अधिक और इतने प्रदीर्घ अवसर किसी को देना शायद उचित नहीं था। मैं तो उल्लू सरीखा बोलता जाता हूँ और ये हजरत अपने दिमाग की नोटबुक में मेरी हर गलती टीप लेते हैं !
मैंने विश्वास दिलाने की जबरजस्त चेष्टा की और कुचेष्टा करते हुए ‘‘बात बिलकुल ढंग से ही होगी।’’
उसने कहा, ‘‘मैंने तुम्हें बताया था कि ‘निज’ और ‘पर’ ‘स्व-पक्ष’ और ‘वस्तु-पक्ष’ दोनों जब एक हो जाते हैं तब तादातम्य उत्पन्न होता है !’’
उसके भावों की गम्भीरता कुछ ऐसी थी, चेहरा उसने इतना सीरियस बना रखा था कि मुझे अपनी हँसी दबा देनी पड़ी। पहली बात तो यह है कि मुझे उसकी शब्दावली अच्छी नहीं लगी। यह तो मैं जनता हूँ कि सारे दर्शन का मूल आधार सब्जेक्ट-ऑब्जेक्ट रिलेशनशिप की कल्पना है-स्व-पक्ष और वस्तु-पक्ष की परिकल्पनाएँ और उन दो पक्षों के परस्पर सम्बन्ध की कल्पना के आधार पर ही दर्शन खड़ा होता है। अथवा यूँ कहिए की ज्ञान-मीमांसा खड़ी होती है। एपिस्टॅमॉलॉजी अर्थात् ज्ञान-मीमांसा की बुनियाद पर ही परिकल्पनाओं के प्रसाद की रचना की गयी है। इस दृष्टि से देखा जाये तो मुझे वाक्य पर हँसने की जरूरत नहीं थी। मैं उसकी स्थापना को विवाद्य मान सकता हूँ, हास्यास्पद नहीं।
फिर भी मैं हँस पड़ा-इसलिए कि मुझे उसके शब्दों में, उसके स्वयं के विचित्र व्यक्तित्व की झलक दिखलाई दी। वही बोझिल, गतिहीन, ठण्डा, पाषाणवत् व्यक्तित्व !!
उसकी भौहें कुछ आकुंचित हुईं। फीका, पीला चेहरा, किंचित् विस्मय से मेरी ओर वही ठण्डी दृष्टि डालने लगा-मानो वह मेरे रुख का अध्ययन करना चाहता हो।
मैंने कहा, ‘‘भाई मुझे तादात्म्य और तदाकारिता की बात समझ में नहीं आयी। सच तो यह है कि किसी वस्तु में तदाकार नहीं हो पाता। तदाकारिता की बात का मैं खण्डन नहीं करता, किन्तु मैं उसको एक मान्यता के रूप में ग्रहण नहीं करना चाहता।’’
उसने कहा, ‘‘क्यों ?’’
मैंने जवाब दिया, ‘‘एक तो मैं वस्तु-पक्ष का ठीक-ठीक अर्थ नहीं समझता। हिन्दी में मन से बाह्य वस्तु को ही वस्तु समझा जाता है-मेरा खयाल है। मैं कहता हूँ कि मन का तत्त्व भी वस्तु हो सकता है। और अगर यह मान लिया जाये कि मन का तत्त्व भी एक वस्तु है तो ऐसे तत्त्व के साथ तदाकारिता या तादातम्य का कोई मतलब नहीं होता क्योंकि वह तत्त्व मन ही का एक भाग है, हाँ, मैं इस मन के तत्त्व के साथ तटस्थता का रुख की कल्पना कर सकता हूँ; तदाकारिता नहीं।’’
मेरे स्वर और शब्द की हल्की धीमी गति ने उसे विश्वास दिला दिया कि मैं उसकी बात उड़ाने के लिए नहीं कह रहा हूँ, वरन् उसकी बातें समझने में महसूस होनेवाली कठिनाई का बयान कर रहा हूँ।
आखिकार वह मेरा मित्र था, बुद्धिमान और कुशाग्र था। उसने मेरी ओर देखकर किंचित् स्मित किया और कहने लगा, ‘‘तुम एक लेखक की हैसियत से बोल रहे हो इसलिए ऐसा कहते हो। किन्तु सभी लोग लेखक नहीं हैं। दर्शक हैं, पाठक हैं, श्रोता हैं। वे हैं, इसलिए तुम भी हो-यह नहीं कि तुम हो इसलिए वे हैं !! वे तुम्हारे लिए नहीं हैं, तुम उनके सम्बन्ध से हो । पाठक या श्रोता तादात्म्य या तन्मयता से बातें शुरू करें तो तुम्हें आश्चर्य नहीं होना चाहिए।’’
मेरे मुँह से निकला, ‘‘तो ?’’
उसने जारी रखा, ‘‘तो यह कि लेखक की हैसियत से, सृजन-प्रक्रिया के विश्लेषण के रास्ते से होते हुए सौन्दर्य-मीमांसा करोगे या पाठक अथवा दर्शक की हैसियत से, कालानुभव के मार्ग से गुजरते हुए सौन्दर्य की व्यख्या करोगे ? इस सवाल का जवाब दो !’’
मैं उसकी चपेट में आ गया। मैं कह सकता था कि दोनों करूँगा। लेकिन मैंने ईमानदारी बरतना उचित समझा। मैंने कहा, ‘‘मैं तो लेखक की हैसियत से ही सौन्दर्य की व्याख्या करना चाहूँगा। इसलिए नहीं कि मैं लेखक को कोई बहुत ऊँचा स्थान देना चाहता हूँ वरन् इसलिए कि मैं वहाँ अपने अनुभव की चट्टान पर खड़ा हुआ हूँ।’’
उसने भौहों को सिकोड़कर और फिर ढीला करते हुए जवाब दिया, ‘‘बहुत ठीक; लेकिन जो लोग लेखक नहीं हैं वे तो अपने ही अनुभव के दृढ़ आधार पर खड़े रहेंगे और उसी बुनियाद पर बात करेंगे। इसलिए उनके बारे में नाक-भौं सिकोड़ने की जरूरत नहीं। उन्हें नीचा देखना तो और भी गलत है।’’
उसने कहना जारी रखा, ‘‘इस बात पर बहुत कुछ निर्भर करता है कि आप किस सिरे से बात शुरू करेंगे ! यदि पाठक श्रोता या दर्शक के सिरे से बात शुरू करेंगे तो आपकी विचार-यात्रा दूसरे ढंग की होगी। यदि लेखक सिरे से सोचना शुरू करेंगे तो बात अलग प्रकार की होगी। दोनों सिरे से बात होगी सौन्दर्य-मीमांसा की है। किन्तु यात्रा की भिन्नता के कारण अलग-अलग रास्तों का प्रभाव विचारों को भिन्न बना देगा।
दो यात्राओं की परस्पर भिन्नता, अनिवार्य रूप से, परस्पर-विरोधी ही है-यह सोचना निराधार है। भिन्नता पूरक हो सकती है, विरोधी भी।
यदि हम यथा तथ्य बात भी करें तो भी बल (एम्फैसिस) की भिन्नता के कारण विश्लेषण भी भिन्न हो जायेगा।
किन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि प्रश्न किस प्रकार उपस्थित किया जाता है। प्रश्न तो आपकी विचार-यात्रा होगी। यदि इस विचार-यात्रा को रेगिस्तान में विचरण का पर्याय नहीं बनाना है तो प्रश्न को सही ढंग से प्रस्तुत करना होगा। यदि वह गलत ढंग से उपस्थित किया गया तो अगली सारी यात्रा गलत हो जायेगी।’’
उसने मेरी तरफ ध्यान से देखा। शायद वह देखना चाहता था कि मैं उसकी बात गम्भीरता पूर्वक सुन रहा हूँ या नहीं। शायद उसका यह विश्वास था कि मैं अत्यधिक इम्पल्सिव, सहज-उत्तेजित हो उठने वाला एक बेचैन आदमी की तरह हूँ। किन्तु मैं शान्त था। मेरे मन की केवल एक ही प्रतिक्रिया थ और वह यह कि केशव यह समझता है कि मैं समस्या को ठीक तरह से प्रस्तुत करना नहीं जानता। असल में उसकी यह धारणा मुझे बहुत अप्रिय लगी। मैं उसकी इस धारणा को बहुत पहले से जानता था। वह काई बार दुहरा भी चुका था। असल में वह बौद्धिक क्षेत्र में अपने को मुझसे उच्चतर समझता था। उसका ठण्डापन, उस के फलस्वरूप हम दो के बीच की दूरी, दूरी का सतत मान, और इस मान के बावजूद हम दोनों का नैकट्य-परस्पर घनिष्ठता और इसके विपरीत, दूरी के उस मान के कारण मेरे मन में केशव के विरुद्ध एक झख मारती खीझ और चिड़चिड़ापन—इन सब बातों से मेरे अन्तःकरण में, केशव से मेरे सम्बन्धों की भावना विषम हो गयी थी। सूत्र उलझ गये थे। मैं केसव को न तो पूर्णतः स्वीकृत कर सकता था न उसे अपनी जिन्दगी से हटा सकता था। इस प्रकार की मेरी स्थिति थी। फिर भी चूँकि ऐसी स्थित बहुत पहले से चली आयी थी इसलिए मुझे उसकी आदत पड़ गयी थी। किन्तु इस अभ्यस्तता के बावजूद कई बार में विक्षोभ फूट पड़ता और तब केशव की आँखों में एक चालाक रोशनी दिखाई देती, और मुझे सन्देह होता कि वह मेरी तरफ देखकर मुस्कराता हुआ कोई गहरी चोट कर रहा है। उस समय उसके विरुद्ध मेरे हृदय में घृणा का फोड़ा फूट पड़ता !!
किसी न किसी तरह मैं अपने को सामंजस्य और मानसिक सन्तुलन की समाधि में लिया; यह बताने के लिए मैं उसकी बातें ध्यानपूर्वक सुन रहा हूँ। मैंने उसके तर्कों और युक्तियों के प्रवाह में डूबकर मर जाना ही श्रेयस्कर समझा क्योंकि इस रवैये से या रुख से मेरे आत्मगौरव की रक्षा हो सकती थी। इस बीच मेरा मन दूर-दूर भटकने लगा। बाहर से शायद मैं धीर-प्रशान्त लग रहा था।
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