विविध उपन्यास >> विपात्र विपात्रगजानन माधव मुक्तिबोध
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प्रस्तुत है एक लघु उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
एक लघु उपन्यास या एक लम्बी कहानी, या डायरी का एक अंश, या लम्बा रम्य
गद्य, या चौंकानेवाला एक विशेष प्रयोग-कुछ भी संज्ञा इस पुस्तक को दी जा
सकती है। इन सबसे विशेष है यह कथा-कृति, जिसका प्रत्येक अंश अपने आपमें
परिपूर्ण और इतना जीवन्त है कि पढ़ना आरम्भ करे तो पूरी पढ़ने का मन हो,
और कहीं भी छोड़े तो लगे कि एक पूर्ण रचना पढ़ने का सुख मिला।
जैसे मुक्तिबोध की लम्बी कविता अपने आपमें विशिष्ट, एक नया प्रयोग; जैसे मुक्तिबोध की डायरी साहित्य को एक अनुपमेय देन; जैसे मुक्तिबोध की शीर्षकरहित कहानियाँ की कहीं भी पूर्ण हो जाएँ या जिनका ओर-छोर भी न मिले, वैसे ही है यह ‘विपात्र’-मुक्तिबोध की एक अद्भुत सृष्टि।
‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’, ‘एक साहित्यिक की डायरी’ तथा ‘काठ का सपना’ के बाद गजानन माधव मुक्तिबोध की एक समर्थ कृति।
जैसे मुक्तिबोध की लम्बी कविता अपने आपमें विशिष्ट, एक नया प्रयोग; जैसे मुक्तिबोध की डायरी साहित्य को एक अनुपमेय देन; जैसे मुक्तिबोध की शीर्षकरहित कहानियाँ की कहीं भी पूर्ण हो जाएँ या जिनका ओर-छोर भी न मिले, वैसे ही है यह ‘विपात्र’-मुक्तिबोध की एक अद्भुत सृष्टि।
‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’, ‘एक साहित्यिक की डायरी’ तथा ‘काठ का सपना’ के बाद गजानन माधव मुक्तिबोध की एक समर्थ कृति।
विपात्र
लम्बे-लम्बे पत्तों वाली घनी-घनी बड़ी इलायची की झाड़ी के पास जब हम खड़े
हो गये तो पीछे से हँसी का ठहाका सुनाई दिया। हमने परवाह नहीं की, यद्यपि
उस हँसी में एक हल्का उपहास भी था। हम बड़ी इलायची के सफ़ेद पीले, कुछ
लम्बे पँखुरियोंवाले फूलों को मुग्ध होकर देखते रहे। मैंने एक पँखुरी
तोड़ी और मुँह में डाल ली। उसमें बड़ी इलायची का स्वाद था। मैं खुश हो
गया। बड़ी इलायची की झाड़ी के पाँत में हींग की घनी हरी-भरी झाड़ी भी थी
और उसके आगे, उसी पाँत में पारिजात खिल रहा था। मेरा साथी, बड़ी ही
गंभीरता से प्रत्येक पेड़ के बॉटेनिकल नाम समझाता जा रहा था। लेकिन मेरा
दिमाग़ अपनी मस्ती में कहीं और भटक रहा था।
सभी तरफ़ हरियाला अँधेरा और हरियाला उजाला छाया हुआ था और बीच-बीच में सुनहली चादरें बिछी हुई थीं। अजीब लहरें मेरे मन में दौड़ रही थीं।
मैं अपने साथी को पीछे छोड़ते हुए, एक क्यारी पार कर, कटहल के बड़े पेड़ की छाया के नीचे आ गया और मुग्ध भाव से उसके उभरे रेशेवाले पत्तों पर हाथ फेरने लगा।
उधर, कुछ लोग, सीधे-सीधे ऊँचे-उठे बूढ़े छरहरे बादाम के पेड़ के नीचे गिरे कच्चे बादामों को हाथ से उठा-उठाकर टटोलते जा रहे थे। मैंने उनकी ओर देखा और मुँह फेर लिया। जेब में से दियासलाई निकालकर बीड़ी सुलगायी और उनके बीच में सोचने ही वाला था कि इतने में दूर से एक मोटे सज्जन आते दिखाई दिए। उनके हाथ में फूलों के कई गुच्छे थे। वे विलायती फूल थे, अलग डिजाइनों के, अलग रूप-रंग के, जो गुजराती स्त्रियों की सादा किन्तु साफ़-सफ़ेद साड़ियों की किनारियों की याद दिलाते थे।
जाने क्यों मुझे लगा कि वे फूल उनके हाथों में शोभा नहीं देते क्योंकि वे हाथ उन फूलों के योग्य नहीं हैं। मैंने अपनी परीक्षा करनी चाही। आखिर मैं उनके बारे में ऐसा क्यों सोचता हूँ ? एक खयाल तैर आया कि वे सज्जन किसी दूसरे, अपने ‘बड़े’ की हूबहू नक़ल कर रहे हैं; उन्होंने अपने जाने-अनजाने किसी बड़े आदमी के रास्ते पर चलना मंजूर किया है। उनके हाथ में फूल इसलिए नहीं कि उन्हें वे प्यारे हैं, बल्कि इसलिए हैं कि उनका ‘आराध्य व्यक्ति’ बागवानी का शौक़ीन है और दूर अहाते के पास कहीं वह खुद भी फूलों को डण्ठलों-सहित चुन रहा है।
वे सज्जन मेरे पास आ जाते हैं। मुझे फूलों का एक गुच्छा देते हैं, कहते हैं, ‘‘कितना ख़ूबसूरत है !’’
मैं उनके चेहरे की तरफ़ देखता रह जाता हूँ। तानपूरे पर गाने वाले किसी शास्त्रीय नौजवान संगीतकार की मुझे याद आ जाती है। हाँ, वैसा ही उसका रियाज़ है। लेकिन, काहे का ? ‘आराध्य’ की उपासना का !
अपने ख़याल पर मैं मुस्करा उठता हूँ, और उनके कन्धे पर हाथ रखकर कहता हूँ—
‘यार इन फूलों में मज़ा नहीं आता। एक कप चाय पिलवाओ।’’
चाय की बात सुनकर वे ठठाकर हँस पड़ते हैं। बहुत सरगरमी से, और प्यार भरकर अपने सफ़ेद झक् कुरते में से एक रुपये का नोट निकालकर मुझे दे देते हैं, ‘‘जाइए सिंह साहब के साथ। पी आइए !’’
मैं खुशी से उछल पड़ता हूँ। वे आगे बढ़ जाते हैं। मैं पीछे से चिल्लाकर कहता हूँ, ‘‘राव साहब की जय हो !’’
मैं सोचता था, मेरी आवाज़ बग़ीचे में दूर-दूर तक जाएगी। लेकिन लोग अपने में डूबे हुए थे। सिर्फ़ सिंह साहब, हींग की झाड़ी से एक पत्ता मुझे लाकर दे रहा था।
मैंने कहा, ‘‘सिंह साहब, तुम्हारा हेमिंग्वे मर गया।’’
जगत सिंह स्तब्ध हो गया। वह कुछ नहीं कह सका। उसने सिर्फ इतना ही पूछा, ‘‘कहाँ पढ़ा ? कब मरा ?’’
मैंने उसे हेमिंग्वे की मृत्यु की पूरी परिस्थिति समझायी। समझाते-समझाते मुझे भी दुःख होने लगा। मैंने कहा, ‘‘जान-बूझकर उसने किया ऐसा।’’
जगत सिंह ने, जिसे हम सिंह साहब कहते थे, पूछा, ‘‘बंदूक उसने खुद, अपने-आप पर चला ली ?’’
मैंने कहा, ‘‘नहीं वह चल गयी और फट गयी। मृत्यु आकस्मिक हुई।’’
जगत सिंह ने कहा, ‘‘अजीब बात है !’’
मैं आगे चलने लगा। मेरे मुँह से बात झरने लगी ! ‘‘हेमिंग्वे कई दिनों से चुप और उदास था। सम्भव है अपनी ‘आत्महत्या’ के बारे में सोचता रहा हो, यद्यपि उसकी मृत्यु आकस्मिक कारणों से ही।’’
मेरे सामने एक लेखक-कलाकार की संवेदनाओं के, उसके जीवन के स्वकल्पित चित्र तैरते जा रहे थे। इतने में मैंने देखा कि बगीचे के अहाते के पश्चिमी छोर पर खड़े हुए टूटे फव्वारे के पासवाली क्यारी के पास से राव साहब गुज़र रहे हैं। उनकी श्वेत धोती शरद् के आतप में झलमिला रही है....कि इतने में वहाँ से घबरायी हुई लेकिन संयमित आवाज़ आती है, ‘‘साँप, साँप !’’
मैं और जगत सिंह ठिठक जाते हैं। मुझे लगता है जैसे अपशकुन हुआ हो। सब लोग एक उत्तेजना में उधर से निकल पड़ते हैं। आम के पेड़ों के जमघट में खड़े एक बूढ़े युक्लिप्टस के पेड़ की ओट, हाथ-भर का मोटा साँप लहराता हुआ भागा जा रहा था।
मैं स्तब्ध-मुग्ध रह गया। क्या मस्त, लहराती हुई चाल थी ! बिलकुल काला लेकिन साँवली-पीली डिज़ाइनोंइवाला ! नौजवान माली हाथ में डण्डा लेकर खड़ा था। उस पर वार नहीं कर रहा था। सबने कहा, ‘‘मारो मारो।’’ लेकिन वह अड़ा रहा।
‘‘मैं नहीं मारूँगा साहब। यह यहाँ का देवता है। रखवाली करता है।’’
इतने में हमारे बीच खड़े हुए एक नौजवान ने उसके हाथ से डण्डा छीन लिया। लेकिन तब तक साँप झाड़ियों में गायब हो चुका था।
एक विफलता और प्रतिक्रियाहीनता का भाव हम सब में छा गया। साँप के किस्से चलने लगे। वह क्रेट था, या कोब्रा ! वह पनियल था या अजगर ! हमारे यहाँ का जुओलॉजिस्ट ज़्यादा नहीं जानता था। लेकिन हमारे डायरेक्टर साहब लगातार बताते जा रहे थे। आश्चर्य की बात है कि साँप सर्दी के मौसम में निकला। ज़्यादातर वे बरसात और गर्मी के मौसम में निकलते हैं। मैं और जगत सिंह उस भीड़ से हट गए और क्यारियों के बीच बनी हुई पगडण्डियों पर चलने लगे। मैंने जगत सिंह को कहा, ‘‘लोग बातों में लगे हैं। जल्दी निकल चलो। नहीं तो वे जाने नहीं देंगे।’’
हमको मालूम नहीं था कि हमारे पीछे ज़रा दूरी पर राव साहब चल रहे हैं। उन्होंने वहीं से कहा, ‘‘हाँ...हाँ, जल्दी निकल जाओ नहीं तो, लोग अटका देंगे।’’ वे हँस पड़े। उनकी हँसी में भी हमने हल्के-व्यंग्य की गूँज सुनी।
अब वे हमसे बराबर-बराबर आये और कहने लगे, ‘‘साँप के बारे में तो सब लोग कह रहे हैं। कोई मुझसे नहीं पूछता कि आखिर मैंने उसे कैसे देखा, वह कैसे निकला, कैसे भागा।’’ यह कहकर वे अपने पर ही हँसने लगे।
मैंने कहा, ‘‘शायद माली ने उसे पहले-पहल देखा था। क्या सच है कि नाग यहाँ की रखवाली करता है ?’’
‘‘कहते हैं कि बगीचे में कहीं धन गड़ा हुआ है और आज के मालिक के परदादे की आत्मा नाग बनकर उस धन की रखवाली करने यहाँ घूमा करता है। इसलिए, माली ने उसे मारा नहीं।’’
जगत से कहा, ‘‘अजीब अन्धविश्वास है !’’
इस बीच हम गुलाब के फूलों-लदी बेल से छाये हुए कुंजद्वार से निकलकर लुकाट के पेड़ के पास आ गये। उधर, अमरक का घना पेड़ खड़ा हुआ था। बग़ीचा सचमुच महक रहा था। फूलों से लदा था। बहार में आया था। एक आम के नीचे डायरेक्टर साहब के आस-पास बहुत-से लोग खड़े हुए थे, जिनके सिर पर आम की डालियाँ छाया कर रही थीं।
सब ओर रोमैण्टिक वातावरण छाया हुआ था।
मैंने अपने आपसे कहा, क्या फूल महक रहे हैं ! बगीचा लहक उठा है।....
‘‘कुत्ते मारकर डालें हैं पेड़ों की जड़ों में।’’ यह राव साहब थे।
मैं विस्मित हो उठा। जगत स्तब्ध हो गया।
मेरे मुँह से सिर्फ इतना फूटा, ऐसा !’’
लेकिन जगत ने कहा, ‘‘नाग को छोड़ देते हो और कुत्तों को मार डालते हो !’’
राव साहब ने हँसते हुए कहा, ‘‘कुत्ते जानता है। नाग तो देवता है, अधिकारी है !’’
कहकर राव साहब ने मुझे देखा। लेकिन मेरा मुँह पीला पड़ चुका था। असल में उस आशय के, वे मेरे शब्द थे, जिसका प्रयोग किया दिन मैंने किया था। उसका सन्दर्भ जगत नहीं समझ सका।
मैं तेजी से कदम बढ़ाकर फाटक की ओर जाने लगा। मैंने जगत से कहा, ‘‘एक बार मुझे बॉस पर गुस्सा आ गया था। शायद तुम भी तो थे उस वक्त ! जब दरबार बरख़ास्त हुआ तो बॉस की आलोचना करते हुए मैंने कहा कि ये लोग जनता को कुत्ता समझते हैं ! राव साहब मेरे उसी वाक्य की ओर इशारा कर रहे थे।’’
जगत मेरे दुःख को समझ नहीं सका मेरे रुख को और बॉस के रुख को, बहुत-से मामलों में जैसा कि दिखाई दिया करता था, खूब समझता था, उसने सिर्फ़ यही कहा, ‘‘राव साहब से बचकर रहना, कहीं तुम्हें गड्ढे में न गिरा दें !’’
जगत के मन में राव साहब के सम्बन्ध में जो गुत्थी थी उसे मैं ख़ूब समझता था। दोनों आदमी दुनिया के दो सिरों पर खड़े होकर एक-दूसरे को टोकते नज़र आ रहे थे। दोंनो एक-दूसरे को अगर बुरा नहीं तो सिरफिरा ज़रूर समझते थे। अगर मन-ही-मन दी जानेवाली गालियों की छानबीन की जाए तो पता चलेगा कि राव साहब जगत को आधा पागल या दिमाग़ी फ़ितूर रखनेवाला ख़ब्ती ज़रूर समझते थे। इसके एवज में जगत राब साहब को कुंजी रट-रटकर एम.ए. पास करनेवाला कोई गँवार मिडिलची मानता था। राव साहब जगत के हैमिंग्वे, फॉकनर और फर्राटेदार अंग्रेज़ी को अच्छी नज़रों से नहीं देखता था और उधर जगत राव साहब की गम्भीरता, अनुशासनप्रियता, श्रम करने की अपूर्व शक्ति और धैर्य के सामने पराजित हो गया था।
सभी तरफ़ हरियाला अँधेरा और हरियाला उजाला छाया हुआ था और बीच-बीच में सुनहली चादरें बिछी हुई थीं। अजीब लहरें मेरे मन में दौड़ रही थीं।
मैं अपने साथी को पीछे छोड़ते हुए, एक क्यारी पार कर, कटहल के बड़े पेड़ की छाया के नीचे आ गया और मुग्ध भाव से उसके उभरे रेशेवाले पत्तों पर हाथ फेरने लगा।
उधर, कुछ लोग, सीधे-सीधे ऊँचे-उठे बूढ़े छरहरे बादाम के पेड़ के नीचे गिरे कच्चे बादामों को हाथ से उठा-उठाकर टटोलते जा रहे थे। मैंने उनकी ओर देखा और मुँह फेर लिया। जेब में से दियासलाई निकालकर बीड़ी सुलगायी और उनके बीच में सोचने ही वाला था कि इतने में दूर से एक मोटे सज्जन आते दिखाई दिए। उनके हाथ में फूलों के कई गुच्छे थे। वे विलायती फूल थे, अलग डिजाइनों के, अलग रूप-रंग के, जो गुजराती स्त्रियों की सादा किन्तु साफ़-सफ़ेद साड़ियों की किनारियों की याद दिलाते थे।
जाने क्यों मुझे लगा कि वे फूल उनके हाथों में शोभा नहीं देते क्योंकि वे हाथ उन फूलों के योग्य नहीं हैं। मैंने अपनी परीक्षा करनी चाही। आखिर मैं उनके बारे में ऐसा क्यों सोचता हूँ ? एक खयाल तैर आया कि वे सज्जन किसी दूसरे, अपने ‘बड़े’ की हूबहू नक़ल कर रहे हैं; उन्होंने अपने जाने-अनजाने किसी बड़े आदमी के रास्ते पर चलना मंजूर किया है। उनके हाथ में फूल इसलिए नहीं कि उन्हें वे प्यारे हैं, बल्कि इसलिए हैं कि उनका ‘आराध्य व्यक्ति’ बागवानी का शौक़ीन है और दूर अहाते के पास कहीं वह खुद भी फूलों को डण्ठलों-सहित चुन रहा है।
वे सज्जन मेरे पास आ जाते हैं। मुझे फूलों का एक गुच्छा देते हैं, कहते हैं, ‘‘कितना ख़ूबसूरत है !’’
मैं उनके चेहरे की तरफ़ देखता रह जाता हूँ। तानपूरे पर गाने वाले किसी शास्त्रीय नौजवान संगीतकार की मुझे याद आ जाती है। हाँ, वैसा ही उसका रियाज़ है। लेकिन, काहे का ? ‘आराध्य’ की उपासना का !
अपने ख़याल पर मैं मुस्करा उठता हूँ, और उनके कन्धे पर हाथ रखकर कहता हूँ—
‘यार इन फूलों में मज़ा नहीं आता। एक कप चाय पिलवाओ।’’
चाय की बात सुनकर वे ठठाकर हँस पड़ते हैं। बहुत सरगरमी से, और प्यार भरकर अपने सफ़ेद झक् कुरते में से एक रुपये का नोट निकालकर मुझे दे देते हैं, ‘‘जाइए सिंह साहब के साथ। पी आइए !’’
मैं खुशी से उछल पड़ता हूँ। वे आगे बढ़ जाते हैं। मैं पीछे से चिल्लाकर कहता हूँ, ‘‘राव साहब की जय हो !’’
मैं सोचता था, मेरी आवाज़ बग़ीचे में दूर-दूर तक जाएगी। लेकिन लोग अपने में डूबे हुए थे। सिर्फ़ सिंह साहब, हींग की झाड़ी से एक पत्ता मुझे लाकर दे रहा था।
मैंने कहा, ‘‘सिंह साहब, तुम्हारा हेमिंग्वे मर गया।’’
जगत सिंह स्तब्ध हो गया। वह कुछ नहीं कह सका। उसने सिर्फ इतना ही पूछा, ‘‘कहाँ पढ़ा ? कब मरा ?’’
मैंने उसे हेमिंग्वे की मृत्यु की पूरी परिस्थिति समझायी। समझाते-समझाते मुझे भी दुःख होने लगा। मैंने कहा, ‘‘जान-बूझकर उसने किया ऐसा।’’
जगत सिंह ने, जिसे हम सिंह साहब कहते थे, पूछा, ‘‘बंदूक उसने खुद, अपने-आप पर चला ली ?’’
मैंने कहा, ‘‘नहीं वह चल गयी और फट गयी। मृत्यु आकस्मिक हुई।’’
जगत सिंह ने कहा, ‘‘अजीब बात है !’’
मैं आगे चलने लगा। मेरे मुँह से बात झरने लगी ! ‘‘हेमिंग्वे कई दिनों से चुप और उदास था। सम्भव है अपनी ‘आत्महत्या’ के बारे में सोचता रहा हो, यद्यपि उसकी मृत्यु आकस्मिक कारणों से ही।’’
मेरे सामने एक लेखक-कलाकार की संवेदनाओं के, उसके जीवन के स्वकल्पित चित्र तैरते जा रहे थे। इतने में मैंने देखा कि बगीचे के अहाते के पश्चिमी छोर पर खड़े हुए टूटे फव्वारे के पासवाली क्यारी के पास से राव साहब गुज़र रहे हैं। उनकी श्वेत धोती शरद् के आतप में झलमिला रही है....कि इतने में वहाँ से घबरायी हुई लेकिन संयमित आवाज़ आती है, ‘‘साँप, साँप !’’
मैं और जगत सिंह ठिठक जाते हैं। मुझे लगता है जैसे अपशकुन हुआ हो। सब लोग एक उत्तेजना में उधर से निकल पड़ते हैं। आम के पेड़ों के जमघट में खड़े एक बूढ़े युक्लिप्टस के पेड़ की ओट, हाथ-भर का मोटा साँप लहराता हुआ भागा जा रहा था।
मैं स्तब्ध-मुग्ध रह गया। क्या मस्त, लहराती हुई चाल थी ! बिलकुल काला लेकिन साँवली-पीली डिज़ाइनोंइवाला ! नौजवान माली हाथ में डण्डा लेकर खड़ा था। उस पर वार नहीं कर रहा था। सबने कहा, ‘‘मारो मारो।’’ लेकिन वह अड़ा रहा।
‘‘मैं नहीं मारूँगा साहब। यह यहाँ का देवता है। रखवाली करता है।’’
इतने में हमारे बीच खड़े हुए एक नौजवान ने उसके हाथ से डण्डा छीन लिया। लेकिन तब तक साँप झाड़ियों में गायब हो चुका था।
एक विफलता और प्रतिक्रियाहीनता का भाव हम सब में छा गया। साँप के किस्से चलने लगे। वह क्रेट था, या कोब्रा ! वह पनियल था या अजगर ! हमारे यहाँ का जुओलॉजिस्ट ज़्यादा नहीं जानता था। लेकिन हमारे डायरेक्टर साहब लगातार बताते जा रहे थे। आश्चर्य की बात है कि साँप सर्दी के मौसम में निकला। ज़्यादातर वे बरसात और गर्मी के मौसम में निकलते हैं। मैं और जगत सिंह उस भीड़ से हट गए और क्यारियों के बीच बनी हुई पगडण्डियों पर चलने लगे। मैंने जगत सिंह को कहा, ‘‘लोग बातों में लगे हैं। जल्दी निकल चलो। नहीं तो वे जाने नहीं देंगे।’’
हमको मालूम नहीं था कि हमारे पीछे ज़रा दूरी पर राव साहब चल रहे हैं। उन्होंने वहीं से कहा, ‘‘हाँ...हाँ, जल्दी निकल जाओ नहीं तो, लोग अटका देंगे।’’ वे हँस पड़े। उनकी हँसी में भी हमने हल्के-व्यंग्य की गूँज सुनी।
अब वे हमसे बराबर-बराबर आये और कहने लगे, ‘‘साँप के बारे में तो सब लोग कह रहे हैं। कोई मुझसे नहीं पूछता कि आखिर मैंने उसे कैसे देखा, वह कैसे निकला, कैसे भागा।’’ यह कहकर वे अपने पर ही हँसने लगे।
मैंने कहा, ‘‘शायद माली ने उसे पहले-पहल देखा था। क्या सच है कि नाग यहाँ की रखवाली करता है ?’’
‘‘कहते हैं कि बगीचे में कहीं धन गड़ा हुआ है और आज के मालिक के परदादे की आत्मा नाग बनकर उस धन की रखवाली करने यहाँ घूमा करता है। इसलिए, माली ने उसे मारा नहीं।’’
जगत से कहा, ‘‘अजीब अन्धविश्वास है !’’
इस बीच हम गुलाब के फूलों-लदी बेल से छाये हुए कुंजद्वार से निकलकर लुकाट के पेड़ के पास आ गये। उधर, अमरक का घना पेड़ खड़ा हुआ था। बग़ीचा सचमुच महक रहा था। फूलों से लदा था। बहार में आया था। एक आम के नीचे डायरेक्टर साहब के आस-पास बहुत-से लोग खड़े हुए थे, जिनके सिर पर आम की डालियाँ छाया कर रही थीं।
सब ओर रोमैण्टिक वातावरण छाया हुआ था।
मैंने अपने आपसे कहा, क्या फूल महक रहे हैं ! बगीचा लहक उठा है।....
‘‘कुत्ते मारकर डालें हैं पेड़ों की जड़ों में।’’ यह राव साहब थे।
मैं विस्मित हो उठा। जगत स्तब्ध हो गया।
मेरे मुँह से सिर्फ इतना फूटा, ऐसा !’’
लेकिन जगत ने कहा, ‘‘नाग को छोड़ देते हो और कुत्तों को मार डालते हो !’’
राव साहब ने हँसते हुए कहा, ‘‘कुत्ते जानता है। नाग तो देवता है, अधिकारी है !’’
कहकर राव साहब ने मुझे देखा। लेकिन मेरा मुँह पीला पड़ चुका था। असल में उस आशय के, वे मेरे शब्द थे, जिसका प्रयोग किया दिन मैंने किया था। उसका सन्दर्भ जगत नहीं समझ सका।
मैं तेजी से कदम बढ़ाकर फाटक की ओर जाने लगा। मैंने जगत से कहा, ‘‘एक बार मुझे बॉस पर गुस्सा आ गया था। शायद तुम भी तो थे उस वक्त ! जब दरबार बरख़ास्त हुआ तो बॉस की आलोचना करते हुए मैंने कहा कि ये लोग जनता को कुत्ता समझते हैं ! राव साहब मेरे उसी वाक्य की ओर इशारा कर रहे थे।’’
जगत मेरे दुःख को समझ नहीं सका मेरे रुख को और बॉस के रुख को, बहुत-से मामलों में जैसा कि दिखाई दिया करता था, खूब समझता था, उसने सिर्फ़ यही कहा, ‘‘राव साहब से बचकर रहना, कहीं तुम्हें गड्ढे में न गिरा दें !’’
जगत के मन में राव साहब के सम्बन्ध में जो गुत्थी थी उसे मैं ख़ूब समझता था। दोनों आदमी दुनिया के दो सिरों पर खड़े होकर एक-दूसरे को टोकते नज़र आ रहे थे। दोंनो एक-दूसरे को अगर बुरा नहीं तो सिरफिरा ज़रूर समझते थे। अगर मन-ही-मन दी जानेवाली गालियों की छानबीन की जाए तो पता चलेगा कि राव साहब जगत को आधा पागल या दिमाग़ी फ़ितूर रखनेवाला ख़ब्ती ज़रूर समझते थे। इसके एवज में जगत राब साहब को कुंजी रट-रटकर एम.ए. पास करनेवाला कोई गँवार मिडिलची मानता था। राव साहब जगत के हैमिंग्वे, फॉकनर और फर्राटेदार अंग्रेज़ी को अच्छी नज़रों से नहीं देखता था और उधर जगत राव साहब की गम्भीरता, अनुशासनप्रियता, श्रम करने की अपूर्व शक्ति और धैर्य के सामने पराजित हो गया था।
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