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रहस्य-रोमांच >> घर का भेदी

घर का भेदी

सुरेन्द्र मोहन पाठक

प्रकाशक : रवि पाकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : पेपर बैक
पुस्तक क्रमांक : 12544
आईएसबीएन :1234567890123

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अखबार वाला या ब्लैकमेलर?


फिर उसे अर्जुन की बात याद आयी कि संचिता ने उसे । जबरन ऊपर भेजा था क्योंकि उसका दिल कमजोरथा और लाश के पास बने रहने से उसे कुछ हो सकता था। उस लिहाज से तो खुद संचिता ने ही वो कुण्डी बाहर से लगाई हो सकती थी ताकि बेवा फिर नीचे न पहुंच जाती।

यानी कि वो भीतर हो सकती थी।

उसने हौले से कुण्डी एक तरफ सरकाई और दरवाजे को धक्का दिया। दरवाजा निशब्द खुला। उसने भीतर झांका तो भीतर नीमअन्धेरा पाया। वो एक विशाल बेडरूम था जिसकी परली दीवार के साथ लगे एक डबल बैड के एक पहलू में एक टेबल लैम्प जल रहा था जिसकी रोशनी सारे कमरे को रोशन करने के लिए काफी नहीं थी। बैड के पहलू में एक बन्द दरवाजा था जो जरूर अटैच्ड बाथरूम का था और वो औरत जरूर उस घड़ी बाथरूम में थी।

हिचहिचाते हुए उसने कमरे में कदम डाला और आवाज लगायी-“मिसेज बतरा! भावना जी!"
कोई उत्तर न मिला। पता नहीं आवाज उस तक पहुंची नहीं थी या बन्द दरवाजे के पीछे कोई था ही नहीं।
वो उसे दोबारा पुकारने ही वाला था कि एकाएक सीढ़ियों पर पड़ते भारी कदमों की आवाज हुई।
वो सकपकाया। वैसी आवाज पुलिस के भारी बूट ही कर सकते थे।
उसने सावधानी से बाहर झांका तो उसे पहले सिर्फ एक पीक कैप और फिर उसे पहने इन्स्पेक्टर चानना की सूरत दिखाई दी।
सत्यानाश!
बहुत नामुराद वक्त चुना था उसने ऊपर आने का। उसे वहां मौजूद पाकर उसके मिजाज से नावाकिफ वो नया पुलिसिया उसके साथ बहुत बुरा सलूक कर सकता था।
उसने व्याकुल भाव से कमरे में चारों तरफ निगाह दौड़ाई। तभी पिछला दरवाजा धीरे-धीरे खुलने लगा।
बाईं तरफ दीवार के साथ खड़ी एक गोदरेज की अलमारी ... थी।
भारी कदम सामने दरवाजे पर आकर ठिठके।
सुनील लपक कर अलमारी की ओट में हो गया।
वो ओट बिल्कुल नाकाफी थी लेकिन फिर भी किसी काम आ सकती थी तो सिर्फ इसलिये क्योंकि उधर कदरन अन्धेरा था।
'इन्स्पेक्टर चानना ने भीतर कदम रखा।
तभी एक सुन्दर युवती ने-जो कि यकीनन भावना थी-बाथरूम के खुले दरवाजे से बाहर कदम रखा।
"हल्लो, भावना।"-आगे बढ़ता इन्स्पेक्टर धीरे से बोला।
"हल्लो।"
भावना भावहीन स्वर में बोली-“आओ। आओ, सुखबीर।"
सुखबीर उसके करीब पहुंचा।
“मुझे नहीं मालूम था"-भावना, बोली-“कि तफ्तीश के लिये तुम यहां पहुंचे हो।"
“ड्यूटी भुगतानी पड़ती है।"-इन्स्पेक्टर बोला-“वैसे ये बदमजा जिम्मेदारी मुझे न ही उठानी पड़ती तो अच्छा होता।"
"वर्दी पर तीन सितारे दिखाई दे रहे हैं। इन्स्पेक्टर हो गये हो।"
"हां। एक साल हुआ।"
"मुबारक हो।”
"शुक्रिया।"
“मैं सोच रही थी कि पुलिस मुझे नीचे तलब करती ही होगी लेकिन क्योंकि तुम आये थे इसलिये मुझे नीचे बुलाने की जगह खुद ऊपर आ गये। मैं शुक्रगुजार हूं तुम्हारी कि तुमने मेरा ऐसा खयाल किया।" "मैं एक दोस्त की हैसियत से भी तो यहां आया हो सकता हूँ!"
"दोस्त?"
"हां।"
"दोस्त गायब नहीं हो जाते। किसी की जिन्दगी से एकाएक किनारा नहीं कर जाते। दोस्त दो साल बाद सूरत नहीं दिखाते।"
"वजह तुम जानती हो।"
“जानती तो हूं। मैंने शादी कर ली इसलिये तुम्हारी दोस्ती पर मेरा दावा खत्म हो गया। ठीक?"
"ये बात नहीं।"
“तो और क्या बात है?"
"मैं एक मामूली सब-इन्स्पेक्टर था जो कि कल भी धर्मपुरे में था, आज भी धर्मपुरे में है और कल भी धर्मपुरे में होगा। लेकिन तुम धर्मपुरे से उठकर नेपियन हिल पहुंच गयीं इसलिये दोस्ती बेमेल हो गयी।"

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