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रहस्य-रोमांच >> घर का भेदी

घर का भेदी

सुरेन्द्र मोहन पाठक

प्रकाशक : रवि पाकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : पेपर बैक
पुस्तक क्रमांक : 12544
आईएसबीएन :1234567890123

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अखबार वाला या ब्लैकमेलर?


"उस रात को पार्टी के मेहमानों में हर कोई हर किसी का जामिन है कि कत्ल के वक्त के आसपास कोई ऊपर से नीचे उतर कर नहीं आया था। इमरती की उस घाघरा, चोली, ओढ़नी वाली इतनी लाउड पोशाक की रू में तुम्हारे पर तो ये बात लागू नहीं होती।"
“तुम समझते हो कि संचिता के जीजा का कत्ल मैंने किया था?"
"तुम क्या समझाना चाहती हो?"
"तुम्हें कुछ समझाना क्यों जरूरी है?"
"कोई जरूरी नहीं है। तुम किसी और को भी समझा सकती हो।"
"और किसे?"
"पुलिस को।"
"पुलिस का इससे क्या वास्ता?"
"अभी तो नहीं है लेकिन कल का सूरज निकलते ही बन जायेगा।"
"कैसे?"
"पुलिस वाले भी तो अखबार पढ़ते हैं। जब तुम्हारी बाबत इतनी करारी बात ‘ब्लास्ट' में छपेगी तो पुलिस का अगला कदम क्या होगा, ये खुद समझ जाओगी या मैं समझाऊं?"
तत्काल उसके चेहरे पर घबराहट के भाव प्रकट हुए।
"औरत को फांसी की सजा सुनाने से हमारे मुल्क के जज लोग परहेज करते हैं, इसलिये फांसी तो तुम्हें नहीं होगी लेकिन उम्र कैद का अभी तुमने पहला ही महीना, बल्कि पहला ही हफ्ता, काटा होगा तो तुम कहने लगोगी कि काश तुम्हें फांसी ही मिली होती। खद्दर की खुरदरी पोशाक, सूखी रोटी, पतली दाल, डायन जैसी जरायमपेशा औरतों की सोहबत। बस, यही नसीब होगा तब तुम्हारा। ये शानोशौकत, ऐशोइशरत, सब पिछले जन्म की बातें लगने लगेंगी। चरस का कश शायद...."
"बस करो।"-वो कानों पर हाथ रखती कांपती-सी बोली “चुप कर जाओ।"
"मेरे चुप कर जाने से हकीकत थोड़े ही बदल जायेगी?"
"हकीकत वो नहीं है जो तुम समझ रहे हो।"
"तो क्या है हकीकत?"
"मैंने बतरा का कत्ल नहीं किया।”
"यानी कि इमरती से उसकी ड्रैस वाकई फैंसी ड्रैस के लिये उधार ली थी?"
"नहीं!"
"तो?"
"मैं सच बोलूँ तो मेरी बात का यकीन करोगे?"
“सच बोलोगी तो। सच पर यकीन तो हर कोई करता है।"
"तुम कर लोगे?" ..
"हां" - “हासिल जानकारी का बेजा इस्तेमाल तो नहीं करोगे? उसे भी अपने अखबार में तो नहीं छाप दोगे?"
"ऐसा कोई वादा माल को जांच परख के बाद किया जाता है लेकिन क्योंकि मेरे किन्हीं आइन्दा मंसूबों में तुम्हारा एक खास रोल है इसलिये पहले वादा करता हूं कि ऐसा नहीं करूंगा।"
"फिर सबसे पहले तो इसी बात का यकीन करो कि मैंने बतरा का कत्ल नहीं किया था।"
"तो क्या किया था?"
"इरादा किया था उसके कत्ल.का।"
"क्यों?"
"निरंजन चोपड़ा ने भड़काया था। बतरा उसे ब्लैकमेल कर रहा था। उसे बतरा की मौत में ही ब्लैकमेल से निजात दिखाई देती थी। उसे मालूम था कि बतरा की कोठी में एक पार्टी थी जिसमें मैं भी इनवाइटिड थी। उसने कहा था कि कोठी में अपनी मौजूदगी के दौरान मैं बतरा का काम तमाम कर देने की कोई जुगत करूं।"
"उसने कहा और तुमने मान लिया।"
"मजबूरन।"
"क्या मजबूरी थी? ये कि तुम्हारा ड्रग सप्लायर होने की वजह से तुम्हारी नकेल उसके हाथ में थी?"
"हां।"
“लिहाजा उसने एक तरह से तुम्हें ब्लैकमेल किया? धमकी दी कि अगर तुम उसका कहना नहीं मानोगी तो वो तुम्हारी ड्रग सप्लाई बन्द कर देगा? ब्लैकमेल से लड़ने के लिये उसने ब्लैकमेल का ही सहारा लिया?"
"हां" .
"कैसी लड़की हो तुम? इतने बड़े, इतने रसूख वाले बाप की बेटी हो और एक दो कौडी के आदमी से एक घटिया गैंगस्टर से इसलिये फंसी हुई हो क्योंकि उसके जरिये तुम्हारी नशे की तलब पूरी होती है? क्यों हो गुलाम नशे की? छोड़ क्यों नहीं देती हो?"
“नहीं छोड़ सकती।"
"क्यों?"
"वो नहीं छोड़ने देता। मैं 'निकल चेन' नहीं जाती तो वो मेरे पास पहुंच जाता है। मैं कहीं भी जा छुपूं,वो मुझे ढूंढ निकालता है। खुराक सामने होती है तो नहीं बाज आया जाता। मेरी हालत ऐसी है कि मैं तो कम्बल को छोड़ती हूं लेकिन कम्बल मुझे नहीं छोड़ता।"
“कम्बल छोड़ दे तो सुधर जाओगी?"
"ऐसा क्योंकर होगा?" "होगा। होगा तो सुधर जाओगी?" उसने उत्तर न दिया।
"तुम्हारी हालत उस बकरी जैसी है जो खुद अपने गले में रस्सी बांधती है, उसका दूसरा सिरा कसाई को थमाती है-जिसे कि वो एक खूंटे से बांध देता है और फिर फरियाद करती है कि वो तो बंधी हुई है, उसे तो जिबह होकर ही उस फंदे से निजात मिल सकती है।”
वो कुछ क्षण और खामोश रही और फिर दृढ़ स्वर में बोली “अगर निरंजन चोपड़ा से मेरा पीछा छूट जाये तो मैं ड्रग्स के करीब नहीं फटकूँगी। तो मैं अपने डैडी के सुझाये डिएडिक्शन प्रोग्राम को भी कुबूल कर लूंगी।"

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