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रहस्य-रोमांच >> घर का भेदी

घर का भेदी

सुरेन्द्र मोहन पाठक

प्रकाशक : रवि पाकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : पेपर बैक
पुस्तक क्रमांक : 12544
आईएसबीएन :1234567890123

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अखबार वाला या ब्लैकमेलर?


"सच पूछो तो यही बात थी। उसमें भी कुछ खूबियां थीं लेकिन ऐसी कोई नहीं थी जो कि दौलत वाली खूबी पर हावी हो जाती। वो भला था, शरीफ था, औरत की कद्र करने वाला था लेकिन बीवी को ऐशो इशरत और स्टाइल से रख पाने के साधन उसके नहीं थे।"
“आई सी।"
"सूरी खूबसूरत था। और.....ही वाज ए ग्रेट लवर। इसलिये मैं उसकी तरफ आकर्षित हुई। सागर साहब ने आला दिमाग पाया था और सारे हिन्दोस्तान में उनकी शोहरत थी। इसलिये मैं उनके भी मुतासिर हुये बिना न रह सकी।"
"लिहाजा ये चार शख्स वो चार चवन्नियां हैं जिनसे कि आपका रुपया बना?"
"यही समझ लो।"
"आपकी अभिलाषा दो रुपयों की होती तो आपकी जुस्तजू डवल हो जाती! चार रुपयों की होती तो आप सोलह चवन्नियों की तलबगार बन जातीं!"
"ऐसा नहीं था।"
“यानी कि चार तक ही ठीक था? बतरा की मौत से कोई वेकेन्सी नहीं हुई? सूरी जब फांसी चढ़ जायेगा, तब भी कोई वेकेन्सी नहीं होगी? आपसे नाउम्मीद होकर लेखक ऊटी या स्विट्जरलैंड भाग जायेगा तो भी कोई वेकेन्सी नहीं होगी? चानना तो पहले ही भागा हुआ है। मैडम, मुझे तो आपकी आइन्दा जिन्दगी बहुत खाली और खोखली लग रही है।"
"सूरी कातिल नहीं हो सकता। वो जरूर बरी हो जायेगा।"
"यानी कि अभी गुंजायश है?"
"तुम कुछ करो, प्लीज कुछ करो, जिससे साबित हो कि वो कातिल नहीं है।"
"असंभव को संभव करके दिखाऊं?"
"वो नहीं है कातिल । मैं सौ जन्म ये कबूल नहीं कर सकती कि उसने कत्ल किया है।"
"ये आप नहीं, उसके लिये आपका मोह बोल रहा है। वो घाटा आपसे ये कहलवा रहा है जो उसके फांसी चढ़ जाने की सूरत में आपको हो सकता है।"
"तुम जो मर्जी कह लो, मुझे जितना चाहे जलील कर लो लेकिन कुछ करो। कुछ करो। और नहीं तो कुछ करने की कोशिश तो करो। मैं तुम्हें....तुम्हें...."
"क्या? क्या करेंगी आप? चवन्नियों में मुझे अठन्नी का दर्जा दे देंगी? या पूरा रुपया ही मुझे मान लेंगी?"
वो खामोश रही। एकाएक उसके गोरे गालों पर आंसुओं की दो मोटी-मोटी बूंदें ढुलक पड़ी। “ओके । ओके।" -सुनील ने उसे दिलासा दिया-“वुई विल सी वाट कैन बी डन।"
“थें...थेंक्यू।"-वो रुंधे कंठ से बोली।
"लेकिन एक बात ध्यान में रखना। ऐसे मामलात में मैं जो कुछ करता हूं, किसी नवाजिश, किसी इनाम, किसी शाबाशी की खातिर नहीं करता, अपने अखबार के लिये करता हूं। इसलिये आप ये बात फिर कभी कहने की कोशिश न कीजियेगा कि बदले में आप मेरे लिये ये कर देंगी, वो कर देंगी।" .
"आई एम सॉरी!"
"सूरी को सीधे-सीधे बेगुनाह साबित नहीं किया जा सकता। उसकी बेगुनाह साबित करने का एक ही तरीका है कि अगर कत्ल उसने नहीं किया तो कातिल पकड़ा जाये। आपकी बात पर एतबार लाकर, कि वो कातिल नहीं हो सकता, मैं असल कातिल को तलाश करने की जी जान से कोशिश करूंगा।"
“थैक्यू ।”
"नमस्ते।"
सुनील मुगलबाग पहुंचा जहां कि काटन-किंग नरेश चटवाल का रेजीडेंस-कम-आफिस था।
उसने कोठी के विशाल बंद फाटक के सामने बैठे दरबान को बताया कि वो चटवाल साहब से मिलना चाहता था और उसे अपना कार्ड पेश किया।
चौकीदार ने कार्ड भीतर भिजवा दिया।
फिर थोड़ी देर बाद एक सर्वेंट सुनील को भी भीतर लिवा ले गया।
सर्वेंट उसे एक आफिसनुमा कमरे में छोड़ गया जहां कि विशाल आफिस टेबल के पीछे जो सूटबूटधारी आदमी बैठा था वो किसी नौजवान लड़की के बाप की उम्र का तो हरगिज नहीं लगता था। उसके सामने सुनील का विजिटिंग कार्ड पड़ा था जो जाहिर करता था कि वो ही चटवाल था।
"मिस्टर चटवाल!"-सुनील ने फिर भी पूछा।
“यस।"--वो बोला- "प्लीज हैव ए सीट।"
“थैंक्यू।”-सुनील उसके सामने एक कुर्सी पर बैठता हुआ बोला।
"आई कैन गिव यू फाइव मिनट्स।"
"फिर तो”-सुनील अपनी कलाई घड़ी उतार कर मेज पर अपने सामने रखता हुआ बोला-“मुझे अपनी बात जल्दी और बिना लाग लपेट के कहनी होगी।"
“यस । दैट विल बी बैटर।"
"मेरी अंग्रेजी जरा कमजोर है। मैं अपनी कमजोर अंग्रेजी आजमाऊं या आप हिन्दोस्तानी में बोलना शुरू करेंगे?"
"क्या कहना चाहते हो?"
“आप गोपाल बतरा को जानते हैं?"
"नाम से वाकिफ हूँ। आगे बढो।"
"हाल ही में उसका कत्ल हो गया है और ये हकीकत सामने आयी है कि वो एक ब्लैकमेलर था जो अपने कॉलम 'घर का भेदी' के जरिये लोगों को ब्लैकमेल करता था। उसके ब्लैकमेल के कई शिकारों में से एक शिकार ऐसा था जिसके नाम के प्रथमाक्षर एन. सी. हैं । मेरा पहला खयाल ये था कि वो एन. सी. 'निकल चेन' का मालिक निरंजन चोपड़ा था। आप निरंजन चोपड़ा से वाकिफ हैं?" .
"अपनी बात मुकम्मल करो।"

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