उसी रात को वह रूठी पत्नी को लेकर कलकत्ता आ गया था। जितनी बार
अम्मा बड़ी पुत्री का उतरा चेहरा देखतीं उनकी आँखें भर आतीं। छोटी
पुत्री माया, उन्हें अपने जीजा की दुष्कीर्ति का पूरा चिट्ठा एक
दिन एकान्त में सुना गयी थी।
''मैं तो मारे शरम के मर गयी अम्मा,'' वह रुआँसे स्वर में कहने
लगी थी, ''जीजाजी की एक विधवा महाराजिन ने भी तो इन पर नालिश की
है। कहती है इन्हें उसके पुत्र की पलाई देनी होगी, वह उन्हीं का
पुत्र है। एक और कोई भोटिया घिनौनी-सी औरत मेरे पास आयी थी, दीदी
का पता पूछने। कहने लगी, उसके मायके के पते पर चिट्ठी लिखकर सब
कुछ कहेगी। साहब ने तो उसे कहीं का नहीं रखा। स्कूल में
अध्यापिका थी, सातवीं महीना है। अब नौकरी भी गयी, नाम भी और
स्वयं साहब भी छिः! छिः, मुझे तो अब जीजाजी से बात करने में भी
घिन आती है। तुमने इस दानव को यहाँ कैसे रख लिया, अम्मा?''
पर क्या उसे अम्मा बाहर निकाल सकती थी? कितने आयोजन-उत्सव,
बाजे-शहनाई के बीच कभी जिसके पैर लकर कन्यादान किया था, उसे कग
अब घर छोड़कर निकल जाने को कह सकती थी? कैसा सुदर्शन सौम्य चेहरा
था और कैसा कलुषित आचरण!
पिछले दस वर्षों में इस परिवार में कितना कुछ बदल गया था। यह घर,
जो कभी जया-माया के क़हक़हों से गूँजता था, जहाँ सुवीर का छत
फोड़नेवाला ठहाका सुनकर अष्टग कभी-कभी पूजा से उठकर डपट देती
थीं-''बार रे बाप, रावण की-सी हँसी क्यों हँसता हैगा रे तू छोटे,
पूजा भी नहीं कर सकूँ हूँ मैं''-आज वही गह कैसा बियाबान जंगल-सा
भाँय-भाँय करने लगा था। बाबूजी अपने कमरे में ही बन्द दिन-रात
पेंशन के काग़ज़ों में डूबे रहते। दोनों दामाद और दोनों पूत्रियाँ
एक साथ बैठते, तो एक अस्वाभाविक चुप्पी सबको घेर लेती। कोई-नकोई
बहाना बनाकर माया कभी अपनी सहेली से मिलने चली जाती या अकेली ही
पिक्चर देखने चल देती।
''अकेली जा रही है, जया को भी लेती जा ना,'' अम्मा कहती।
''क्या पिक्चर देखेंगी अब दीदी, अभी तो वह यहीं रहेंगी अम्मा,
देखती रहेंगी। मैं तो पन्द्रह दिन में चली जाऊँगी।'' और मुँहफट
माया सचमुच पल्ला झाड़कर चली जाती। कई बार अम्मा दामोदर से पूछना
चाहतीं-क्या सचमुच ही अब उनकी नौकरी छूट गयी है? क्या कोई
केस-वेस चल रहा है? पर जया प्रायः घर ही पर रहती और उसका सूखा
मुँह देखकर अम्मा को फिर कुछ पूछने का साहस नहीं होता। पर इधर जब
से छोटी पुत्री ने उन्हें दामोदर प्रसाद के चरित्र के विषय में
भद्दी बातें बतायी थीं, वे मन-ही-मन बेहद घबरा गयी थीं। ऐसे
व्यक्ति को जब इसी गृह में रहना था तो वह सब जान-बूझकर अब कली को
यहाँ नहीं रख सकती थी।
कली ने अपना दौरा इस बार स्वेच्छा से ही लम्बा कर लिया था। वैसे
चाहने पर वह कलकत्ता लौट सकती थी, पर विवियन अब इलाहाबाद में
अपनी मौसी के पास रहकर यूनिवर्सिटी में पढ़ने लगी थी। उसी ने उसे
कई बार इलाहाबाद आने के लिए लिखा था, ''कब से तुम्हें नहीं देखा
है, यहाँ खूब घूमने-फिरने की जगह है, नैनी में अंकल डेविड भी बड़ी
अच्छी नौकरी पा गये हैं। जब आइसक्रीम खाने का जी होता है वहीं चल
देती हूँ, और हर ठण्डी गप्प के साथ तुम्हारी याद को घुटकती हूँ।
मुझे अभी भी याद है, नैनीताल के उस सड़े-से होटल की सड़ी आइसक्रीम
पर ही तुम मरी-मिटी जाती थी। नैनी का आईसक्रीम खाकर फिर तुम यहाँ
से जाना नहीं चाहोगी। एक बार चली आओ कली, फ़ॉर ओल्ड टाइम्स सेक''
और कली आठ दिन की लम्बी छुट्टी लेकर सीधी इलाहाबाद चल दी।
कली पहली बार इलाहाबाद आयी थी। कलकत्ता, दिल्ली और बम्बई के बाद
उसे यह शहर अजीब सूखा, बंजर गाँव-सा लगा।
विवियन अपने कजिन के साथ स्टेशन पर खड़ी थी। कली को देखते ही वह
उससे लिपट गयी, ''आई से, यू आर मच मच...'' वह जैसे कली का
बना-सँवरा आपादमस्तक बदला सौन्दर्य देखकर गूंगी बन गयी थी।
'मच-मच' के बाद कोई विशेषण उसे मिल ही नहीं रहा था।
''कौने कहेगा कि यह कली मजूमदार है! तू तो बड़ी ही ठाठदार बन गयी
है कली! बाप रे बाप, कौन-सा सेण्ट है री? रैवलौन? शैनेल? आई मस्ट
से यू आर मच-मच...'' यह फिर मचमचाने लगी और कली ने उसे हाथ पकड़कर
झकझोर दिया।
''विवियन, मारे भूख के आते निकल रही हैं, क्या इस इलाहाबाद आने
वाली लाइन पर लोग एकादशी करते चलते हैं? कहीं एक खोमचेवाला तो
दीखता...''
''अरे वाह, क्या हरनामगंज के छोले भी नहीं मिले तुझे? हम तो अकसर
हरनामगंज के स्टेशन तक जा, छोले खाकर लौट आते हैं,'' विवियन
काल्पनिक चटखारे लेकर कहने लगी, ''क्या बढ़िया बनता है, है ना
रॉबर्ट? ओह, इसे तो मिलाया ही नहीं। इससे मिलो, मेरा कजिन बीवी
और मेरी परमप्रिय सुन्दरी सखी कृष्णकली मजूमदार।'' साँवला,
दुबला-पतला युवक बालों के फुग्गे को यत्न से नचाता हाथ मिलाने बढ़
आया। उसकी लम्बी अँगुली पर पड़ी सिग्नेट रिंग को बार-बार उसकी
आँखों के नीचे घुमाया जा रहा था, यह कली ने देख लिया। बॉबी की
तंग पैण्ट शरीर से सिली लग रही थी। उसमें किसी पतली, किसी बैले
डांसर की-सी टाँगों को नचाता वह अपनी अठारहवीं शताब्दी की मोटर
गाड़ी का द्वार खोलने लपका और ऐसी अदा से द्वार खोलकर अमेमान में
खड़ा हो गया जैसे किसी लिमोसीन का द्वार खोले खड़ा हो।
''इस बार बॉबी की इस गाड़ी को इनाम मिला है कली, ''विवियन ने आँख
मारकर कली की बाँह में चिमटी काटी।
''पहला इनाम,'' बॉवी ने बड़े गम्भीर स्वर में विवियन को टोक दिया।
''अच्छा!'' कली ने अपनी सुन्दर आँखों की रेशमी पलकें झपकाकर
कहा।
''मोस्ट वेल केप्ट कार,'' कार का सर्टिफिकेट भी मिला है इसे।
'माई डियर ओल्ड गलइ' बॉबी ने कार को बड़े प्यार से थपथपाकर
स्टार्ट किया, पर 'डियर ओल्ड गर्ल' रूठी बैठी रही। उसकी मशीन में
सामान्य-सा स्पन्दन भी नहीं हुआ।
''आज कुछ ठण्ड भी है, शायद इंजन इसी से गर्म नहीं हो रहा है,
विवियन,'' वह खिसियाये स्वर में कैफ़ियत देता नीचे उतर आया।
''ए ब्यायज,'' उसने पास खड़े तीन-चार छोकरों को पुकारा, ''थोरा
धकेलेगा, बक्शीश देगा।''
''मैंने इससे पहले ही कह दिया था कि बॉबी रिक्शा में चलेंगे,
गाड़ी रहने दो पर माना ही नहीं। अब कम-से-कम तीन दर्जन आदमी
धकेलेंगे, तब इसका खटारा
चलेगा!''
पर शायद सुन्दरी कली के सम्मुख अपदस्थ होने की स्वामी की
खिसियाहट, अचल गाड़ी ने भाँप लिया था। एक हड्डी-तोड़ झटके के साथ
वह स्टार्ट हो गयी।
''थैंक गॉड वॉबी, तुम्हारी होकर आज शायद घर तक पहुँचा ही देगी।''
''ऐसी बात तो नहीं है सिस,'' और बीबी ने शायद कली पर अपने रोब का
सिक्का जमाने को होकर की स्पीड अचानक तेज कर दी। कली कभी सँकरी
और कभी आश्चयइजनक तेजी से प्रशस्त बनती जा रही इलाहाबाद की
बहुरंगी सड़कों को देखती जा रही थी। कभी गन्दी झोंपड़ियों के
झुरमुट के सम्मुख बँधी, कीचड़-गोबर से सनी भमिकाय भैंसें जुगाली
करती दीख जातीं, कभी चमचमाती आलीशान अट्टालिकाओं की बरसाती में
खड़ी रैमल और नयी फ़ियेट गाड़ियाँ।
''बस अब हम पहुँच ही गये हैं, वह रहा आण्टी का बँगला,'' विवियन
ने कहा। बीवी कुशल चालक की मुद्रा में केवल बायें हाथ की कुहनी
से 'व्हील को साधे, झुककर सिगरेट जला रहा था। साथ ही पार्श्व में
लगे नन्हे दर्पण के माध्यम से कनखियों से कली को भी देखता जा रहा
था। उसके सर्वथा बनावटी व्यक्तित्व की क्षणिक झलक कली ने भी उसी
दर्पण में देख ली। किसी विदेशी चलचित्र के नायक की उस मुद्रा को
बीबी ने बड़े यत्न से कण्ठस्थ किया होगा, यह वह मन-ही-मन समझ
गयी।
''आई होप, आण्टी नहा-धोकर तैयार हो गयी होंगी। उन्हें नहाने में
भी तो पूरा दिन लग जाता है,'' विवियन ने कहा।
बॉबी ने एक साफ़-सुथरे बँगले के सामने गाड़ी रोक दी और फटाकु से
गाड़ी का द्वार खोलकर, फ़ौजी क़दम रखता, एक बार फिर अटेंशन की
मुद्रा में खड़ा हो गया।
''बड़ी साफ़-सुथरी कॉलोनी है, कलकत्ता में तो हम आध गज आसमान की
झलक देखने को ही तरस जाते,'' कली ने प्रशंसापूर्ण दृष्टि से
ऑण्टी के बँगले को परखकर कहा।
''जी हां, जी हां, यू आर राइट,'' बॉबी जैसे अब तक बातें करने को
छटपटा रहा था-''कलकत्ता मैं भी काफ़ी रहा हूँ यहाँ तो सब एंग्लो
इण्डियन परिवार रहते हैं। वैसे आण्टी का बँगला शायद इस बस्ती का
सबसे पुराना बँगला है पर लगता एकदम नया है, है ना?'' कली के
गृह-प्रवेश के पूर्व बीबी महा उत्साह से अपने बँगले की सरस
भूमिका बाँधता उसे भीतर ले चला।
...Prev | Next...