नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (पेपरबैक) लहरों के राजहंस (पेपरबैक)मोहन राकेश
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सुंदरी : यहाँ आइए।
नंद: (पास आता हुआ)
वहाँ पड़ा हुआ वह कल कैसा लग रहा था ! और न जाने क्यों इस समय प्रभात का फीका
चाँद भी मुझे वैसा ही लगा
कोमल, अक्षत और निर्जीव !
सुंदरी : (अपने में व्यस्त)
देखिए, अलका नहीं है, मुझे स्वयं अपना प्रसाधन करना होगा।
नंद : लगा जैसे घने वृक्षों में सदा से वह इसी तरह अटका हो, इस आशा में कि
कभी कोई उसे वहाँ पड़ा देख लेगा और बाँहों में उठाकर ले जाएगा।
सुंदरी : आपने सुना है मैंने क्या कहा है ?
नंद : (अपने को सहेजकर)
क्या कहा है ?
सुंदरी : कि अलका नहीं है, मुझे अपना प्रसाधन स्वयं करना होगा।
इसलिए आप यहाँ मेरे पास ठहरिए।
नंद : परंतु अभी तुम्हीं ने कहा था कि ।
सुंदरी : वह तब कहा था । अब कह रही हूँ कि यहाँ मेरे पास ठहरिए।
दर्पण में देखती हुई अपने बाल खोलने लगती है।
नंद : और यदि थोड़ी देर में फिर कह दोगी कि ।
सुंदरी होंठों पर उँगली रखकर उसे चुप रहने के लिए कहती है।
सुंदरी : बाधा न डालिए।
नंद मुस्कराकर आज्ञा-पालन की मुद्रा में सामने चबूतरे पर बैठ जाता है। सुंदरी
बाल खोलकर धीरे-धीरे उनमें तेल लगाती है। एक बात कहूँ ?
नंद : कहो।
सुंदरी: आपको माननी होगी।
नंद : तुम्हारी बात मैंने कब नहीं मानी ?
सुंदरी : आपको वचन देना होगा, कि कल रात जो कुछ हुआ, उसे आप बिल्कुल भूल
जाएँगे।
नंद : मुझे तो नहीं लगता कि कल रात ऐसा कुछ हुआ भी है।
सुंदरी: आप उस विषय में सोचेंगे भी नहीं।
नंद : यह तुम अपने से कहो जो अब भी उस विषय में सोच रही हो।
सुंदरी : और कभी मुझे उसकी याद भी नहीं दिलाएँगे।
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