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नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (पेपरबैक)

लहरों के राजहंस (पेपरबैक)

मोहन राकेश

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 11998
आईएसबीएन :9788126730582

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सुंदरी : यहाँ आइए।

नंद: (पास आता हुआ)
वहाँ पड़ा हुआ वह कल कैसा लग रहा था ! और न जाने क्यों इस समय प्रभात का फीका चाँद भी मुझे वैसा ही लगा
कोमल, अक्षत और निर्जीव !

सुंदरी : (अपने में व्यस्त)
देखिए, अलका नहीं है, मुझे स्वयं अपना प्रसाधन करना होगा।

नंद : लगा जैसे घने वृक्षों में सदा से वह इसी तरह अटका हो, इस आशा में कि कभी कोई उसे वहाँ पड़ा देख लेगा और बाँहों में उठाकर ले जाएगा।

सुंदरी : आपने सुना है मैंने क्या कहा है ?

नंद : (अपने को सहेजकर)
क्या कहा है ?

सुंदरी : कि अलका नहीं है, मुझे अपना प्रसाधन स्वयं करना होगा।
इसलिए आप यहाँ मेरे पास ठहरिए।

नंद : परंतु अभी तुम्हीं ने कहा था कि ।

सुंदरी : वह तब कहा था । अब कह रही हूँ कि यहाँ मेरे पास ठहरिए।
दर्पण में देखती हुई अपने बाल खोलने लगती है।

नंद : और यदि थोड़ी देर में फिर कह दोगी कि ।
सुंदरी होंठों पर उँगली रखकर उसे चुप रहने के लिए कहती है।

सुंदरी : बाधा न डालिए।
नंद मुस्कराकर आज्ञा-पालन की मुद्रा में सामने चबूतरे पर बैठ जाता है। सुंदरी बाल खोलकर धीरे-धीरे उनमें तेल लगाती है। एक बात कहूँ ?

नंद : कहो।
सुंदरी: आपको माननी होगी।

नंद : तुम्हारी बात मैंने कब नहीं मानी ?
सुंदरी : आपको वचन देना होगा, कि कल रात जो कुछ हुआ, उसे आप बिल्कुल भूल जाएँगे।

नंद : मुझे तो नहीं लगता कि कल रात ऐसा कुछ हुआ भी है।
सुंदरी: आप उस विषय में सोचेंगे भी नहीं।

नंद : यह तुम अपने से कहो जो अब भी उस विषय में सोच रही हो।

सुंदरी : और कभी मुझे उसकी याद भी नहीं दिलाएँगे।

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