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नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (पेपरबैक)

लहरों के राजहंस (पेपरबैक)

मोहन राकेश

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 11998
आईएसबीएन :9788126730582

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नंद : इसलिए कि थककर आया हूँ। दिन-भर एक मृग का पीछा किया, फिर भी वह हाथ नहीं आया । जाने कैसा मायामृग था वह !

सुंदरी : यह तो कभी नहीं हुआ कि आपका आखेट आपके हाथ से निकल जाए।

नंद : हाथ से निकला भी तो नहीं। ...सच, थकान उतनी शरीर की नहीं जितनी मन की है। मृग मेरे बाण से आहत नहीं हुआ, इससे मन को उतना खेद नहीं हुआ, जितना इससे कि जब थककर लौटने का निश्चय किया, तो वही मृग थोड़ी ही दूर आगे रास्ते में मरा हुआ दिखाई दे गया।

सुंदरी: किसी और के बाण से आहत हुआ वह ? ।

नंद : नहीं। किसी के बाण से आहत नहीं हुआ, अपनी थकान से मर गया। बाण से क्षत-विक्षत मृग को देखकर मन में कभी कोई अनुभूति नहीं होती, होती भी है, तो केवल प्राप्ति की हल्की-सी अनुभूति । परंतु बिना घाव के अपनी ही क्लांति से मरे हुए मृग को देखकर मन में जाने कैसा लगा ! और लौटकर आते हुए अपने-आप इतना थका और टूटा हुआ लगने लगा कि...।

सुंदरी : थोड़ी मदिरा ले लीजिए | मन स्वस्थ हो जाएगा।

मदिराकोष्ट की ओर जाने लगती है।

नंद : अभी और नहीं । कुछ देर बाद । (सहसा उठकर) मैंने कभी सोचा तक नहीं था कि मरा हुआ मृग भी इतना सजीव लग सकता है । ऐसे लग रहा था जैसे हाथ लगाते ही वह आशंका से काँप जाएगा और सहसा उठकर भाग खड़ा होगा। पर मैं उसे हाथ भी तो नहीं लगा सका। आखेटकों ने उसे उठा लाना चाहा, तो मैंने मना कर दिया। कहा कि उसे वहीं पड़ा रहने दो, उसी रूप में मृत और जीवित !

सुंदरी : अतिथियों के आने तक शयनकक्ष में विश्राम करना चाहेंगे ?

नंद : (जैसे कुछ चौंककर)

अतिथियों के आने तक ? नहीं । तुमने पहले ही कह दिया था कि आज विश्राम नहीं होगा।

सुंदरी : मैंने कहा तो था, पर तब यह कहाँ सोचा था कि...

नंद : तुम्हारी कही हुई बात तुम्हारे लिए उतना महत्त्व नहीं रखती जितना मेरे लिए । (उसके कंधों पर थोड़ा झुककर) यह तुम नहीं जानतीं।

सुंदरी : मैं नहीं जानती ?

नंद : जानतीं, तो ऐसा कहतीं ?

बाईं ओर के द्वार से शशांक आता है। उन्हें देखकर पल-भर के लिए द्वार के पास ठिठकता है।

शशांक : देवी का आदेश था कि मैं |

सुंदरी : हाँ, मैंने तुम्हें बुला भेजा था । बताना चाहती थी कि उद्यान में अतिथियों के बैठने की व्यवस्था कैसे करनी है । आसन इस तरह बिछाने होंगे कि चार-चार, छ:-छः लोग एक-एक वृक्ष के नीचे बैठ सकें। सारा जमघट एक ही स्थान पर हो, यह मैं नहीं चाहूँगी ।

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