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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शिवपुराण

शिवपुराण

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1190
आईएसबीएन :81-293-0099-0

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...


जन्म और मरणरूप द्वन्द्व को भगवान् शिव की माया ने ही अर्पित किया है। जो इन दोनों को शिव की माया को ही अर्पित कर देता है वह फिर शरीर के बन्धन में नहीं पड़ता। जब तक शरीर रहता है, तब तक जो क्रिया के ही अधीन है, वह जीव बद्ध कहलाता है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण- तीनों शरीरों को वश में कर लेने पर जीव का मोक्ष हो जाता है ऐसा ज्ञानी पुरुषों का कथन है। मायाचक्र के निर्माता भगवान् शिव ही परम कारण हैं। वे अपनी माया के दिये हुए द्वन्द्व का स्वयं ही परिमार्जन करते हैं। अत. शिव के द्वारा कल्पित हुआ द्वन्द्व उन्हीं को समर्पित कर देना चाहिये। जो शिव की पूजा में तत्पर हो, वह मौन रहे, सत्य आदि गुणोंसे संयुक्त हो तथा क्रिया, जप, तप, ज्ञान और ध्यान में से एक-एक का अनुष्ठान करता रहे। ऐश्वर्य, दिव्य शरीर की प्राप्ति, ज्ञान का उदय, अज्ञान का निवारण और भगवान् शिव के सामीप्य का लाभ- ये क्रमश: क्रिया आदि के फल हैं। निष्काम कर्म करने से अज्ञान का निवारण हो जाने के कारण शिवभक्त पुरुष उसके यथोक्त फल को पाता है। शिवभक्त पुरुष देश, काल, शरीर और धन के अनुसार यथायोग्य किया आदि का अनुष्ठान करे। न्यायोपार्जित उत्तम धन से निर्वाह करते हुए विद्वान् पुरुष शिव के स्थान में निवास करे। जीवहिंसा आदि से रहित और अत्यन्त क्लेशशून्य जीवन बिताते हुए पंचाक्षर-मन्त्र के जप से अभिमन्त्रित अन्न और जल को सुखस्वरूप माना गया है अथवा कहते हैं कि दरिद्र पुरुष के लिये भिक्षा से प्राप्त हुआ अन्न ज्ञान देनेवाला होता है। शिवभक्त को भिक्षान्न प्राप्त हो तो वह शिवभक्ति को बढ़ाता है। शिवयोगी पुरुष भिक्षान्न को शम्भुसत्र कहते हैं। जिस किसी भी उपाय से जहाँ-कहीं भी भूतल पर शुद्ध अन्न का भोजन करते हुए सदा मौन- भाव से रहे और अपने साधन का रहस्य किसी पर प्रकट न करे। भक्तों के समक्ष ही शिव के माहात्म्य को प्रकाशित करे। शिवमन्त्र के रहस्य को भगवान् शिव ही जानते हैं, दूसरा नहीं।

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