वास्तु एवं ज्योतिष >> लघुपाराशरी सिद्धांत लघुपाराशरी सिद्धांतएस जी खोत
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5.9 उदारहण : पापी शुक्र की महादशा शुभ फल देने वाली बनी
ज्योतिष शास्त्र तो जीवन शास्त्र है, जिस प्रकार जीवन सरल रेखा में समान गति से न चलकर विषम गति से चला करता है, कुछ इसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र को कुछ नियमों में बाँध पाना निश्चय ही कठिन कार्य है। इस उदाहरण में शुक्र तृतीयेश व अष्टमेश होने से महान अशुभ व अनिष्टप्रद जान पड़ता है। कारण–अष्टमेश को महान पापी माना गया है। फिर शुक्र ने शुभ परिणाम कैसे दिए?
(i) शुक्र नैसर्गिक शुभ ग्रह होकर अपनी वृष राशि से दशम तो मूल त्रिकोण राशि तुला से पंचम भाव में है। श्री महेन्द्रनाथ केदार ने अपनी राशि से केन्द्र व त्रिकोण भाव में बैठे ग्रह को बहुत शुभ व योगकारक माना है।
(ii) अष्टमेश का व्यय भाव में बैठना विपरीत राजयोग देता है, फिर यहाँ तो शुक्र भाग्येश का नियन्त्रक भी है।
(ii) द्वादश भाव में बैठा शुक्र निश्चय ही धन, वैभव, भोग व लौकिक सुख बढ़ाता है। कारण-शुक्र योगप्रदाता है तो द्वादश स्थान भी योग स्थान है।
शुक्र-शुक्र-जातक हीन अवस्था में प्रियजन व घर से दूर हीन अवस्था में रहा। कुछ समय कारावास में भी रहना पड़ा। शुक्र अष्टमेश होकर एकादशेश शनि के साथ व्यय भाव में है। चतुर्थस्थ की दृष्टि व्यय भाव और व्ययेश पर है। अतः घर से दूर रहकर कष्ट भोगना जातक की नियति बना।
शुक्र-सूर्य–मुक्तिनाथ सूर्य षष्ठेश होकर दशमेश गुरु और राहु के साथ है तो दशानाथ से एकादश भाव में है। राह से सम्बन्ध करने वाला ग्रह बधा सम्भावनाएँ तो देता है किन्तु ठोस परिणाम नहीं दे पाता। सूर्य षष्ठेश हाकर राहु से युति के कारण पापी है तथा दशानाथ से दृष्टि-युति भी नहीं कर रहा। अतः अच्छे प्रशासनिक पदे की सम्भावना बनी किन्तु पद प्राप्त नहीं हो पाया। बात बीच में ही रुक गई। ,
शुक्र-चन्द्रमा–मुक्तिनाथ चन्द्रमा नीच राशिस्थ होने से भले ही अशुभ जान पड़े किन्तु वह त्रिकोण भावाधिपति होकर अन्य त्रिकोण में है तथा दशानाथ से दशम भाव में है। अतः कार्य क्षेत्र में लाभ देगा। किन्तु चन्द्रमा का पापकर्तरी योग में होनी चन्द्रमा को दुर्बलता देता है। इस अवधि में परिस्थितियाँ थोड़ी सुधरीं किन्तु विशेष उपलब्धि अलभ्य रही।
शुक्र-मंगल-भुक्तिनाथ मंगल भाग्येश होकर दशानाथ शुक्र से नवम अर्थात् . भाग्य स्थान में है। अतः भाग्य वृद्धि की सम्भावना बढ़ा रहा है। जातक बहुप्रतीक्षित उच्च प्रशासनिक पद पाने में सफल हुआ।
शुक्र-राहु-दशानाथ शुक्र बैठा है। लग्न से गणना करने पर षष्ठेश सूर्य की युति के कारण शत्रु राहु भय, देने वाला बना। इस अन्तर्दशा में विपक्षी जागे जिससे जातक को शारीरिक, मानसिक क्लेश भुगतना पड़ा।
शुक्र-गुरु-लग्नेश गुरु की भुक्ति शुभ परिणाम देने वाली बनी। गुरु का केन्द्र स्थान में स्वक्षेत्री होना हंस योग बना रहा है। दशानाथ शुक्र से, गुरु लाभ स्थान में स्वक्षेत्री होने से लाभ वृद्धि में सहायक हुआ।
शुक्र-शनि-शनि एकादशेश होने से पापी है तो दशानाथ शुक्र भी अष्टमेश होने से पापी है। दोनों की व्यय भाव में परस्पर युति भी है। अतः दो पाप ग्रहों का परस्पर सम्बन्ध उनकी दशा भुक्ति को महान अशुभ बनाता है। इस अवधि में जातक को दुर्घटना के कारण देहकष्ट व पीड़ा सहनी पड़ी। इस शनि अन्तर्दशा में जातक को पदोन्नति व धन लाभ भी मिला। जिस भाव से त्रिषडाय (3,6,11 भाव) में पाप या क्रूर ग्रह हों उस भाव की वृद्धि होती है। दशम या कर्म भाव से तीसरे भाव षष्ठेश एकादशेश शुक्र की धनेश-तृतीयेश शनि के साथ युति है। अतः पदोन्नति व धन लाभ होना स्वाभाविक जान पड़ता है।
शुक्र-बुध-बुध दो केन्द्रों का स्वामी होने से केन्द्राधिपति दोष के कारण अपनी शुभता खोकर सम हो गया है। बुध पर भाग्येश मंगल की दृष्टि इसे शुभता प्रदान करती है। भुक्तिनाथ बुध का चतुर्थ भाव, अपने स्वामी मंगल की दृष्टि पाने से शुभ हो गया है। इस अवधि में जातक का मकान बना तथा पारिवारिक सुख में वृद्धि हुई व पुत्र का व्यवसाय जमा। ध्यान रहे, बुध चतुर्थेश होकर लाभ स्थान में है अतः नया मकान देने वाला बना। पुनः बुध की दृष्टि सन्तान भाव पर है तो बुध नियन्त्रक शनि सन्तान के कर्म अर्थात् लग्न से द्वितीय स्थान को देख रहा है।
शुक्र-केतु - केतु केन्द्र स्थान में दशानाथ शुक्र से पंचम या त्रिकोण भाव में बैठने के कारण शुभ है। पुनः लग्नेश गुरु की दृष्टि केतु पर होने से केतु की भुक्ति धन, मान व यश देने वाली बनी। षष्ठेश सूर्य की दृष्टि पाने से केतु स्वास्थ्य में गिरावट देने वाला भी बना।
इस प्रकार हमने देखा कि शुक्र की दशा में विभिन्न ग्रहों की अन्तर्दशा किस प्रकार शुभ व अशुभ परिणाम देने वाली बनी।
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