भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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राजा : आप मुझे कोई और न समझ बैठिएगा। वास्तव में यह अंगूठी तो मुझे
महाराज से पुररकार में प्राप्त हुइ है। आप मुझे राजपुरुष ही समझिए, कोई
अन्य नहीं।
प्रियंवदा : तब तो इस अंगूठी को आपको अपनी अंगुली से अलग नहीं करना चाहिए।
आपने ऋण चुकाने की बात कह दी, वरन इतने मात्र से हमारी राखी का ऋण चुकता
हो गयासमझिए। शकुन्तला इनकी या यों कहो, कि महाराज की कृपा से तुम ऋण से
मुक्त हो गई हो, अब तुम जाना चाहो तो जा सकती हो।
शकुन्तला : (मन-ही-मन) मेरा अपना मन अपने हाथ में हो तब तो जाऊं। (प्रकट)
मुझे जाने देने वाली अथवा रोकने वाली तुम कौन होती हो?
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