भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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राजा : (मन-ही-मन) चलो, मेरे मनोरथ को कुछ आश्रय तो मिला किन्तु इसकी सखी
प्रियंवदा ने मनोविनोद में कुछ इसके वर मिलने की-सी बात की थी। इससे मन
में सन्देह होता है कि कहीं इसका सम्बब्ध बन तो नहीं गया है!
प्रियंवदा : (मुस्कुराती है और पहले शकुन्तला की ओर और फिर राजा की ओर
देखती है। फिर कहती है) आर्य! क्या कुछ और भी पूछने की इच्छा करते हैं?
(शकुन्तला उसे अंगुली से तरजती है।)
राजा : आपने तो हमारे मन की बात जान ली है। इनकी सुन्दर कथा सुनने के लोभ
से हम कुछ और भी पूछने की इच्छा करते हैं।
प्रियंवदा : फिर सोच किस बात का? तपस्वियों से तो आप बिना किसी झिझक के
कुछ भी पूछ सकते हैं।
राजा : आपकी सखी के सम्बन्ध में हम जानना चाहते हैं कि-
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