भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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राजा : हां, यह भी मैंने सुन रखा है। अन्यों की तपस्या को देखकर देवता लोग
भयभीत होते ही हैं।
अनसूया : तो वसन्त ऋतु में उसका उन्माद भरा यौवन देखकर...
[आधा कहकर लजा जाती है।]
राजा : अब आगे कहने कीआवश्यकता नहीं है, यह तो सहज ही अनुमान लगाया जा
सकता है। आपकी यह सखी तो सचमुच अप्सरा की ही कन्या है।
अनसूया : और नहीं तो क्या।
राजा : ठीक भी है-
अन्यथा मनुष्यों में ऐसा रूप कहां देखने को मिलता है। चंचल चमकवाली दामिनी
धरती तल से कभी नहीं निकल सकती।
[शकुन्तला सिर झुका लेती है।]
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