भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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राजा : जी, मैं सुन रहा हूं।
मरीचि : जब बिलखती हुई मेनका इस शकुन्तला को लेकर, अप्सरा तीर्थ से उतरकर
यहां दाक्षायणी के समीप आई तो उसी समय मैंने ध्यान से जान लिया था
कि वह दुर्वासा का शाप ही था जो तुमने अपनी इस तपस्विनी धर्मपत्नी
को उस समय न पहचानने के कारण त्याग दिया था।
किन्तु दुर्वासा का वह शाप तब तक के लिए ही था जब तक कि तुम इस अंगूठी को
न देख लो। अब उसके साथ ही वह शाप समाप्त हो गया है।
[राजा उच्छ्वास लेता है।]
राजा : चलिये, दोष से मुक्ति तो मिली।
शकुन्तला : (श्वगत) यह बड़े भाग्य की बात है कि आर्यपुत्र ने मुझे अकारण ही
नहीं त्यागा था। किन्तु यह तो मेरे स्मरण में आ ही नहीं रहा कि
मुझसे कब महर्षि दुर्वासा के प्रति अपराध हुआ और कब उन्होंने मुझे
ऐसा शाप दिया था।
या फिर यह भी हो सकता है कि शाप मुझको ही मिला हो और अपने विरह की धुन में
मुझे उसका स्मरण ही न रहा हो। अब मेरी समझ में आने लगा है। आश्रम से
चलते समय मेरी सखियों ने मुझसे कहा था कि यदि आवश्यकता पड़ जाये तो
अपने पति को यह उनकी दी हुई अंगूठी दिखा देना।
मरीचि : वत्से! तुमने इसका अभिप्राय ठीक ही समझा है।
इसलिए अब तुम अपने पति के प्रति किसी प्रकार का रोष और क्रोध न करना।
देखो-
जिस प्रकार दर्पण पर धूल पड़ी रहने से उसमें कोई अपना प्रतिबिम्ब ठीक
प्रकार से नहीं देख सकता किन्तु उसकी धूल साफ कर दी जाती है तो
उसमें अपना प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखाई देने लगता है। ठीक वैसे ही शाप
के कारण राजा के मन में स्मृति धुंधली पड़ जाने से उन्होंने तुम्हारा
परित्याग कर दिथा था। किन्तु जब शाप छूट गया तो उन्होंने तुम्हें
भली-भांति पहचान लिया है और ग्रहण भी कर लिया है।
राजा : भगवान ठीक कहते हैं।
मरीचि : वत्स! हमने शकुन्तला के पुत्र के अब तक के सब संस्कार भली-भांति
सम्पन्न कर दिये हैं। तुम बताओ कि तुमने उसको स्वीकार किया है अथवा
कि नहीं?
राजा : भगवन्! यही बालक तो हमारा वंश चलाने वाला है।
[बालक को गोद में उठाने का अभिनय करता है।]
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