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भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित

अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित

सुबोधचन्द्र पंत

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :141
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 11183
आईएसबीएन :8120821548

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[दृश्य परिवर्तन]

[अदिति के साथ आसन पर बैठे हुए मरीचि दिखाई देते हैं।]

मरीचि : (रजा को देखकर) दाक्षायणि! यह देखो दुष्यन्त।

ये ही वे राजा दुष्यन्त हैं जो सारे संसार का पालन करते हैं जो तुम्हारे पुत्र इन्द्र की लड़ाई में सबसे आगे रहते हैं और जिनके धनुष ने इतना काम कर डाला है कि इन्द्र का तीखी धार वाला वज्र उनका आभूषण बनकर शोभायमान हो रहा है।
अदिति : इनके डील-डौल से ही इनके पराक्रम का ज्ञान हो रहा है।
मातलि : आयुष्मन्! यह हैं देवताओं के माता-पिता। ये आपकी ओर ऐसे प्यार से देख रहे हैं जैसे माता-पिता अपने बच्चों को देखते हैं। जाओ, उनके समीप जाओ।
राजा : मातलि! ये ही वे हैं-
जो ब्रह्मा से एक पीढ़ी उपरान्त दक्ष और मरीचि से उत्पन्न हुए थे, जिन्हें ऋषि लोग बारहों आदित्यों के माता-पिता मानते हैं। यज्ञ में भाग लेने वाले इन्द्र ने जिनसे जन्म लिया है और अपने में अपने-आप उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा भी संसार का कल्याण करने के लिए जिनकी गोद में जन्म लिया करते हैं।
मातलि : और नहीं तो क्या?

[राजा पास पहुंचकर]

राजा : नित्य ही इन्द्र की आज्ञा का पालन करने वाला यह दुष्यन्त; आप दोनों को प्रणाम करता है।
मरीचि : वत्स! चिरंजीव रहो। पृथ्वी का भली प्रकार पालन कर यश अर्जन करो।
अदिति : वत्स! अप्रतिरथ बनो। तुम इतने बलवान बनो कि कोई भी शत्रु तुम्हारे सम्मुख टिकने न पाये।
शकुन्तला : मैं अपने पुत्र के साथ आप दोनों के चरणों में प्रणाम करती हूं। 

मरीचि : वत्से!
तुम्हारा पति इन्द्र के समान है, तुम्हारा पुत्र जयन्त के समान है। इसलिए मैं असमंजस में हूं कि तुम्हें किस प्रकार का आशीर्वाद दूं। हां, मैं तुमको आशीर्वाद देता हूं कि तुम पौलोमी, अर्थात् इन्द्राणी के समान तेजस्वी बनो।
अदिति : बेटी! तुम अपने पति से आदर पाने वाली बनो। तुम्हारा पुत्र दीर्घायु पाकर दोनों कुलों को सुख देने वाला बने।
आओ, बैठ जाओ।

[सब प्रजापति के चारों ओर बैठ जाते हैं।]

मरीचि: (रराबको एक-एक कर संकेत करते हुए-)

आज सौभाग्य से यह पतिव्रता शकुन्तला, यह श्रेष्ठ बालक और तुम, तीनों ऐसे एकत्रित होकर मिल गये हो जिस प्रकार कि श्रद्धा, धन और क्रिया तीनों एक साथ मिल जायं।
राजा : भगवन्! आपकी कृपा तो वास्तव में बड़ी ही विचित्र है जिसमें मनोरथ तो पहले ही सिद्ध हो जाता है और दर्शन का सौभाग्य बाद में प्राप्त होता है।
क्योंकि-
कार्य और कारण का तो यही क्रम है कि पहले फूल लगता है उसके बाद ही फल आता है। पहले बादल उठते हैं उसके बाद वर्षा होती है।
पर आपके यहां तो सारे सुख आपकी कृपा के तो ऐसे ही होती है।
मातलि : जो स्वयं भाग्य के निर्माता हैं, उनकी कृपा के आगे-आगे चलते हैं।
राजा : भगवन्! मैंने आपकी इस आज्ञाकारिणी कन्या से एक समय में गान्धर्व रीति से विवाह कर लिया था। उसके कुछ दिन उपरान्त जब इनके सगे-सम्बन्धी इन्हें लेकर मेरे पास आये तो न जाने मेरी स्मृति को क्या हो गया कि मैं इनको पहचान ही नहीं पाया। मैं वह सब एकदम ही भूल गया था। उस समय मैंने इनका बड़ा निरादर करके लौटा दिया था।
ऐसा करके मैंने आपके सगोत्री महर्षि कण्व का बड़ा भारी अपराध किया था। फिर जब मेरे पास किसी प्रकार से यह अंगूठी आ गई और मैंने इसको देखा तो उस समय मुझे सब स्मरण हो आया कि-मैंने कण्व जी कीं कन्या से उनके आश्रम में गान्धर्व रीति से विवाह किया था।
ये सब बातें मुझे बड़ी विचित्र-सी जान पड़ रही हैं।
मुझे अपनी यह भूल ठीक वैसी ही लग रही है जैसे आंख के सामने से चले जाते हुए हाथी को देखकर मन में यह सन्देह हो कि यह हाथी है अथवा कि नहीं। और फिर उसके दूर निकल जाने पर उसके पैरों की छाप देखकर यह विश्वास किया जाये कि हां, वास्तव में ही वह तो हाथी ही था।
मरीचि : वत्स! तुम अपने मन से अपनी अपराध-भावना बिलकुल ही निकाल डालो। क्यों कि इस प्रकार की भूल तुमसे तो हो ही नहीं सकती। जो कुछ हुआ वह मैं तुम्हें सुनाता हूं। 
सुनो- 

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