भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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राजा : सुनो-
अभी तो मुझे मालिनी नदी दिखानी है जिसकी रेत पर हंस के जोड़े बैठकर केलि कर
रहे थे। मालिनी नदी के दोनों ओर हिमालय की वह तलहटी दिखानी है जहां
हरिण बैठे हुए जुगाली कर रहे हों। उसके समीप ही मैं एक ऐसे पेड़ को
भी चित्रित करना चाहता हूं जिस पर बल्कल के वस्त्र टंगे होंगे और उसके
नीचे बैठे हरिण युगल में हरिणी अपनी बायीं आंख को काले हरिण के सींग
से खुजला रही हो।
विदूषक : (अपने मन में) मैं समझता हूं कि इस चित्र को तो अब लम्बी-लम्बी
जटाओं तथा दाढ़ी वाले तपस्वियों से भर देना चाहिए।
राजा : मित्र! और भी है। अभी तो मैं वह आभूषण आदि भी बनाना भूल गया हूं जो
कि मैं अपनी प्रिया शकुन्तला को पहनाना चाहता था।
विदूषक : वे आभूषण कौन-कौन-से थे?
सानुमती : वे ही हो सकते हैं जो कि उस जैसी वनवासिनी कुमारिकायें पहना
करती हैं।
राजा : और मित्र! देखो-
अभी तो मैं वह शिरीष कुसुम भी बनाना भूल ही गया हूं जो कि उसने उस समय
अपने कानों पर रखा हुआ था। उस पुष्प का पराग उसके गालों पर छिटक गया था।
इतना ही नहीं, अभी तो उसके स्तनों के मध्य में चन्द्रमा की किरण के समान
पतले कमल के तन्तुओं की माला भी मैंने नहीं बनाई है।
विदूषक : क्यों मित्र! यह देवी अपनी कमल की पंखुड़ी के समान कोमल और लाल
हथेलियों से अपना मुख ढंके हुए बहुत डरी-डरी-सी खड़ी हुई क्यों दिखाई दे
रही हैं?
(चित्र को फिर ध्यान से देखकर) और देखिये, यह फूलों के रस का लोभी नीच
भ्रमर देवी के मुख पर आकर मंडराये ही जा रहा है?
राजा : भगाओ तो इस ढीठ को।
विदूषक : महाराज! दुष्टों को दण्ड देना तो आपका ही काम है, अब आप ही इसे
भगाइये।
राजा : तुम ठीक ही कहते हो।
अरे, फूल और लताओं के प्रिय अतिथि! तू क्यों इसके मुख पर
मंडराने का कष्ट कर रहा है? वह देख तेरे प्रेम की प्यासी यह भ्रमरी तेरी
ओर ही आंख लगाए उस फूल पर बैठी है। वह अपने पतिव्रत धर्म का पालन करती हुई
तेरे बिना फूलों के मकरन्द का पान भी नहीं कर रही है।
सानुमती : ऐसी अवस्था में भी महाराज कितनी मधुर वाणी में बड़ी शालीनता से
भौरे को वहां से चले जाने के लिए कह रहे हैं।
विदूषक : महाराज! ऐसे खोटे लोग क्या बातों से मानते हैं?
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